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वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही।
कहीं पे धूप की चादर बिछाके बैठ गए, कहीं पे शाम सिरहाने लगाके बैठ गए। जले जो रेत में तलुवे तो हमने ये देखा, बहुत-से लोग वहीं छटपटाके बैठ गए। खड़े हुए थे अलावों की आँच लेने को, सब अपनी-अपनी हथेली जलाके बैठ गए। दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो! तमाशबीन दुकानें लगाके बैठ गए। लहू-लुहान नज़रों का जिक्र आया तो, शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गए। ये सोचकर कि दरख़्तों में छाँव होती है, यहाँ बबूल के साये में आके बैठ गए।
तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है, तमाम उम्र नशे में निकल न जाए कहीं।
कभी मचान पे चढ़ने की आरजू उभरी, कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाए कहीं।
किससे कहें कि छत की मुँडेरों से गिर पड़े, हमने ही ख़ुद पतंग उड़ाई थी शौक़िया।
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है, थमी हुई है वहीं उम्र आजकल लोगो।
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता, हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे।
अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए, तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए।
हमने सोचा था जवाब आएगा, एक बेहूदा सवाल आया है।
लोग हाथों में लिये बैठे हैं अपने पिंजरे, आज सय्याद को महफ़िल में बुला लो यारो।
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ, मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ।
तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए, छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं। तुम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत, तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं।
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर, ये तमाशा देखकर हैरान है। ख़ास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, ये हमारे वक़्त की सबसे सही पहचान है।
तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं, बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार।