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रुप्पन बाबू अठारह साल के थे। वे स्थानीय कॉलिज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे। पढ़ने से, और खासतौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से, उन्हें बहुत प्रेम था; इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे। रुप्पन बाबू स्थानीय नेता थे। उनका व्यक्तित्व इस आरोप को काट देता था कि इण्डिया में नेता होने के लिए पहले धूप में बाल सफ़ेद करने पड़ते हैं। उनके नेता होने का सबसे बड़ा आधार यह था कि वे सबको एक निगाह से देखते थे। थाने में दारोग़ा और हवालात में बैठा हुआ चोर–दोनों उनकी निगाह में एक थे। उसी तरह इम्तहान में नक़ल करनेवाला विद्यार्थी और कॉलिज के प्रिंसिपल उनकी निगाह में एक थे। वे सबको दयनीय समझते थे, सबका काम करते
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बेईमान मुन्नू बड़े ही बाइज़्ज़त आदमी थे। अंग्रेज़ों में, जिनके गुलाबों में शायद ही कोई खुशबू हो, एक कहावत है : गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, वह वैसा ही खुशबूदार बना रहेगा। वैसे ही उन्हें भी किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाए, बेईमान मुन्नू उसी तरह इत्मीनान से आटाचक्की चलाते थे, पैसा कमाते थे, बाइज़्ज़त आदमी थे। वैसे बेईमान मुन्नू ने यह नाम खुद नहीं कमाया था। यह उन्हें विरासत में मिला था। बचपन से उनके बापू उन्हें प्यार के मारे बेईमान कहते थे, माँ उन्हें प्यार के मारे मुन्नू कहती थी। पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे. बी.
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लड़के ने अपना सवाल दोहराया, पर उसके पहले ही उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया था। लड़कों ने भी कान उठाकर सुना, बाहर ईख चुरानेवालों और ईख बचानेवालों की गालियों के ऊपर, चपरासी के ऊपर पड़नेवाली प्रिंसिपल की फटकार के ऊपर– म्यूज़िक–क्लास से उठनेवाली हारमोनियम की म्याँव–म्याँव के ऊपर–अचानक ‘भक्–भक्–भक्’ की आवाज़ होने लगी थी। मास्टर मोतीराम की चक्की चल रही थी। यह उसी की आवाज़ थी। यही असली आवाज़ थी। अन्न–वस्त्र की कमी की चीख़–पुकार, दंगे-फ़साद के चीत्कार, इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज़ सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता; वही मास्टर मोतीराम के साथ हुआ। उन्होंने और कुछ नहीं सुना। सिर्फ़
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प्रिंसिपल साहब की गरदन मुड़ गई। समझनेवाले समझ गए कि अब उनके हाथ हाफ़ पैंट की जेबों में चले जाएँगे और वे चीखेंगे। वही हुआ। वे बोले, ‘‘मैं सब समझता हूँ। तुम भी खन्ना की तरह बहस करने लगे हो। मैं सातवें और नवें का फ़र्क़ समझता हूँ। हमका अब प्रिंसिपली करै न सिखाव भैया। जौनु हुकुम है, तौनु चुप्पे कैरी आउट करौ। समझ्यो कि नाहीं ?’’ प्रिंसिपल साहब पास के ही गाँव के रहनेवाले थे। दूर–दूर के इलाक़ों में वे अपने दो गुणों के लिए विख्यात थे। एक तो ख़र्च का फ़र्ज़ी नक्शा बनाकर कॉलिज के लिए ज़्यादा–से–ज़्यादा सरकारी पैसा खींचने के लिए, दूसरे गुस्से की चरम दशा में स्थानीय अवधी बोली का इस्तेमाल करने के लिए। जब वे
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ठेकेदार ने प्रिंसिपल से आत्मीयता के साथ कहा, ‘‘सब बेईमान हैं। ज़रा–सी आँख लग जाए तो कान का मैल तक निकाल ले जाएँ। ड्योढ़ी मज़दूरी माँगते हैं और काम का नाम सुनकर काँखने लगते हैं।’’ प्रिंसिपल साहब ने कहा, ‘‘सब तरफ़ यही हाल है। हमारे यहाँ ही लीजिए...कोई मास्टर पढ़ाना थोड़े ही चाहता है ? पीछे पड़ा रहता हूँ तब कहीं... !’’ वह आदमी ठठाकर हँसा। बोला, ‘‘मुझे क्या बताते हैं ? यही करता रहता हूँ। सब जानता हूँ।’’ रुककर उसने पूछा, ‘‘इधर कहाँ जा रहे थे ?’’ इसका जवाब क्लर्क ने दिया, ‘‘वैद्यजी के यहाँ। चेकों पर दस्तख़त करना है।’’ ‘‘करा लाइए।’’ उसने प्रिंसिपल को खिसकने का इशारा दिया। जब वे चल दिए तो उसने पूछा,
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इस हरे–भरे इलाके में एक मकान ने मैदान की एक पूरी–की–पूरी दिशा को कुछ इस तरह घेर लिया था कि उधर से आगे जाना मुश्किल था। मकान वैद्यजी का था। उसका अगला हिस्सा पक्का और देहाती हिसाब से काफ़ी रोबदार था, पीछे की तरफ़ दीवारें कच्ची थीं और उसके पीछे, शुबहा होता था, घूरे पड़े होंगे। झिलमिलाते हवाई अड्डों और लकलकाते होटलों की मार्फत जैसा ‘सिम्बालिक माडर्नाइज़ेशन’ इस देश में हो रहा है, उसका असर इस मकान की वास्तुकला में भी उतर आया था और उससे साबित होता था कि दिल्ली से लेकर शिवपालगंज तक काम करनेवाली देसी बुद्धि सब जगह एक–सी है। मकान का अगला हिस्सा, जिसमें चबूतरा, बरामदा और एक बड़ा कमरा था, बैठक के नाम से
