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सिर्फ़ सच और झूठ की मीज़ान1 में रखे रहे हम बहादुर थे मगर मैदान में रखे रहे जुगनुओं ने फिर अंधेरों से लड़ाई जीत ली चांद सूरज घर के रोशनदान में रखे रहे धीरे - धीरे सारी किरनें ख़ुदकुशी करने लगीं हम सहीफ़ा2 थे मगर जुज़दान3 में रखे रहे बन्द कमरे खोल कर सच्चाइयां रहने लगीं ख़्वाब कच्ची धूप थे दालान में रखे रहे सिर्फ़ इतना फ़ासला है जिन्दगी से मौत का शाख़ से तोड़े गए गुलदान में रखे रहे ज़िन्दगी भर अपनी गूंगी धड़कनों के साथ-साथ हम भी घर के क़ीमती सामान में रखे रहे 1.
सर पर सात आकाश , ज़मीं पर सात समन्दर बिखरे हैं आंखें छोटी पड़ जाती हैं । इतने मंज़र बिखरे हैं
इस बस्ती के लोगों से जब बातें की तो यह जाना दुनिया भर को जोड़ने वाले अन्दर अन्दर बिखरे हैं
उंगलियां यूं न सब पर उठाया करो ख़र्च करने से पहले कमाया करो
चांद सूरज कहां , अपनी मन्ज़िल कहां ऐसे वैसों को मुंह मत लगाया करो
हों निगाहें ज़मीन पर लेकिन आसमां पर निशाना रक्खा जाए
हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
हौसले ज़िन्दगी के देखते हैं चलिए कुछ रोज़ जी के देखते हैं नींद पिछली सदी से ज़ख़्मी है ख़वाब अगली सदी के देखते हैं रोज़ हम इस अंधेरी धुंध के पार क़फ़िले रोशनी के देखते हैं
बुझ गये चांद सब हवेली के जल रहा है चिराग़ मुफ़लिस का
सर पर बोझ अंधियारों का है मौला ख़ैर और सफ़र कुहसारों1 का है मौला ख़ैर दुश्मन से तो टक्कर ली है सौ सौ बार सामना अब के यारों का है मौला ख़ैर
दुनिया से बाहर भी निकल कर देख चुके सब कुछ दुनियादारों का है मौला ख़ैर और कयामत मेरे चरागों पर टूटी झगड़ा चांद सितारों का है मौला ख़ैर
एक ख़ुदा है , एक पयम्बर एक क़िताब झगड़ा तो दस्तारों का है मौला ख़ैर वक़्त मिला तो मस्जिद भी हो आएंगे बाकी काम मज़ारों का है मौला ख़ैर मैंने अलिफ़3 से ये4 तक ख़ुश्बू बिखरा दी लेकिन गांव गंवारों का है मौला ख़ैर
पांव पत्थर करके छोड़ेगी अगर रुक जाइये चलते रहिए तो ज़मीं भी हमसफ़र हो जाएगी जुगनुओं को साथ लेकर रात रोशन कीजिए रास्ता सूरज का देखा तो सहर हो जाएगी
तुम ने ख़ुद ही सर चढ़ाई थी सो अब चक्खो मज़ा मैं ना कहता था , कि दुनिया दर्द - ए - सर हो जाएगी तलख़ियां भी लाज़मी हैं ज़िन्दगी के वास्ते इतना मीठा बन के मत रहिये शकर हो जाएगी
हम ने ख़ुद अपनी रहनुमाई की और शोहरत हुई ख़ुदाई की
जहां मैं था वहां दुनिया कहां थी वहां मैं हूं जहां ले आई दुनिया तवक़्क़ो2 हमने की थी शाखे - गुल की मगर तीरो कमां ले आई दुनिया
अन्दर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गये कितने शरीफ़ लोग थे सब खुल के आ गये सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवकूफ़ सारे सिपाही मोम के थे घुल केआ गये
हमारा ज़िक्र भी अब जुर्म हो गया है वहां दिनों की बात है महफ़िल की आबरू हम थे ख़यालथा कि ये पथराव रोक दें चल कर जो होशआया तो देखा लहू - लहू हम थे
-ऊँचे दरबारों से क्या लेना बेचारेहैंबेचारों से क्या लेना जो मांगेंगे तूफ़ानों से मांगेंगे काग़ज़की इन पतवारों से क्या लेना
काम सब गैर ज़रूरी हैं जो सब करते हैं और हम कुछ नहीं करते हैं ग़ज़ब करते हैं आप की नज़रों में सूरज की है जितनी अज़मत1 हम चिराग़ों का भी उतना ही अदब करते हैं
देखिये जिसको उसे धुन है मसीहाई की आज कल शहर के बीमार मतब3 करते हैं
अब अगर कम भी जियें हम तो कोई रंज नहीं हमको जीने का सलीक़ा है यही काफ़ी है
अब सितारों पे कहां जायें तनाबें1 लेकर ये जो मिट्टी का घरौंदा है यही काफ़ी है
मैं ख़ुदअपनेआप ही में बन्द था मुद्दतों के बाद ये मुझ पर खुला उम्र भरकी नींद पूरी हो चुकी तककहीं जाकर मेरा बिस्तर खुला
किसी ने ज़हर कहा है किसी ने शहद कहा कोई समझ नहीं पाता है ज़ायका मेरा
सिर्फ़ ख़ंजर ही नहीं आंखों में पानी चाहिये ऐ ख़ुदा, दुश्मन भी मुझको ख़ानदानी चाहिये
