Suyash Singh

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हौसले ज़िन्दगी के देखते हैं चलिए कुछ रोज़ जी के देखते हैं   नींद पिछली सदी से ज़ख़्मी है ख़वाब अगली सदी के देखते हैं   रोज़ हम इस अंधेरी धुंध के पार क़फ़िले रोशनी के देखते हैं   धूप इतनी कराहती क्यों है छांव के ज़ख़्म सी के देखते हैं   टकटकी बांध ली है आंखों ने रास्ते वापसी के देखते हैं   बारिशों से तो प्यास बुझती नहीं आइए ज़हर पी के देखते हैं
नाराज़
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