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Kindle Notes & Highlights
उम्मीद भी है, घबराहट भी कि अब लोग क्या कहेंगे, और इससे बड़ा डर यह है कहीं ऐसा ना हो कि लोग कुछ भी ना कहें!!
किताबें झांकती हैं बन्द अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नही होतीं जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर गुज़र जाती हैं ‘कमप्यूटर’ के पर्दों पर बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें….
ये राह बहुत आसान नहीं, जिस राह पे हाथ छुड़ा कर तुम यूं तन तन्हा चल निकली हो इस ख़ौफ़ से शायद राह भटक जाओ न कहीं हर मोड़ पे मैने नज़्म खड़ी कर रखी है! थक जाओ अगर—— और तुमको ज़रुरत पड़ जाये, इक नज़्म की ऊँगली थाम के वापस आ जाना!
जब जब पतझड़ में पेड़ों से पीले पीले पत्ते मेरे लॉन में आ कर गिरते हैं— रात को छत पर जा कर मैं आकाश को तकता रहता हूँ— लगता है कमज़ोर सा पीला चाँद भी शायद, पीपल के सूखे पत्ते सा, लहराता लहराता मेरे लॉन में आ कर उतरेगा!!
फूलों की तरह लब खोल कभी ख़ुश्बू की ज़बाँ में बोल कभी अलफ़ाज़ परखता रहता है— आवाज़ हमारी तोल कभी अनमोल नहीं, लेकिन फिर भी पूछो तो मुफ़्त का मोल कभी खिड़की में कटी है सब रातें कुछ चौरस थीं, कुछ गोल कभी यह दिल भी दोस्त, ज़मीं की तरह हो जाता है डाँवा डोल कभी
हवास का जहान साथ ले गया वह सारे बादबान साथ ले गया बताएं क्या, वो आफ़ताब था कोई गया तो आसमान साथ ले गया किताब बन्द की और उठ के चल दिया तमाम दास्तान साथ ले गया वो बेपनाह प्यार करता था मुझे गया तो मेरी जान साथ ले गया मैं सजदे से उठा तो कोई भी न था वो पांव के निशान साथ ले गया सिरे उधड़ गये है, सुबह-ओ-शाम के वो मेरे दो जहान साथ ले गया