ये काली रात होगी ख़त्म किस दिन न जाने कब सहर होगी हमारी इसी उम्मीद पर येरतजगे हैं किसी दिन रात भर होगी हमारी
नये किरदार आते जा रहे हैं मगर नाटकपुराना चल रहा है वही दुनिया वहीसांसेंवही हम वहीसब कुछ पुरानाचल रहा है
अब किसी शख़्स में सच सुनने की हिम्मत है कहां मुश्किलों ही से कोई पास बिठाता है मुझे कैसे महफ़ूज़ रखूं खुद को अजायब घर में जो भी आता है यहां हाथ लगाता है मुझे
ख़ाली कशकौल1 पे इतराई हुई फिरती है ये फक़ीरी किसी दस्तार2 की मोहताज नहीं ख़ुद कफ़ीली3 का हुनर सीख लिया है मैंने ज़िन्दगी अब किसी सरकार की मोहताज नहीं
मौसमों का ख़याल रक्खा करो कुछ लहू में उबाल रक्खा करो ज़िन्दगी रोज़ मरती रहती है ठीक से देख भाल रक्खा करो सब लकीरों पे छोड़ रक्खा है अाप भी कुछ कमाल रक्खा करो
मश्वरा कर रहे हैं आपस में चन्द जुगनू सहर के बारे में एक सच्ची ख़बर सुनानी है एक झूठी ख़बर के बारे में
दरबदर जो थे वो दीवारों के मालिक हो गये मेरे सब दरबान, दरबारों के मालिक हो गये लफ़्ज़ गूंगे हो चुके तहरीर1 अन्धी हो चुकी जितने मुख़्बिर थे वह अख़बारों के मालिक हो गये लाल सूरज आसमां से घर की छत पर आ गया जितने थे बेकार सब कारों के मालिक हो गये
सर बकफ़3 थे तो सरों से हाथ धोना पड़ गया सर झुकाए थे वह दस्तारों4 के मालिक हो गये
दो गज़ टुकड़ा उजले उजले बादल का याद आता है एक दुपट्टा मलमल का शहर के मंज़र देख के चीखा करता है मेरे अन्दर इक सन्नाटा जंगल का
सबब वह पूछ रहे हैं उदास होने का मेरा मिज़ाज नहीं बेलिबास होने का
मैं अहमियत भी समझता हूं कहकहों की मगर मज़ा कुछ अपना अलग है उदास होने का
अंधेरे चारों तरफ सांय सांय करने लगे चिराग़ हाथ उठा कर दुआएं करने लगे तरक़्क़ी कर गये बीमारियों के सौदागर ये सब मरीज़ हैं जो अब दुआएं करने लगे
अगर खिलाफ़ हैं होने दो जान थोड़ी है ये सब धुआं है कोई आसमान थोड़ी है लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में यहां पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है मैं जानता हूं कि दुश्मन भी कम नहीं लेकिन हमारी तरह हथेली पे जान थोड़ी है जो आज साहिब-ए-मसनद1 हैं कल नहीं होंगे किरायेदार हैं ज़ाती मकान थोड़ी है हमारे मुंह से जो निकले वही सदाक़त2 है हमारे मुंह में तुम्हारी ज़बान थोड़ी है सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है
पांव कमर तक धंस जाते है धरती में हाथ पसारे जब खुद्दारी रहती है वह मंज़िल पर अक्सर देर से पहुंचे हैं जिन लोगों के पास सवारी रहती है
बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते एक सच के लिये किस-किस से बुराई लेते आबले अपने ही अंगारों के ताज़ा हैं अभी लोग क्यों आग हथेली पे पराई लेते
आंख में पानी रखो होठों पे चिंगारी रखो ज़िन्दा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो
ये ज़रूरी है कि आंखों का भरम क़ायम रहे नींद रखो या न रखो ख़्वाब मेयारी रखो
ये हवाएं उड़ न जाएं ले के काग़ज़ का बदन दोस्तों मुझ पर कोई पत्थर ज़रा भारी रखो ले तो आए शायरी बाज़ार में राहत मियां क्या ज़रूरी है के लहजे को भी बाज़ारी रखो
चरागों को उछाला जा रहा है हवा पे रोब डाला जा रहा है न हार अपनी न अपनी जीत होगी मगर सिक्का उछाला जा रहा है
हमीं बुनियाद का पत्थर हैं लेकिन हमें घर से निकाला जा रहा है जनाज़े पर मेरे लिख देना यारों मुहब्बत करने वाला जा रहा है
हवाएं बाज़ कहां आती हैं शरारत से सरों पे हाथ न रखें तो पगड़ियां उड़ जाएं बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पर जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाएं
ख़ुश्क दरियाओं में हल्की सी रवानी और है रेत के नीचे अभी थोड़ा सा पानी और है जो भी मिलता है उसे अपना समझ लेता हूं मैं इक बीमारी मुझे ये ख़ानदानी और है