नाराज़
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Read between May 28 - June 1, 2020
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जो भी मनसूब4 तेरे नाम से थे मैंने सब क़र्ज़ उतारे तेरे   तूने लिखा मेरे चेहरे पे धुआं मैंने आइने संवारे तेरे
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है ग़लत उस को बेवफ़ा कहना हम कहां के धुले धुलाए थे   आज कांटों भरा मुक़द्दर है हम ने गुल भी बहुत खिलाए थे
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इस बस्ती के लोगों से जब बातें की तो यह जाना दुनिया भर को जोड़ने वाले अन्दर अन्दर बिखरे हैं   इन रातों से अपना रिश्ता जाने कैसा रिश्ता है नींदें कमरों में जागीं हैं ख़्वाब छतों पर बिखरे हैं   आंगन के मासूम शजर1 ने एक कहानी लिखी है इतने फल शाखों पे नहीं थे जितने पत्थर बिखरे हैं   सारी धरती , सारे मौसम , एक ही जैसे लगते हैं आंखों आंखों क़ैद हुए थे मन्ज़र मन्ज़र बिखरे
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हमारी , शहर के दानिश्वरों1 से यारी है इसी लिए तो क़बा तार तार रहती है   मुझे ख़रीदने वालों ! क़तार में आओ वह चीज़ हूँ जो पस - ए - इश्तेहार2 रहती है
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ज़ख़म पर ज़ख़म का गुमां न रहे ज़ख़म इतना पुराना रक्खा जाए   दिल लुटाने में एहतियात रहे यह ख़ज़ाना खुला न रक्खा जाए   नील पड़ते रहें जबीनों पर पत्थरों को ख़फ़ा न रक्खा जाए   यार ! अब उस की बेवफ़ाई का नाम कुछ शायराना रक्खा जाए
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हाथ खाली हैं तेरे शहर से जाते जाते जान होती तो मेरी जान , लुटाते जाते   अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है उम्र गुज़री है तेरे शहर में आते जाते   रेंगने की भी इजाज़त नहीं हमको वरना हम जिधर जाते नए फूल खिलाते जाते   मुझ को रोने का सलीक़ा भी नही है शायद लोग हंसते हैं मुझे देख के आते जाते   अब के मायूस हुआ यारों को रुख़सत करके जा रहे थे तो कोई ज़ख़्म लगाते जाते   हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
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हौसले ज़िन्दगी के देखते हैं चलिए कुछ रोज़ जी के देखते हैं   नींद पिछली सदी से ज़ख़्मी है ख़वाब अगली सदी के देखते हैं   रोज़ हम इस अंधेरी धुंध के पार क़फ़िले रोशनी के देखते हैं   धूप इतनी कराहती क्यों है छांव के ज़ख़्म सी के देखते हैं   टकटकी बांध ली है आंखों ने रास्ते वापसी के देखते हैं   बारिशों से तो प्यास बुझती नहीं आइए ज़हर पी के देखते हैं
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किसी दिन उसकी महफ़िल में पहुंच कर गुलों में रंग भरना चाहिए था   फ़लक पर तबसरा1 करने से पहले ज़मीं का क़र्ज़ उतरना चाहिए था
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दांव पर मैं भी दांव पर तू भी बे ख़बर मैं बे ख़बर तू भी   आसमां मुझ से दोस्ती कर ले दरबदर मैं भी दरबदर तू भी   कुछ दिनों शहर की हवा खा ले सीख जायेगा सब हुनर तू भी   मैं तेरे साथ तू किसी के साथ हमसफ़र मैं भी हमसफ़र तू भी   हैं वफ़ाओं के दोनों दावेदार मैं भी इस पुलसिरात 1 पर, तू भी   ऐ मेरे दोस्त तेरे बारे में कुछ अलग राय थी मगर , तू भी
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दिल वाले अब कम कम हैं वैसे क़ौम पुरानी है   बारिश , दरिया ,साग़र , ओस आंसू पहला पानी है   तुझ को भूले बैठे है क्या यह कम कुरबानी है   दरिया हम से आंख मिला देखें कितना पानी है
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मेरे मरने की ख़बर है उसको अपनी रुसवाई का डर है उसको   अब वह पहला सा नज़र आता नहीं ऐसा लगता है नज़र है उसको   मैं किसी से भी मिलूं कुछ भी करूं मेरी नीयत की ख़बर है उसको   भूल जाना उसे आसान नहीं याद रखना भी हुनर है उसको   रोज़ मरने की दुआ मांगता है जाने किस बात का डर है उसको   मंज़िलें साथ लिये फिरता है कितना दुशवार सफ़र है उसको
