Suyash Singh

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पुराने शहरों के मन्ज़र निकलने लगते हैं ज़मीं जहां भी खुले घर निकलने लगते हैं   मैं खोलता हूं सदफ़1 मोतियों के चक्कर में मगर यहां भी समन्दर निकलने लगते हैं   हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मन्ज़र सितारे धूप पहन कर निकलने लगते हैं   बुलन्दियों का तसव्वुर2 भी खूब होता है कभी - कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं   बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला क़रीबी दोस्त भी बच कर निकलने लगते हैं   अगर ख़याल भी आए कि तुझ को खत लिक्खूं तो घोंसलों से कबूतर निकलने लगते हैं
नाराज़
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