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कमरे में अन्दर वैद्यजी मरीज़ों को दवा दे रहे थे। अचानक वे वहीं से बोले, ‘‘शान्त रहो रुप्पन। इस कुव्यवस्था का अन्त होने ही वाला है।’’ जान पड़ा कि आकाशवाणी हो रही है : ‘घबराओ नहीं वसुदेव, कंस का काल पैदा होने ही वाला है।’ रुप्पन बाबू शान्त हो गए। रंगनाथ ने कमरे की ओर मुँह करके ज़ोर से पूछा, ‘‘मामाजी, आपका इस कॉलिज से क्या ताल्लुक़ है ?’’ “ताल्लुक़ ?’’ कमरे में वैद्यजी की हँसी बड़े ज़ोर से गूँजी। ‘‘तुम जानना चाहते हो कि मेरा इस कॉलिज से क्या सम्बन्ध है ? रुप्पन, रंगनाथ की जिज्ञासा शान्त करो।’’ रुप्पन ने बड़े कारोबारी ढंग से कहा, ‘‘पिताजी कॉलिज के मैनेजर हैं। मास्टरों का आना–जाना इन्हीं के हाथ में
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पुनर्जन्म के सिद्धान्त की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफसोस को लेकर न मरें कि उनका मुकदमा अधूरा ही पड़ा रहा। इसके सहारे वे सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुक़दमे का फैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है। वैद्यजी की बैठक के बाहर चबूतरे पर जो आदमी इस समय बैठा था, उसने लगभग सात साल पहले दीवानी का एक मुकदमा दायर किया था; इसलिए स्वाभाविक था कि वह अपनी बात में पूर्वजन्म के पाप, भाग्य, भगवान्, अगले जन्म के कार्यक्रम आदि का नियमित रूप से हवाला देता। उसको लोग लंगड़ कहते थे। माथे पर कबीरपन्थी तिलक, गले में तुलसी की कण्ठी, आँधी–पानी झेला हुआ दढ़ियल चेहरा,
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प्रिंसिपल साहब भंग पीकर अब तक भूल चुके थे कि आराम हराम है। एक बड़ा–सा तकिया अपनी ओर खींचकर वे इत्मीनान से बैठ गए और बोले, ‘‘बात क्या है ?’’ सनीचर ने बहुत धीरे–से कहा, ‘‘कोअॉपरेटिव यूनियन में ग़बन हो गया है। बद्री भैया सुनेंगे तो सुपरवाइज़र को खा जाएँगे।’’ प्रिंसिपल आतंकित हो गए। उसी तरह फुसफुसाकर बोले, ‘‘ऐसी बात है !’’ सनीचर ने सिर झुकाकर कुछ कहना शुरू कर दिया। वार्तालाप की यह वही अखिल भारतीय शैली थी जिसे पारसी थियेटरों ने अमर बना दिया है। इसके सहारे एक आदमी दूसरे से कुछ कहता है और वहीं पर खड़े हुए तीसरे आदमी को कानोंकान खबर नहीं होती; यह दूसरी बात है कि सौ गज़ की दूरी तक फैले हुए दर्शकगण उस
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रामाधीन का पूरा नाम बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी था। भीखमखेड़ा शिवपालगंज से मिला हुआ एक गाँव था, जो अब ‘यूनानो–मिस्र–रोमाँ’ की तरह जहान से मिट चुका था। यानी वह मिटा नहीं था, सिर्फ़ शिवपालगंजवाले बेवकूफ़ी के मारे उसे मिटा हुआ समझते थे। भीखमखेड़ा आज भी कुछ झोंपड़ों में, माल–विभाग के कागज़ात में और बाबू रामाधीन की पुरानी शायरी में सुरक्षित था। बचपन में बाबू रामाधीन भीखमखेड़ा गाँव से निकलकर रेल की पटरी पकड़े हुए शहर तक पहुँचे थे, वहाँ से किसी भी ट्रेन में बैठने की योजना बनाकर वे बिना किसी योजना के कलकत्ते में पहुँच गए थे। कलकत्ते में उन्होंने पहले एक व्यापारी के यहाँ चिट्ठी ले जाने का काम किया, फिर माल
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भीखमखेड़वी के नाम से ही प्रकट था कि वे शायर भी होंगे। अब तो वे नहीं थे, पर कलकत्ता के अच्छे दिनों में वे एकाध बार शायर हो गए थे। उर्दू कवियों की सबसे बड़ी विशेषता उनका मातृभूमि–प्रेम है। इसीलिए बम्बई और कलकत्ता में भी वे अपने गाँव या कस्बे का नाम अपने नाम के पीछे बाँधे रहते हैं और उसे खटखटा नहीं समझते। अपने को गोंडवी, सलोनवी और अमरोहवी कहकर वे कलकत्ता–बम्बई के कूप–मण्डूक लोगों को इशारे से समझाते हैं कि सारी दुनिया तुम्हारे शहर ही में सीमित नहीं है। जहाँ बम्बई है, वहाँ गोंडा भी है। एक प्रकार से यह बहुत अच्छी बात है, क्योंकि जन्मभूमि के प्रेम से ही देश–प्रेम पैदा होता है। जिसे अपने को बम्बई में
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रंगनाथ का कार्यक्रम वैद्यजी की सलाह से बना था; बहुत सबेरे उठना, उठकर सोचना कि कल का खाया हज़म हो चुका है। (ब्राह्मे मुहूर्त उत्तिष्ठेत् जीर्णाजीर्ण निरूपयेत्), ताँबे के लोटे में रखा हुआ ठण्डा पानी पीना, दूर तक टहलने निकल जाना, नित्यकर्म (क्योंकि संसार में वही एक कर्म नित्य है, बाक़ी अनित्य हैं), टहलते हुए लौटना (पर चंक्रमणं हितम्), मुँह–हाथ धोना, लकड़ी चबाना और उसी क्रम में लगे हाथ दाँत साफ़ करना (निम्बस्य तिक्तके श्रेष्ठ: कषाये बब्बुलस्तथा), गुनगुने पानी से कुल्ले करना (सुखोष्णोदकगण्ड्षै: जायते वक्त्रलाघवम्), व्यायाम करना, दूध पीना, अध्ययन करना, दोपहर को भोजन करना, विश्राम, अध्ययन, सायंकाल