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पुराने शहरों के मन्ज़र निकलने लगते हैं ज़मीं जहां भी खुले घर निकलने लगते हैं   मैं खोलता हूं सदफ़1 मोतियों के चक्कर में मगर यहां भी समन्दर निकलने लगते हैं   हसीन लगते हैं जाड़ों में सुबह के मन्ज़र सितारे धूप पहन कर निकलने लगते हैं   बुलन्दियों का तसव्वुर2 भी खूब होता है कभी - कभी तो मेरे पर निकलने लगते हैं   बुरे दिनों से बचाना मुझे मेरे मौला क़रीबी दोस्त भी बच कर निकलने लगते हैं   अगर ख़याल भी आए कि तुझ को खत लिक्खूं तो घोंसलों से कबूतर निकलने लगते हैं
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तलख़ियां भी लाज़मी हैं ज़िन्दगी के वास्ते इतना मीठा बन के मत रहिये शकर हो जाएगी
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यहां कब थी जहां ले आई दुनिया यह दुनिया को कहां ले आई दुनिया   ज़मीं को आसमानों से मिला कर ज़मीं आसमां ले आई दुनिया   मैं ख़ुद से बात करना चाहता था ख़ुदा को दरमियां ले आई दुनिया   चिराग़ों की लवें1 सहमी हुई हैं सुना है आंधियां ले आई दुनिया   जहां मैं था वहां दुनिया कहां थी वहां मैं हूं जहां ले आई दुनिया   तवक़्क़ो2 हमने की थी शाखे - गुल की मगर तीरो कमां ले आई दुनिया
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मौसम बुलाएंगे तो सदा कैसे आएगी सब खिड़कियां हैं बन्द हवा कैसे आएगी   मेरा ख़ुलूस1 इधर हैं उधर है तेरा गुरूर तेरे बदन पे मेरी क़बा2 कैसे आएगी   रस्ते में सर उठाए हैं रस्मों की नागिनें ऐ जान ए इन्तज़ार ! बता कैसे आएगी   सर रख के मेरे ज़ानों पे सोई है ज़िन्दगी ऐसे में आई भी तो कज़ा कैसे आएगी   आँखों में आंसुओं को अगर हम छुपाएंगे तारों को टूटने की सदा कैसे आएगी   वह बे वफ़ा यहां से भी गुजरा है बारहा इस शहर की हदों में वफ़ा कैसे आएगी
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तेरी मसरूफ़ियतहम जानते हैं मगर मौसमसुहानाहो चुका है   मोहब्बत में ज़रूरी हैंवफ़ाएं यह नुस्ख़ाअबपुरानाहो चुका है   चलो अबहिज्र का भी हम मज़ा लें बहुत मिलनामिलानाहो चुकाहै   हज़राें सूरतें राेशन हैं दिल में यह दिल आईना ख़ाना हो चुकाहै
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तमाम उम्र गुज़रने के बाददुनिया में पता चला हमेंअपनेफ़ुज़ूल होनेका   उसूल वाले हैं बेचारे इन फ़रिश्तों ने मज़ा चखा ही नहीं बे उसूल होने का   है आसमां से बुलन्द उसका मर्तबा जिसको शर्फ़1 है आप के कदमों की धूल होने का   चलो फ़लक पे कहीं मन्ज़िलें तलाश करें ज़मीं पे कुछ नहीं हासिल हसूल होने का
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जहां - जहां भी चिराग़ों ने ख़ुदकुशी की है वहां-वहां पेहवाके निशान मिलते हैं   रक़ीब2, दोस्त , पड़ोसी , अज़ीज़ , रिश्तेदार मेरे खिलाफ़ सभी के बयान मिलते हैं
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हमारा ज़िक्र भी अब जुर्म हो गया है वहां दिनों की बात है महफ़िल की आबरू हम थे
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ख़यालथा कि ये पथराव रोक दें चल कर जो होशआया तो देखा लहू - लहू हम थे
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ऊँचे-ऊँचे दरबारों से क्या लेना बेचारेहैंबेचारों से क्या लेना   जो मांगेंगे तूफ़ानों से मांगेंगे काग़ज़की इन पतवारों से क्या लेना
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आग में हम तो बाग लगाते हैं हमको दोज़ख1 तेरे अंगारों से क्या लेना
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पांव पसारो सारी धरती अपनी है यार इजाज़तमक्कारों सेक्या लेना
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किसने दस्तक दी ये दिल पर कौन है आप तो अन्दर हैं, बाहर कौन है   रोशनी ही रोशनी हैहर तरफ़ मेरीआंखोंमें मुनव्वर1 कौन है   आसमां झुक - झुक के करता है सवाल आप केक़द के बराबर कौन है   हम रखेंगेअपने अश्कों का हिसाब पूछनेवाला समन्दर कौन है   सारी दुनिया हैरती2 है किस लिये दूरतकमंज़रबमंज़र कौन है   मुझसे मिलने हीनहींदेतामुझे क्या पता येमेरेअन्दरकौन है
