फूलों की तरह लब खोल कभी ख़ुश्बू की ज़बाँ में बोल कभी अलफ़ाज़ परखता रहता है— आवाज़ हमारी तोल कभी अनमोल नहीं, लेकिन फिर भी पूछो तो मुफ़्त का मोल कभी खिड़की में कटी है सब रातें कुछ चौरस थीं, कुछ गोल कभी यह दिल भी दोस्त, ज़मीं की तरह हो जाता है डाँवा डोल कभी