नाराज़
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मेरा इक पल भी मुझे मिल न सका मैंने दिन रात गुज़ारे तेरे
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जो भी मनसूब4 तेरे नाम से थे मैंने सब क़र्ज़ उतारे तेरे
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एक बंजर ज़मीं के सीने में मैंने कुछ आसमां उगाए थे
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सिर्फ़ दो घूंट प्यास की ख़ातिर उम्र भर धूप में नहाए थे
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सिर्फ़ इतना फ़ासला है जिन्दगी से मौत का शाख़ से तोड़े गए गुलदान में रखे रहे
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इन रातों से अपना रिश्ता जाने कैसा रिश्ता है नींदें कमरों में जागीं हैं ख़्वाब छतों पर बिखरे हैं
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मेरी गुलेल के पत्थर का कारनामा था मगर यह कौन है जिसने समर1 उठाया है
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वाह रे पागल वाह रे दिल अच्छी क़िस्मत पाई है
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हों निगाहें ज़मीन पर लेकिन​ आसमां पर निशाना रक्खा जाए
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वह जो दो राज़ ज़मीं थी मेरे नाम​ आसमां की तरफ़ उछाल आया
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सब पर हंसते रहते हैं फूलों की नादानी है
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पांव पत्थर करके छोड़ेगी अगर रुक जाइये चलते रहिए तो ज़मीं भी हमसफ़र हो जाएगी
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ज़िन्दगी भी काश मेरे साथ रहती उम्र भर ख़ैर अब जैसे भी होनी है बसर हो जाएगी