पर यहाँ शहर न था, बल्कि देहात था जहाँ, बक़ौल रुप्पन बाबू, अपने सगे बाप का भी भरोसा नहीं, और जहाँ, बकौल सनीचर, कोई कटी उँगली पर भी मूतनेवाला नहीं है। इसलिए रंगनाथ यहाँ अपनी बीमारी को दबा नहीं सका। उसके दिमाग़ में यह बात दिन–ब–दिन पक्की होती गई कि वह डकैतों के किसी गिरोह में आ गया है, उन डकैतों ने कॉलिज पर छापा मारकर उसे लूट लिया है और अब वे किसी दूसरी जगह छापा मारने की तैयारी कर रहे हैं। उसकी तबीयत अब वैद्यजी को गाली देने के लिए कुलबुलाती रहती और उससे भी ज़्यादा किसी ऐसे आदमी की तलाश में कुलबुलाती, जिसके सामने उन्हें विश्वासपूर्वक गाली दी जा सके। ऐसा साथी कहाँ मिलेगा ? खन्ना मास्टर लबाड़िया है।
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