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बुद्धम शरणम गच्छामि, और बुद्धम शरणम गच्छामि— ये जाप मुसलसल सुनते सुनते, अब लगता है जैसे मंतर नहीं, चेतावनी है ये— “मुक्ति राह” से बाहर आना,— अब उतना ही मुश्किल है, जितना संसार से बाहर जाना मुश्किल था!!
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और समन्दर मर गया… और समन्दर मर गया, उस रात जिस शब, उसके साहिल से लगी चट्टान से, कूद कर जाँ दे दी उस महताब ने— जिसका चेहरा देख कर तूफ़ान उठते थे समन्दर में कभी, उस के पांव की गुलाबी एड़ियों के नीचे अपनी बिलबिलाती झाग के नम्दे बिछाने के लिये— साहिलों पर सर पटख़ देती थीं लहरें-लेट जाती थीं लौट कर अपने उफ़ुक़ पर, ग़र्क़ सब लहरें हुयीं। और समन्दर मर गया उस रात जब, उसके साहिल से लगी चट्टान से, कूद कर जाँ दे दी उस महताब ने!!
बुढ़िया, तेरे साथ तो मैने, जीने की हर शै बाँटी है! दाना पानी, कपड़ा लत्ता, नींदें और जगराते सारे, औलादों के जनने से बसने तक, और बिछड़ने तक! उम्र का हर हिस्सा बाँटा है।— तेरे साथ जुदाई बाँटी, रूठ, सुलह, तन्हाई भी, सारी कारस्तानियाँ बाँटीं, झूठ भी और सच्चाई भी, मेरे दर्द सहे हैं तूने, तेरी सारी पीड़ें मेरे पोरों में से गुज़री हैं, साथ जिये हैं— साथ मरें ये कैसे मुमकिन हो सकता है? दोनों में से एक को इक दिन, दूजे को शम्शान पे छोड़ के, तन्हा वापस लौटना होगा!!