Rahul Mahawar

29%
Flag icon
वे कुछ देर रामलीला के राम–लक्ष्मण की तरह भावहीन चेहरा बनाए बैठे रहे। फिर बोले, ‘‘आप लोग तो पढ़े–लिखे आदमी हैं। मैं क्या कह सकता हूँ ? पर सैकड़ों संस्थाएँ हैं जिनकी सालाना बैठकें बरसों नहीं होतीं। अपने यहाँ का ज़िलाबोर्ड ! एक ज़माने से बिना चुनाव कराये हुए इसे सालों खींचा गया है।’’ गाल फुलाकर वे भर्राये गले से बोले, ‘‘देश–भर में यही हाल है।’’ गला देश–भक्ति के कारण नहीं, खाँसी के कारण भर आया था। मालवीयजी ने कहा, “ प्रिंसिपल हज़ारों रुपया मनमाना ख़र्च करता है। हर साल आडिटवाले ऐतराज़ करते हैं, हर साल यह बुत्ता दे जाता है।’’ गयादीन ने बहुत निर्दोष ढंग से कहा, ‘‘आप क्या आडिट के इंचार्ज हैं ?’’ ...more
This highlight has been truncated due to consecutive passage length restrictions.
राग दरबारी
Rate this book
Clear rating