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रंगनाथ को इस बातचीत में पीढ़ी-संघर्ष की झलक दीख पड़ी। उसने सनीचर से पूछा, ‘‘क्या आजकल के चोट्टे सचमुच ही ऐसे तीसमारखाँ हैं? पहले भी तो एक–से–एक ख़तरनाक चोट्टे हुआ करते थे।’’ सनीचर उस उम्र का था जिसे नयी पीढ़ीवाले पुरानी के साथ और पुरानी पीढ़ीवाले नयी के साथ लगाते हैं और आयु को लेकर पीढ़ियों में वैज्ञानिक विभाजन न होने के कारण जिसे दोनों वर्ग अपने से अलग समझते हैं। इसी कारण उसके ऊपर किसी भी पीढ़ी का समर्थन करने की मजबूरी न थी। साहित्य और कला के सैकड़ों अर्ध–प्रौढ़ आलोचकों की तरह सिर हिलाकर, अपनी राय देने से कतराते हुए, वह बोला, ‘‘भैया रंगनाथ, पहले के लोगों का हाल न पूछो। यहीं ठाकुर दुरबीनिसंह
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सवेरा होते ही मैंने दुरबीनसिंह के जाकर पैर पकड़े कि काका, तुम्हारे नाम में लाल लँगोटवाले का ज़ोर बोल रहा है। तुम्हारा नाम लेकर जान बचा पाया हूँ। दुरबीनसिंह ने पाँव खींच लिए। बोले, ‘जा सनिचरा, कोई फिकिर नहीं। जब तक मैं हूँ, अँधेरे–उजेले में जहाँ मन हो वहाँ घूमा कर। किसी का डर नहीं है। साँप–बिच्छू तू खुद ही निबटा ले, बाक़ी को हमारे लिए छोड़ दे’।’’ यहाँ सनीचर साँस खींचकर चुप हो गया। रंगनाथ समझ गया कि घटिया कहानी–लेखकों की तरह मुख्य बात पर आते–आते वह हवा बाँध रहा है। उसने पूछा, ‘‘फिर तो जब तक दुरबीनसिंह थे, गँजहा लोगों के ठाठ कटते रहे होंगे ?’’ तब रुप्पन बाबू बोले। उन्होंने रंगनाथ की जानकारी में
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वे लेक्चर गँजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योंकि इनमें प्राय: शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ़ मानकर चलता था जो कि बातचीत के उद्देश्य से गँजहों के लिए आदर्श परिस्थिति है।
प्रत्येक वक्ता इसी सन्देह में गिरफ़्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न नहीं पैदा करना चाहते। लेक्चरों की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी और एक तरह से शिवपालगंज में दीवारों पर चिपके या लिखे हुए विज्ञापन वहाँ की समस्याओं और उनके समाधानों का सच्चा परिचय देते थे। मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते। इसका समाधान यह था कि किसानों के आगे लेक्चर दिया जाए और उन्हें अच्छी–अच्छी तस्वीरें दिखायी जाएँ। उनके द्वारा उन्हें बताया जाय कि तुम अगर अपने लिए अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिए करो। इसी से जगह–जगह पोस्टर चिपके हुए थे जो काश्तकारों
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सनीचर पृथ्वी पर वैद्यजी को एकमात्र आदमी और स्वर्ग में हनुमानजी को एकमात्र देवता मानता था और दोनों से अलग–अलग प्रभावित था। हनुमानजी सिर्फ़ लँगोटा लगाते हैं, इस हिसाब से सनीचर भी सिर्फ़ अण्डरवीयर से काम चलाता था। जिस्म पर बनियान वह तभी पहनता जब उसे सज–धजकर कहीं के लिए निकलना होता। यह तो हुआ हनुमानजी का प्रभाव; वैद्यजी के प्रभाव से वह किसी भी राह–चलते आदमी पर कुत्ते की तरह भौंक सकता था, पर वैद्यजी के घर का कोई कुत्ता भी हो, तो उसके सामने वह अपनी दुम हिलाने लगता था। यह दूसरी बात है कि वैद्यजी के घर पर कुत्ता नहीं था और सनीचर के दुम नहीं थी।
सब वर्गों की हँसी और ठहाके अलग–अलग होते हैं। कॉफ़ी-हाउस में बैठे हुए साहित्यकारों का ठहाका कई जगहों से निकलता है, वह किसी के पेट की गहराई से निकलता है, किसी के गले, किसी के मुँह से और उनमें से एकाध ऐसे भी रह जाते हैं जो सिर्फ़ सोचते हैं कि ठहाका लगाया क्यों गया है। डिनर के बाद कॉफ़ी पीते हुए, छके हुए अफ़सरों का ठहाका दूसरी ही क़िस्म का होता है। वह ज़्यादातर पेट की बड़ी ही अन्दरूनी गहराई से निकलता है। उस ठहाके के घनत्व का उनकी साधारण हँसी के साथ वही अनुपात बैठता है जो उनकी आमदनी का उनकी तनख्वाह से होता है। राजनीतिज्ञों का ठहाका सिर्फ़ मुँह के खोखल से निकलता है और उसके दो ही आयाम होते हैं, उसमें
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देसी विश्वविद्यालयों के लड़के अंग्रेज़ी फिल्म देखने जाते हैं। अंग्रेज़ी बातचीत समझ में नहीं आती, फिर भी बेचारे मुस्कराकर दिखाते रहते हैं कि वे सब समझ रहे हैं और फ़िल्म बड़ा मज़ेदार है। नासमझी के माहौल में रंगनाथ भी उसी तरह मुस्कराता रहा। पहलवान कहता रहा, ‘‘गुरू, इस रामसरूप सुपरवाइज़र की नक्शेबाज़ी मैं पहले से देख रहा था। बद्री पहलवान से मैंने तभी कह दिया था कि वस्ताद, यह लखनऊ लासेबाजी की फिराक में जाता है। तब तो बद्री वस्ताद भी कहते रहे कि ‘टाँय–टाँय न कर छोटू, साला आग खायेगा तो अंगार हगेगा।’ अब वह आग भी खा गया और गेहूँ भी तिड़ी कर ले गया। पहले तो बैद महाराज भी छिपाए बैठे रहे, अब जब पानी का हगा
