रात पश्मीने की
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by Gulzar
Read between December 31, 2016 - October 29, 2017
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तुम्हारी फ़ुर्क़त में जो गुज़रता है, और फिर भी नहीं गुज़रता, मैं वक़्त कैसे बयाँ करूँ, वक़्त और क्या है?
13%
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हर इक के हाथ में पत्थर हैं कुछ अक़ीदों के ख़ुदा की ज़ात को संगसार करने आये हैं!!
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शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ, नाम थे लोगों के जो क़त्ल हुये। सर नहीं काटा, किसी ने भी, कहीं पर कोई— लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे! और ये बहता हुआ सुर्ख़ लहू है जो सड़क पर, ज़बह होती हुई आवाज़ों की गर्दन से गिरा था
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छोटी छोटी ख़्वाहिशें हैं कुछ उसके दिल में— रेत पे रेंगते रेंगते सारी उम्र कटी है, पुल पर चढ़ के बहने की ख़्वाहिश है दिल में! जाड़ों में जब कोहरा उसके पूरे मुँह पर आ जाता है, और हवा लहरा के उसका चेहरा पोंछ के जाती है— ख़्वाहिश है कि एक दफ़ा तो वह भी उसके साथ उड़े और जंगल से ग़ायब हो जाये!!
33%
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मैं कुछ कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको, तेरा चेहरा भी धुँधलाने लगा है अब तख़य्युल में,
Onkar Thakur
Imagination
33%
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बहुत दिन हो गये देखा नहीं, ना ख़त मिला कोई— बहुत दिन हो गये सच्ची!! तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं!
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उसे फिर लौट कर जाना है, ये मालूम था उस वक़्त भी जब शाम की— सुर्ख़ोसुनहरी रेत पर वह दौड़ती आयी थी, और लहरा के— यूँ आग़ोश में बिखरी थी जैसे पूरे का पूरा समन्दर-ले के उमड़ी है, उसे जाना है वो भी जानती तो थी, मगर हर रात फिर भी हाथ रख कर चाँद पर खाते रहे क़समें, ना मैं उतरूँगा अब साँसों के साहिल से, ना वह उतरेगी मेरे आसमाँ पर झूलते तारों की पींगों से
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सफ़ेदा चील इक सूखे हुए से पेड़ पर बैठी पहाड़ों को सुनाती है पुरानी दास्तानें ऊँचे पेड़ों की, जिन्हें इस पस्त क़द इन्साँ ने काटा है, गिराया है, कई टुकड़े किये हैं और जलाया है!!
50%
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क्या लिये जाते हो तुम कंधों पे यारो इस जनाजे में तो कोई भी नहीं है, दर्द है कोई, ना हसरत है, ना गम है— मुस्कराहट की अलामत है ना कोई आह का नुक़्ता और निगाहों की कोई तहरीर ना आवाज़ का क़तरा कब्र में क्या दफ़्न करने जा रहे हो? सिर्फ मिट्टी है ये मिट्टी—— मिट्टी को मिट्टी में दफ़नाते हुये रोते हो क्यों?
53%
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बड़ी हसरत है पूरा एक दिन इक बार मैं अपने लिये रख लूँ, तुम्हारे साथ पूरा एक दिन बस ख़र्च करने की तमन्ना है!!
55%
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है सोंधी तुर्श सी ख़ुश्बू धुएँ में, अभी काटी है जंगल से, किसी ने गीली सी लकड़ी जलायी है! तुम्हारे जिस्म से सरसब्ज़ गीले पेड़ की ख़ुश्बू निकलती है! घनेरे काले जंगल में, किसी दरिया की आहट सुन रहा हूँ मैं, कोई चुपचाप चोरी से निकल के जा रहा है! कभी तुम नींद में करवट बदलती हो तो बल पड़ता है दरिया में! तुम्हारी आँख में परव़ाज दिखती है परिन्दों की तुम्हारे क़द से अक्सर आबशारों के हसीं क़द याद है!
60%
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मैं तेरे दर्दों को दोबारा से जीने के लिये, रोज़ दोहराता उन्हें, रोज़ ‘रि-वाइन्ड’ करता, वो जो बरसों में जिया था, उसे हर शब जीता!!
63%
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बे-यारो मददगार ही काटा था सारा दिन कुछ ख़ुद से अजनबी सा, तन्हा, उदास सा, साहिल पे दिन बुझा के मैं, लौट आया फिर वहीं, सुनसान सी सड़क के ख़ाली मकान में! दरवाज़ा खोलते ही, मेज़ पे रखी किताब ने, हल्के से फड़फड़ा के कहा, “देर कर दी दोस्त!”
Onkar Thakur
Books
70%
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बुढ़िया, तेरे साथ तो मैने, जीने की हर शै बाँटी है! दाना पानी, कपड़ा लत्ता, नींदें और जगराते सारे, औलादों के जनने से बसने तक, और बिछड़ने तक! उम्र का हर हिस्सा बाँटा है।— तेरे साथ जुदाई बाँटी, रूठ, सुलह, तन्हाई भी, सारी कारस्तानियाँ बाँटीं, झूठ भी और सच्चाई भी, मेरे दर्द सहे हैं तूने, तेरी सारी पीड़ें मेरे पोरों में से गुज़री हैं, साथ जिये हैं— साथ मरें ये कैसे मुमकिन हो सकता है? दोनों में से एक को इक दिन, दूजे को शम्शान पे छोड़ के, तन्हा वापस लौटना होगा!!
72%
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मगर तुम बड़ी मीठी सी नींद में सो रही थीं— दबी सी हँसी थी लबों के किनारे पे महकी हुई, गले पे इक उधड़ा हुआ तागा कुर्ती से निकला हुआ साँस छू छू के बस कपकपाये चला जा रहा था तर्बे साँसों की बजती हुयी हल्की हल्की हवा जैसे सँतूर के तार पर मीढ़ लेती हुयी बहुत देर तक मैं वह सुनता रहा बहुत देर तक अपने होठों को आँखों पे रख के— तुम्हारे किसी ख्वाब को प्यार करता रहा मैं, नहीं जागीं तुम-और मेरी जगाने की हिम्मत नहीं हो सकी।
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इक निवाले सी निगल जाती है ये नींद मुझे रेशमी मोज़े निगल जाते हैं पाँव जैसे सुबह लगता है कि ताबूत से निकला हूँ अभी।
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बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख़्वाहिशें ऐसे दिल में ‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे। थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख़्वाहिशें मुझ से।
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कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा कोई आया था, उन्हें ले के गया, फिर नहीं लौटे शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है
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तेरी सूरत जो भरी रहती है आँखों में सदा अजनबी लोग भी पहचाने से लगते हैं मुझे तेरे रिश्ते में तो दुनिया ही पिरो ली मैं ने!
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इतने अर्से बाद ‘हैंगर’ से कोट निकाला कितना लम्बा बाल मिला है ‘कॉलर’ पर पिछले जाड़ों में पहना था, याद आता है।
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कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है। क्यों इस फ़ौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।।
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चिड़ियाँ उड़ती हैं मेरे कांच के दरवाज़े के बाहर नाचती धूप की चिंगारियों में जान भरी है और मैं चिन्ता का तोदह हूं जो कमरे में पड़ा है