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मसअला प्यास का यूं हल हो जाये जितनाअमृत है हलाहल हो जाये   शहर-ए-दिलमेंहैअजब सन्नाटा तेरी यादआये तो हलचल हो जाये   ज़िन्दगी एक अधूरी तस्वीर मौतआए तोमुकम्मल हो जाय   और एक मोर कहीं जंगलमें नाचते - नाचतेपागलहोजाये   थोड़ीरौनक है हमारेदमसे वरनाये शहर तोजंगल हो जाये   फिर ख़ुदा चाहे तोआंखें लेले बसमेराख़्वाब मुकम्मल हो जाये
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ये रहा नामा - ए - आमाल1 मगर तुझ से भी कुछ सवालात तो हम भी ऐ ख़ुदा पूछेंगे   वह कहीं किरनें समेटे हुए मिल जायेगा कबरफ़ूहोगी उजालेकी क़बा2 पूछेंगे   वह जो मुंसिफ़3 है तो क्या कुछ भी सज़ा दे देगा हम भी रखते हैं ज़ुबां पहले ख़ता पूछेंगे
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मुहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूंगा ये पुल सिरात अगर है तो चलकेदेखूंगा   सवाल ये है कि रफ़्तार किसकी कितनी है मैंआफ़ताबसे आगे निकलके देखूंगा   गुज़ारिशोंका कुछ उस पर असरनहीं होता वह अब मिलेगा तो लहजा बदल के देखूंगा   मज़ाकअच्छा रहेगा यह चांद तारों से मैं आज शाम से पहले ही ढल के देखूंगा   अजब नहीं के वही रोशनी मुझे मिल जाये मैं अपने घर से किसी दिन निकल के देखूंगा   उजालेबांटनेवालों पे क्या गुज़रती है किसी चिराग़ की मानिन्द जल के देखूंगा
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जितना देख आये हैं अच्छा है , यही काफ़ी है अब कहांजाइये दुनिया है , यही काफ़ी है   हमसे नाराज़ है सूरज कि पड़े सोते हैं जागउठने का इरादाहै यहीकाफ़ी है   अब ज़रूरी तो नहीं है के वह फलदार भी हो शाख से पेड़ का रिश्ता है यही काफ़ी है   लाओ मैं तुमको समुन्दर के इलाक़े लिख दूं मेरे हिस्से में ये क़तरा है यही काफ़ी है   गालियों से भी नवाज़े तो करम है उसका वह मुझे याद तो करता है यही काफ़ी है   अब अगर कम भी जियें हम तो कोई रंज नहीं हमको जीने का सलीक़ा है यही काफ़ी है   क्या ज़रूरी है कभी तुम से मुलाक़ातभीहो तुमसे मिलने की तमन्ना है यही काफ़ी है   अब किसी और तमाशे की ज़रूरत क्या है ये जो दुनिया का तमाशा ...more
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दिन है जितने काले-काले रात इतनी तारीक नहीं है   आज तुम्हारी याद न आई आज तबीयत ठीक नहीं है
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मैं जंग जीत चुका हूंमगर ये उलझन है अबअपनेआप से होगा मुक़ाबला मेरा   खिंचा खिंचा मैं रहा ख़ुद से जाने क्यों वरना बहुत ज़्यादा न था मुझ से फ़ासला मेरा
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सिर्फ़ ख़ंजर ही नहीं आंखों में पानी चाहिये ऐ ख़ुदा, दुश्मन भी मुझको ख़ानदानी चाहिये   मैंने अपनी खुश्क आंखों से लहू छलका दिया इक समन्दर कह रहा था मुझको पानी चाहिये   शहर की सारी अलिफ़ लैलाएं बूढ़ी हो चुकीं शाहज़ादे को कोई ताज़ा कहानी चाहिये   मैंने ऐ सूरज तुझे पूजा नहीं समझा तो है मेरे हिस्से में भी थोड़ी धूप आनी चहिये   मेरी क़ीमत कौन दे सकता है इस बाज़ार में तुम ज़ुलेखा1 हो , तुम्हें क़ीमत लगानी चाहिये   ज़िन्दगी है एक सफ़र और ज़िन्दगी की राह में ज़िन्दगी भीआये तो ठोकर लगानी चाहिये
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ये दुनिया जस्त1 भर होगी हमारी यहां कैसे बसर होगी हमारी   ये काली रात होगी ख़त्म किस दिन न जाने कब सहर होगी हमारी   इसी उम्मीद पर येरतजगे हैं किसी दिन रात भर होगी हमारी   दर-ए-मस्जिद पे कोई शै पड़ी है दुआए बेअसर होगी हमारी   चले हैं गुमरही को घर से लेकर यही तो हमसफ़र होगी हमारी   न जाने दिन कहां निकलेगा अपना न जाने शब किधर होगी हमारी
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धर्म बूढ़े हो गये मज़हब पुराने हो गये ऐ तमाशागरतेरे करतबपुराने हो गये   आज कलछुट्टी के दिन भी घर पड़े रहते हैं हम शाम , साहिल , तुम ,समन्दर सब पुराने हो गये   कैसी चाहत , क्या मुहब्बत , क्या मुरव्वत , क्या ख़ुलूस इन सभी अलफ़ाज़ के मतलब पुराने हो गये   रेंगते रहते हैं हम सदियों से सदियां ओढ़कर हम नये थे ही कहां जो अबपुराने हो गये   आस्तीनों में वही ख़ंजर वही हमदर्दियां हैं नयेअहबाब लेकिन ढबपुरानेहो गये   एक ही मर्कज़1 पे आंखें जंग आलूदा2 हुईं चाक पर फिर-फिर के रौज़-ओ-शब3 पुराने हो गये