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क्योंकि इस कॉलिज की स्थापना राष्ट्र के हित में हुई थी, इसलिए उसमें और कुछ हो या नहीं, गुटबन्दी काफ़ी थी। वैसे गुटबन्दी जिस मात्रा में थी, उसे बहुत बढ़िया नहीं कहा जा सकता था; पर जितने कम समय में वह विकसित हुई, उसे देखकर लगता था, काफ़ी अच्छा काम हुआ है। वह दो–तीन साल ही में पड़ोस के कॉलिजों की गुटबन्दी की अपेक्षा ज़्यादा ठोस दिखने लगी थी। बल्कि कुछ मामलों में तो वह अखिल भारतीय संस्थाओं तक का मुक़ाबला करने लगी थी। प्रबन्ध–समिति में वैद्यजी का दबदबा था, पर रामाधीन भीखमखेड़वी अब तक उसमें अपना गुट बना चुके थे। इसके लिए उन्हें बड़ी साधना करनी पड़ी। काफ़ी दिनों तक वे अकेले ही अपने गुट बने रहे, बाद
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वेदान्त के अनुसार–जिसका हवाला वैद्यजी आयुर्वेद के पर्याय के रूप में दिया करते थे– गुटबन्दी परात्मानुभूति की चरम दशा का एक नाम है। उसमें प्रत्येक ‘तू’, ‘मैं’ को और प्रत्येक ‘मैं’, ‘तू’–को अपने से ज़्यादा अच्छी स्थिति में देखता है। वह उस स्थिति को पकड़ना चाहता है। ‘मैं’ ‘तू’ और ‘तू’ ‘मैं’ को मिटाकर ‘मैं’ की जगह ‘तू’ और ‘तू’ की जगह ‘मैं’ बन जाना चाहता है। वेदान्त हमारी परम्परा है और चूँकि गुटबन्दी का अर्थ वेदान्त से खींचा जा सकता है, इसलिए गुटबन्दी भी हमारी परम्परा है, और दोनों हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ हैं। आज़ादी मिलने के बाद हमने अपनी बहुत–सी सांस्कृतिक परम्पराओं को फिर से खोदकर निकाला है।
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रात रंगनाथ और बद्री छत पर कमरे में लेटे थे और सोने के पहले की बेतरतीब बातें शुरू हो गई थीं। रंगनाथ ने अपनी बात ख़त्म करते हुए कहा, ‘‘पता नहीं चला कि प्रिंसिपल और खन्ना में क्या बात हुई। ड्रिल-मास्टर बाहर खड़ा था। खन्ना मास्टर ने चीख़कर कहा, ‘आपकी यही इन्सानियत है !’ ’’ वह सिर्फ़ इतना ही सुन पाया। बद्री ने जम्हाई लेते हुए कहा, “ प्रिंसिपल ने गाली दी होगी। उसी के जवाब में उसने इन्सानियत की बात कही होगी। यह खन्ना इसी तरह बात करता है। साला बाँगड़ू है।’’ रंगनाथ ने कहा, ‘‘गाली का जवाब तो जूता है।’’ बद्री ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। रंगनाथ ने फिर कहा, ‘‘मैं तो देख रहा हूँ, यहाँ इन्सानियत का ज़िक्र ही
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‘‘हमारे परदादा का नाम भोलानाथ था। उन्हें बड़ा गुस्सा आता था। नथुने हमेशा फड़का ही करते थे। रोज़ सवेरे उठकर वे पहले अपने बाप से टुर्र-पुर्र करते थे, तब मुँह में पानी डालते थे। टुर्र-पुर्र न होती तो उनका पेट गड़गड़ाया करता।’’ छोटे पहलवान की बातों से अतीत का मोह टपकता था। उनके किस्से सुनते ही उन्नीसवीं सदी के किसी गाँव की तस्वीर सामने आ जाती थी, जिसमें गाय–बैलों से भरे–पूरे दरवाजे़ पर, गोबर और मूत की ठोस खुशबू के बीच, नीम की छाँव तले, जिस्म पर टपकी हुई लसलसी निमकौड़ियाँ झाड़ते हुए दो महापुरुष नंगे बदन अपनी–अपनी चारपाइयों से उठ बैठते थे और उठते ही एक–दूसरे को देर तक सोते रहने के लिए गाली देने लगते
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कुसहरप्रसाद स्वभाव से गम्भीर थे, इसलिए वे गंगादयाल से व्यर्थ गाली–गलौज नहीं करते थे। उन्होंने रोज़ सवेरे खेतों पर जाने से पहले अपने बाप से झगड़ा करने की परम्परा भी ख़त्म कर दी। इसकी जगह उन्होंने मासिक रूप से युद्ध करने का चलन चलाया। बचपन से ही गंगादयाल को फूहड़ गालियाँ देने में ऐसी दक्षता प्राप्त हो गई थी कि नौजवान गँजहे उनके पास शाम को आकर बैठने लगे थे। वे उनकी मौलिक गालियों को सुनते और बाद में उन्हें अपनी बनाकर प्रचारित करते। गालियों और ग्राम–गीतों का कॉपीराइट नहीं होता। इस हिसाब से गंगादयाल की गालियाँ हज़ार कण्ठों से हज़ार पाठान्तरों के साथ फूटा करती थीं। पर कुसहरप्रसाद अपने बाप की इस
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वे कुछ देर रामलीला के राम–लक्ष्मण की तरह भावहीन चेहरा बनाए बैठे रहे। फिर बोले, ‘‘आप लोग तो पढ़े–लिखे आदमी हैं। मैं क्या कह सकता हूँ ? पर सैकड़ों संस्थाएँ हैं जिनकी सालाना बैठकें बरसों नहीं होतीं। अपने यहाँ का ज़िलाबोर्ड ! एक ज़माने से बिना चुनाव कराये हुए इसे सालों खींचा गया है।’’ गाल फुलाकर वे भर्राये गले से बोले, ‘‘देश–भर में यही हाल है।’’ गला देश–भक्ति के कारण नहीं, खाँसी के कारण भर आया था। मालवीयजी ने कहा, “ प्रिंसिपल हज़ारों रुपया मनमाना ख़र्च करता है। हर साल आडिटवाले ऐतराज़ करते हैं, हर साल यह बुत्ता दे जाता है।’’ गयादीन ने बहुत निर्दोष ढंग से कहा, ‘‘आप क्या आडिट के इंचार्ज हैं ?’’
