पुजारी ने फिटफिटाकर कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि उन्होंने फिर कहा, ‘‘बस, बस, बस, बहुत ज़्यादा पैंतरा न दिखाओ। हम लोग शिवपालगंज के रहनेवाले हैं। ज़बान को अपनी बाँबी में बन्द रखो।’’ कुछ दूर चलने पर रंगनाथ ने कहा, ‘‘ग़लती मेरी ही थी। मुझे कुछ कहना नहीं चाहिए था।’’ रुप्पन बाबू ने सान्त्वना दी, ‘‘बात तो ठीक ही है। पर कसूर तुम्हारा भी नहीं, तुम्हारी पढ़ाई का है।’’ सनीचर ने भी कहा, ‘‘पढ़कर आदमी पढ़े–लिखे लोगों की तरह बोलने लगता है। बात करने का असली ढंग भूल जाता है। क्यों न जोगनाथ ?’’