रात पश्मीने की
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शहर में आदमी कोई भी नहीं क़त्ल हुआ, नाम थे लोगों के जो क़त्ल हुये। सर नहीं काटा, किसी ने भी, कहीं पर कोई— लोगों ने टोपियाँ काटी थीं कि जिनमें सर थे! और ये बहता हुआ सुर्ख़ लहू है जो सड़क पर, ज़बह होती हुई आवाज़ों की गर्दन से गिरा था
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हरी हरी है, मगर घास अब हरी भी नहीं जहां पे गोलियां बरसीं, ज़मीं भरी भी नहीं वो ‘माईग्रेटरी’ पंछी जो आया करते थे वो सारे ज़ख़्मी हवाओं से डर के लौट गए बड़ी उदास है वादी —— ये वादी-ए-कश्मीर!