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खन्ना मास्टर को सम्बोधित करके उन्होंने फिर कहा, ‘‘तुम तो इतिहास पढ़ाते हो न मास्टर साहब ? सिंहगढ़-विजय कैसे हुई थी ?’’ खन्ना मास्टर जवाब सोचने लगे। गयादीन ने कहा, ‘‘मैं ही बताता हूँ। तानाजी क्या लेकर गए थे ? एक गोह। उसको रस्से से बाँध लिया और किले की दीवार पर फेंक दिया। अब गोह तो अपनी जगह जहाँ चिपककर बैठ गई, वहाँ बैठ गई। साथवाले सिपाही उसी रस्से के सहारे सड़ासड़ छत पर पहुँच गए।’’ इतना कहते–कहते वे शायद थक गए। इस आशा से कि मास्टर लोग कुछ समझ गए होंगे, उन्होंने उनके चेहरे को देखा, पर वे निर्विकार थे। गयादीन ने अपनी बात समझाई, ‘‘वही हाल अपने मुल्क का है, मास्टर साहब ! जो जहाँ है, अपनी जगह गोह की
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भंग पीनेवालों में भंग पीसना एक कला है, कविता है, कार्रवाई है, करतब है, रस्म है। वैसे टके की पत्ती को चबाकर ऊपर से पानी पी लिया जाए तो अच्छा–खासा नशा आ जाएगा, पर यह नशेबाजी सस्ती है। आदर्श यह है कि पत्ती के साथ बादाम, पिस्ता, गुलकन्द, दूध–मलाई आदि का प्रयोग किया जाए। भंग को इतना पीसा जाए कि लोढ़ा और सिल चिपककर एक हो जाएँ, पीने के पहले शंकर भगवान् की तारीफ़ में छन्द सुनाये जाएँ और पूरी कार्रवाई को व्यक्तिगत न बनाकर उसे सामूहिक रूप दिया जाए। सनीचर का काम वैद्यजी की बैठक में भंग के इसी सामाजिक पहलू को उभारना था।
पुजारी ने फिटफिटाकर कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि उन्होंने फिर कहा, ‘‘बस, बस, बस, बहुत ज़्यादा पैंतरा न दिखाओ। हम लोग शिवपालगंज के रहनेवाले हैं। ज़बान को अपनी बाँबी में बन्द रखो।’’ कुछ दूर चलने पर रंगनाथ ने कहा, ‘‘ग़लती मेरी ही थी। मुझे कुछ कहना नहीं चाहिए था।’’ रुप्पन बाबू ने सान्त्वना दी, ‘‘बात तो ठीक ही है। पर कसूर तुम्हारा भी नहीं, तुम्हारी पढ़ाई का है।’’ सनीचर ने भी कहा, ‘‘पढ़कर आदमी पढ़े–लिखे लोगों की तरह बोलने लगता है। बात करने का असली ढंग भूल जाता है। क्यों न जोगनाथ ?’’
उन्हाेंने देखा कि प्रजातन्त्र उनके तख़्त के पास ज़मीन पर पंजों के बल बैठा है। उसने हाथ जोड़ रखे हैं। उसकी शक्ल हलवाहों–जैसी है और अंग्रेज़ी तो अंग्रेज़ी, वह शुद्ध हिन्दी भी नहीं बोल पा रहा है। फिर भी वह गिड़गिड़ा रहा है और वैद्यजी उसका गिड़गिड़ाना सुन रहे हैं। वैद्यजी उसे बार–बार तख्त पर बैठने के लिए कहते हैं और समझाते हैं कि तुम ग़रीब हो तो क्या हुआ, हो तो हमारे रिश्तेदार ही, पर प्रजातन्त्र उन्हें बार–बार हुजूर और सरकार कहकर पुकारता है। बहुत समझाने पर प्रजातन्त्र उठकर उनके तख़्त के कोने पर आ जाता है और जब उसे इतनी सान्त्वना मिल जाती है कि वह मुँह से कोई तुक की बात निकाल सके, तो वह वैद्यजी से
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उसी दिन शाम के वक़्त रंगनाथ और रुप्पन बाबू गयादीन के पास चुनाव के बारे में उनका विचार जानने के लिए भेजे गए। गयादीन कॉलिज के वाइस-प्रेसिडेण्ट होने के नाते इस समय काफ़ी महत्त्वपूर्ण थे और यह जानना ज़रूरी था कि वे किसको मैनेजर बनाना चाहते हैं और यदि वे वैद्यजी के पक्ष में न हों तो यह भी ज़रूरी था कि किसी तरकीब से उनका हृदय–परिवर्तन किया जाए। रुप्पन बाबू और रंगनाथ प्रारम्भिक वार्ता चालू करने के विचार से उनके पास गए थे। पर गयादीन ने शुरू में ही पूरी बात आसान कर दी। उन्होंने इन दोनों को कायदे से चारपाई पर बैठाया, रंगनाथ से शहरी तालीम के बारे में दो–चार बातें पूछीं, उन्हें शुद्ध घी में बनी हुई मठरी
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‘‘तो उनका एक शाहज़ादा था। नवाब साहब का। हाँ, हाँ, वही किस्सा सुना रहा हूँ। एक बार वह बेचारा बीमार पड़ गया। बुख़ार था, पर ठीक न होता था। महीनों चला। बड़ी–बड़ी क़ीमती दवाएँ दी गईं। सभी बैद, हकीम, डॉक्टर परेशान। करोड़ों रुपया नाली के रास्ते बह गया। पर शाहज़ादा वैसे–का–वैसा। ‘‘नवाब साहब सिर पीटने लगे। चारों तरफ़ उन्होंने ऐलान कराया कि कोई आधी रियासत ले ले, शाहज़ादी से शादी कर ले, पर किसी तरह शाहज़ादे को चंगा कर दे। तब बड़ी–बड़ी दूर से हकीम लोग आने लगे। बड़ी–बड़ी कोशिशें कीं, पर शाहज़ादे ने आँख न खोली। ‘‘अन्त में एक बुजुर्ग हकीम आए। शाहज़ादे को देखकर बोले, ‘जहाँपनाह, आधी रियासत और शाहज़ादी देने से
