Rahul Mahawar

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सवेरा होते ही मैंने दुरबीनसिंह के जाकर पैर पकड़े कि काका, तुम्हारे नाम में लाल लँगोटवाले का ज़ोर बोल रहा है। तुम्हारा नाम लेकर जान बचा पाया हूँ। दुरबीनसिंह ने पाँव खींच लिए। बोले, ‘जा सनिचरा, कोई फिकिर नहीं। जब तक मैं हूँ, अँधेरे–उजेले में जहाँ मन हो वहाँ घूमा कर। किसी का डर नहीं है। साँप–बिच्छू तू खुद ही निबटा ले, बाक़ी को हमारे लिए छोड़ दे’।’’ यहाँ सनीचर साँस खींचकर चुप हो गया। रंगनाथ समझ गया कि घटिया कहानी–लेखकों की तरह मुख्य बात पर आते–आते वह हवा बाँध रहा है। उसने पूछा, ‘‘फिर तो जब तक दुरबीनसिंह थे, गँजहा लोगों के ठाठ कटते रहे होंगे ?’’ तब रुप्पन बाबू बोले। उन्होंने रंगनाथ की जानकारी में ...more
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राग दरबारी
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