उसे फिर लौट कर जाना है, ये मालूम था उस वक़्त भी जब शाम की— सुर्ख़ोसुनहरी रेत पर वह दौड़ती आयी थी, और लहरा के— यूँ आग़ोश में बिखरी थी जैसे पूरे का पूरा समन्दर-ले के उमड़ी है, उसे जाना है वो भी जानती तो थी, मगर हर रात फिर भी हाथ रख कर चाँद पर खाते रहे क़समें, ना मैं उतरूँगा अब साँसों के साहिल से, ना वह उतरेगी मेरे आसमाँ पर झूलते तारों की पींगों से