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हिन्दुस्तान में पढ़े–लिखे लोग कभी–कभी एक बीमारी के शिकार हो जाते हैं। उसका नाम ‘क्राइसिस ऑफ़ कांशस’ है। कुछ डॉक्टर उसी में ‘क्राइसिस ऑफ़ फ़ेथ’ नाम की एक दूसरी बीमारी भी बारीकी से ढूँढ़ निकालते हैं। यह बीमारी पढ़े–लिखे लोगों में आमतौर से उन्हीं को सताती है जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं और जो वास्तव में बुद्धि के सहारे नहीं, बल्कि आहार–निद्रा–भय–मैथुन के सहारे जीवित रहते हैं (क्योंकि अकेली बुद्धि के सहारे जीना एक नामुमकिन बात है)। इस बीमारी में मरीज़ मानसिक तनाव और निराशावाद के हल्ले में लम्बे–लम्बे वक्तव्य देता है, ज़ोर–ज़ोर से बहस करता है, बुद्धिजीवी होने के कारण अपने को बीमार और बीमार होने
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पर यहाँ शहर न था, बल्कि देहात था जहाँ, बक़ौल रुप्पन बाबू, अपने सगे बाप का भी भरोसा नहीं, और जहाँ, बकौल सनीचर, कोई कटी उँगली पर भी मूतनेवाला नहीं है। इसलिए रंगनाथ यहाँ अपनी बीमारी को दबा नहीं सका। उसके दिमाग़ में यह बात दिन–ब–दिन पक्की होती गई कि वह डकैतों के किसी गिरोह में आ गया है, उन डकैतों ने कॉलिज पर छापा मारकर उसे लूट लिया है और अब वे किसी दूसरी जगह छापा मारने की तैयारी कर रहे हैं। उसकी तबीयत अब वैद्यजी को गाली देने के लिए कुलबुलाती रहती और उससे भी ज़्यादा किसी ऐसे आदमी की तलाश में कुलबुलाती, जिसके सामने उन्हें विश्वासपूर्वक गाली दी जा सके। ऐसा साथी कहाँ मिलेगा ? खन्ना मास्टर लबाड़िया है।
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प्रधान के चुनाव में अभी लगभग महीना–भर था। एक दिन छोटे पहलवान ने वैद्यजी की बैठक पर कहा, ‘‘सनीचर तीन दिन से कालिकाप्रसाद के साथ शहर के चक्कर काट रहा था। आज खबर मिली है कि मामला चुर्रैट हो गया है।’’ वैद्यजी तख्त पर बैठे थे। सुनते ही उत्सुकता के मारे कुलबुलाने लगे। पर उत्सुकता को ज़ाहिर करना और छोटे से सीधे बात करना–दोनों चीज़ें शान के ख़िलाफ़ पड़ती थीं, इसलिए उन्होंने रंगनाथ से कहा, ‘‘सनीचर को बुलवा लिया जाय।’’ छोटे पहलवान ने अपनी जगह पर खड़े–ही–खड़े दहाड़ा, ‘‘सनीचर, सनीचर, सनीचर हो ऽ ऽ ऽ!’’ शिवपालगंज में ऐसे आदमी को बुलाने की, जो निगाह और हाथ की पहुँच से दूर हो, यह एक ख़ास शैली थी। इसे प्रयोग
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एक पुराने श्लोक में भूगोल की एक बात समझाई गई है कि सूर्य दिशा के अधीन होकर नहीं उगता। वह जिधर ही उदित होता है, वही पूर्व दिशा हो जाती है। उसी तरह उत्तम कोटि का सरकारी आदमी कार्य के अधीन दौरा नहीं करता, वह जिधर निकल जाता है, उधर ही उसका दौरा हो जाता है।
रंगनाथ को यह खेल फिसड्डी–जैसा मालूम पड़ा, बिलकुल भंग के नशे–जैसा, पर जब उसने दूसरे गुट का निरीक्षण किया तो उसकी धारणा शिवपालगंज के जुए के बारे में बिलकुल ही बदल गई। वे फ़्लैश खेल रहे थे, जो लैंटर्न को ‘लालटेन’ बतानेवाले नियम से यहाँ फल्लास बन गया था। खेल बड़े घमासान का चल रहा था। एक तरफ़ ब्लफ़ का स्वयं–चालित अस्त्र हत्याकाण्ड मचाए हुए था। दूसरी ओर शुद्ध देशी चाल से एक खिलाड़ी बढ़ रहा था। अचानक उसकी अक़्ल का हाथी घबराकर इधर–उधर भागने लगा और मालिक को नीचे फेंककर उसे कुचलने के लिए टाँग उठाकर खड़ा हो गया। उसने पत्ते फेंक दिए और उधर मुट्ठी–भर पैसे फड़ से बटोरकर दूसरे खिलाड़ी ने अपनी जाँघ के नीचे
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शहर में चायघर, कमेटी–रूम, पुस्तकालय और विधानसभा की जो उपयोगिता है, वही देहात में सड़क के किनारे बनी हुई पुलिया की है; यानी लोग वहाँ बैठते हैं और गप लड़ाते हैं। इस समय, दिन के लगभग दस बजे, इतवार के दिन रंगनाथ और रुप्पन बाबू एक पुलिया पर बैठे हुए धूप खा रहे थे और ज़माने की हालत पर ग़ौर कर रहे थे ।