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बाज़ारों में ढूंड रहा हूँ वो चीज़ें जिन चीज़ों की कोई कीमत नइ होती   कोई क्या दे राय हमारे बारे में ऐसे वैसों की तो हिम्मत नइ होती
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ख़ाली ख़ाली उदास उदास आंखें इन में कुछ ख़्वाब पाल रक्खा करो   फिर वह चाकू चला नहीं सकता हाथ गर्दन में डाल रक्खा करो   लाख सूरज से दोस्ताना हो चन्द जुगनू भी पाल रक्खा करो
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बूढ़े हुए यहां कई अय्याश बम्बई तू आज भी जवान है शाबाश बम्बई   पूछूं के मेरे बच्चों के ख़्वाबों का क्या हुआ मिल जाए बम्बई में कहीं काश बम्बई   दिल बैठते हैं दौड़ते घोड़ों के साथ-साथ सोने की फ़सल बोती है क़ल्लाश1 बम्बई   दो गज़ जमीन भी न मिली दफ़्न के लिये घर में पड़ी हुई है तेरी लाश बम्बई   हर शख़्स आ के जीत न पायेगा बाज़ियां उलटे छपे हुए हैं तेरे ताश बम्बई   इस शहर में ज़मीन है महंगी बहुत मगर घर की छतों पे रखती है आकाश बम्बई
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सच का बोझ उठाये हूं अब पलकों पर पहले मैं भी ख़्वाब नगर में रहता था
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मुझ में कितने राज़ हैं बतलाऊं क्या? बन्द एक मुद्दत से हूं खुल जाऊं क्या?   आजिज़ी, मिन्नत, ख़ुशामद, इल्तिजा और मैं क्या-क्या करूं मर जाऊं क्या?   कल यहां मैं था जहां तुम आज हो मैं तुम्हारी ही तरह इतराऊं क्या?   तेरे जलसे में तेरा परचम लिये सैकड़ों लाशें भी हैं गिनवाऊं क्या?   एक पत्थर है वह मेरी राह का गर न ठुकराऊं तो ठोकर खाऊं क्या?   फिर जगाया तूने सोये शेर को फिर वही लहजा दराज़ी ! आऊं क्या?
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सर बकफ़3 थे तो सरों से हाथ धोना पड़ गया सर झुकाए थे वह दस्तारों4 के मालिक हो गये
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अगर खिलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है ये सब धुआं है कोई आसमान थोड़ी है   लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है   मैं जानता हूं कि दुश्मन भी कम नहीं लेकिन हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है   जो आज साहिब-ए-मसनद1 हैं कल नहीं होंगे किरायेदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है   हमारे मुंह से जो निकले वही सदाक़त2 है हमारे मुंह में तुम्हारी ज़बान थोड़ी है   सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है
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पांव कमर तक धंस जाते है धरती में हाथ पसारे जब खुद्दारी रहती है   वह मंज़िल पर अक्सर देर से पहुंचे हैं जिन लोगों के पास सवारी रहती है
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छत से उसकी धूप के नेज़े1 आते हैं जिस आंगन में छांव हमारी रहती है   घर के बाहर ढूंढता रहता हूं दुनिया घर के अन्दर दुनियादारी रहती है
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चरागों को उछाला जा रहा है हवा पे रोब डाला जा रहा है   न हार अपनी न अपनी जीत होगी मगर सिक्का उछाला जा रहा है   वह देखो मयक़दे के रास्ते में कोई अल्लाह वाला जा रहा है   थे पहले ही कई सांप आस्तीं में अब एक बिच्छू भी पाला जा रहा है   मेरे झूठे गिलासों की चखा कर बेहकतों को संभाला जा रहा है   हमीं बुनियाद का पत्थर हैं लेकिन हमें घर से निकाला जा रहा है   जनाज़े पर मेरे लिख देना यारों मुहब्बत करने वाला जा रहा है
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बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पर जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं