Rahul Mahawar

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दोपहर ढल रही थी। एक हलवाई की दुकान पर एक हलवाई बैठा था जो दूर से ही हलवाई–सा जान पड़ता था। दुकान के नीचे एक नेता खड़ा था जो दूर से ही नेता–जैसा दिखता था, वहीं साइकिल का हैंडिल पकड़े एक पुलिस का सिपाही खड़ा था जो दूर से ही पुलिस का सिपाही दिखता था। दुकान पर रखी हुई मिठाइयाँ बासी और मिलावट के माल से बनी जान पड़ती थीं और थीं भी, दूध पानीदार और अरारूट के असर से गाढ़ा दिख रहा था, और था भी। पृथ्वी पर स्वर्ग का यह एक ऐसा कोना था जहाँ सारी सचाई निगाह के सामने थी। न कहीं कुछ छिपा था, न छिपाने की ज़रूरत थी। दुकान पर जलेबी, पेड़े और गट्टे रखे थे। उन्हीं की बगल में शीशे के छोटे–छोटे कण्टेनरों में कुछ ...more
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राग दरबारी
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