‘‘बाबू रंगनाथ, मैं गाँव का आदमी, ऊपर से बाँभन, और फिर ऐक्स ज़मींदार, बनर्जी का यह पाखंड सुनकर मेरी देह सुलग गई। तबीयत में आया कि उसकी गरदन पकड़कर इतने ज़ोर से झुलाऊँ कि विमान का असली मतलब टप्–से हलक़ के बाहर निकल पड़े। तब तक बनर्जी ने कहा कि ‘विद्यार्थियो, विमान का असली अर्थ यह नहीं था जो भण्डारकर समझते थे या तुम समझते हो। विमान का असली अर्थ कुछ और ही है।’ ‘‘आख़िर में बनर्जी एकाएक जोश में आकर बोले, ‘विमान का अर्थ है–सतमंज़िला महल ! नोट कर लो !’ ‘‘सन्नाटा छा गया, रंगनाथ, मुझे भी अपनी क़ाबलियत का जोश। वहीं लौंडहाई कर बैठा। मैंने खड़े होकर कहा कि प्रोफ़ेसर साहब, विमान का यह अर्थ तो संस्कृत के सभी
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सनीचर जब इन इक्केवालों के पास आया, उसके दिमाग में ये सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ नहीं थीं। उस समय उसे अपने चुनाव की चिन्ता थी जो कि वोट माँगनेवालों और वोट देनेवालों के बीच पारस्परिक व्यवहार का एकमात्र माध्यम है। इसलिए उसने इन दोनों को बिना किसी प्रस्तावना के बताया कि मैंने प्रधानी का पर्चा दाख़िल किया है और अपना भला चाहते हो तो मुझे ही वोट देना। एक इक्केवाले ने उसे ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर तक देखा और स्वगत–शैली में कहा, ‘‘ये प्रधान बनेंगे। देह पर नहीं लत्ता, पान खायँ अलबत्ता।’’ वोट की भिक्षा बड़े–बड़े नेताओं तक को विनम्र बना देती है। सनीचर तो सनीचर था। यह सुनते ही उसकी हेकड़ी ढीली पड़ गई और
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चुनाव जीतने की तीन तरकीबें हैं : एक रामनगरवाली, दूसरी नेवादावाली और तीसरी महिपालपुरवाली।
प्रधान होने के नाते यहाँ तमाशबीनों में सनीचर का होना बहुत अनिवार्य था; इसलिए भी कि आज छोटे पहलवान पुलिस की ओर से जोगनाथ के ख़िलाफ़ गवाही देने आए थे। इस घटना का ऐतिहासिक महत्त्व था, क्योंकि छोटे पहलवान वैद्यजी के आदमी समझे जाते थे, और जोगनाथ भी वैद्यजी का आदमी था, और अचानक ही ऐसी बात पैदा हो गई थी कि एक ही आदमी के दो आदमी अभियुक्त और सबूत के गवाह की हैसियत से अलग–अलग खड़े हो गए थे जिसके लिए रुप्पन बाबू ने कुछ दिन हुए, नौटंकी–शैली में कहा था, कि दो फूल साथ फूले, क़िस्मत जुदा–जुदा है।
वे लोग कुछ देर चुपचाप चलते रहे। प्रिंसिपल साहब ने वैद्यजी से कहा, ‘‘इन्स्पेक्टर साहब के घर से पीपा वापस नहीं आया।’’ वैद्यजी गम्भीरतापूर्वक चलते रहे। सोचकर बोले, ‘‘दस सेर के लगभग तो होगा ही। जब इतना घी दे दिया तो पीपे का क्या शोक ?’’ प्रिंसिपल हँसे। बोले, ‘‘ठीक है। जाने दीजिए। जब गाय ही चली गई तो पगहे का क्या अफ़सोस !’’ ‘‘वही तो।’’ वैद्यजी और भी गम्भीर हो गए और कथा बाँचने लगे, ‘‘जब हाथी दान कर दिया तो अंकुश का क्या झगड़ा ! राम ने जब विभीषण का राजतिलक किया तो जाम्बवन्त बोले कि महाराज, सोने का एक भवन तो अपने लिए रख लिया होता। उस पर मर्यादा-पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी महाराज क्या कहते हैं कि ‘हे
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दोपहर ढल रही थी। एक हलवाई की दुकान पर एक हलवाई बैठा था जो दूर से ही हलवाई–सा जान पड़ता था। दुकान के नीचे एक नेता खड़ा था जो दूर से ही नेता–जैसा दिखता था, वहीं साइकिल का हैंडिल पकड़े एक पुलिस का सिपाही खड़ा था जो दूर से ही पुलिस का सिपाही दिखता था। दुकान पर रखी हुई मिठाइयाँ बासी और मिलावट के माल से बनी जान पड़ती थीं और थीं भी, दूध पानीदार और अरारूट के असर से गाढ़ा दिख रहा था, और था भी। पृथ्वी पर स्वर्ग का यह एक ऐसा कोना था जहाँ सारी सचाई निगाह के सामने थी। न कहीं कुछ छिपा था, न छिपाने की ज़रूरत थी। दुकान पर जलेबी, पेड़े और गट्टे रखे थे। उन्हीं की बगल में शीशे के छोटे–छोटे कण्टेनरों में कुछ
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बद्री ने चौंककर उनकी ओर देखा। वे साफ़ा नहीं बाँधे थे, पर उनकी मूँछें बेतरतीब थीं। वे चिन्तित हो उठे। समझ गए कि वैद्यजी दुखी हैं। कुरेद–कुरेदकर दुख के कारण का अनुसन्धान किया गया। मालूम हुआ कि इधर दो–चार दिन में कई लोगों ने बहुत–से गलत काम किये हैं। प्रिंसिपल ने शहर में जाकर डिप्टी–डायरेक्टर ऑफ़ ऐजुकेशन को कॉलिज–समिति की वार्षिक रिपोर्ट दिखायी थी। रिपोर्ट अत्यन्त सुन्दर अक्षरों में लिखी गई थी। उसकी भाषा प्रांजल और शैली अलंकारपूर्ण थी। वैद्यजी के सौन्दर्य का निरूपण करते हुए उसमें उन्हें इस क्षेत्र का नरकेसरी कहा गया था। यह अच्छी तरह प्रमाणित था कि वैद्यजी को सर्वसम्मति से ‘सहर्ष’ मैनेजर के पद पर
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वैद्यजी के साथ यही हुआ।
वैद्यजी को तब बताया गया कि हमें जनता के सामने आदर्श उपस्थित करना चाहिए। ऐसा न हुआ तो जनता का आचरण बिगड़ जाएगा। वह बिगड़ा तो पूरा देश बिगड़ेगा, वर्तमान बिगड़ेगा और भविष्य बिगड़ेगा। राम ने क्या किया था ? सीता का त्याग किया था कि नहीं ? तभी हम आज तक रामराज्य की याद करते हैं। त्याग द्वारा भोग करना चाहिए; यही हमारा आदर्श है। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’–कहा भी गया है। आज भी सभी यशस्वी नेता यही करते हैं। भोग करते हैं, फिर उसका त्याग करते हैं, फिर त्याग द्वारा भोग करते हैं। अमुक वित्त-मंत्री ने क्या किया ? त्यागपत्र दिया कि नहीं ? अमुक रेल–मंत्री ने भी यही किया और अमुक सूचना-मन्त्री ने भी यही किया। इस समय
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खन्ना मास्टर ने कुछ स्थानीय खबरें सुनाकर एक वक्तव्य दिया, ‘‘देश रसातल को जा रहा है !’’ स्वयं नीरस और निराशावादी होते हुए भी गयादीन को ये मास्टर काफ़ी दिलचस्प जान पड़ते थे और उनको उनकी हर बात में मूर्खता की बिजली कौंधती हुई नज़र आ रही थी। उन्होंने पूछा, ‘‘यह रसातल है कहाँ ?’’ खन्ना मास्टर इतिहास पढ़ाते थे, उन्हें भूगोल का पता न था। वे इस सवाल से उखड़ गए। जवाब में उन्होंने बुजुर्गों से सुनी हुई एक बात कही, ‘‘कहाँ बताया जाय? सरग, नरग, पाताल, रसातल–सबकुछ हमारे मन ही में है।’’ गयादीन कुछ देर इस दर्शन पर ग़ौर करते रहे। फिर बोले, ‘‘मन ही में है तो परेशानी कैसे ? जाने दो देश को रसातल में। किसी का
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गाँव में मजबूरी नहीं तो और क्या मिलेगा ?’’ गयादीन ने उदासी से कहा। वे हुमसकर धीरे–से बैठ गए थे। चारपाई चरमरायी, पर आज उन्होंने उसके साथ कोई मुरव्वत नहीं की। वे हुमसे हुए बैठे रहे। काँखते हुए बोले, ‘‘रंगनाथ बाबू, तुम शहर के आदमी हो। शहर में हर बात का जवाब होता है। मान लो कोई आदमी मोटर से कुचल जाय, तो कुचला हुआ आदमी अस्पताल में पहुँच जाएगा। अस्पताल में डॉक्टर बदमाशी करे तो उसकी शिकायत हो जाएगी। शिकायत सुननेवाला चुप बैठा रहे तो दस–पाँच लफंगे मिलकर जुलूस निकाल देंगे। उस पर कोई लाठी चला दे तो लोग जाँच बैठलवा देंगे। तो वहाँ हर बात की काट आसानी से निकल आती है। इसीलिए वहाँ मजबूरी की मार नहीं जान
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जवाब में गयादीन ने रुक–रुककर एक क़िस्सा सुनाया: ‘‘हमारे इलाक़े में बहुत दिन हुए, एक मातापरशाद हुए थे। इस इलाके़ के वे पहले नेता थे। लोग उनकी बातें बड़े प्रेम से सुनते थे। वे ज़रूरत पड़ने पर जेल भी जाते थे, तब लोग उनकी याद और भी बड़े प्रेम से करते थे। जब वे जेल से वापस आते तो लोग ज़्यादातर उनसे इसी तरह की बातें करते रहते कि जोश में आकर वे फिर जेल चले जाएँ। एक बार वे कई साल तक बिना जेल गए हुए रह गए। इसका नतीजा यह हुआ कि लोग उनके व्याख्यानों से ऊबने लगे। ज़मींदारी–विनाश, स्त्री-शिक्षा, विदेशी चीज़ों और शराब की दुकान का बहिष्कार–इन विषयों पर उनके व्याख्यान लोगों को इस तरह याद हो गए कि वे जब बोलने
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रंगनाथ ने उनके कन्धे पर हाथ रखा और मुलायमियत से पूछा, ‘‘रुप्पन, तुमने शराब पी है ?’’ रुप्पन बाबू मस्ती से चल रहे थे, पर लड़खड़ा नहीं रहे थे। दूसरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘कहो तो हाँ कर दूँ और कहो तो नहीं ?’’ ‘‘जो सच हो वह कहो।’’ ‘‘सच्चाई किस चिड़िया का नाम है ? किस घोंसले में रहती है ? कौन–से जंगल में पायी जाती है ?’’ रुप्पन बाबू ठहाका मारकर हँसे, ‘‘दादा, यह शिवपालगंज है। यहाँ यह बताना मुश्किल है कि क्या सच है, क्या झूठ।’’ रंगनाथ ने घर की ओर का रास्ता बदल दिया। रुप्पन की कोहनी पकड़कर वह दूसरी ओर चला गया। वे बोले, ‘‘चलिए, यह भी ठीक है। आगे किसी पुलिया पर बैठकर हवा खायें।’’ धीरे–धीरे वे सड़क पर
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