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कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
आज सड़कों पे चले आओ तो दिल बहलेगा, चंद ग़ज़लों से तन्हाई नहीं जाने वाली।
हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया, हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही।
हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही।
यों मुझको ख़ुद पे बहुत ऐतबार है लेकिन, ये बर्फ़ आँच के आगे पिघल न जाए कहीं।
चाँदनी छत पे चल रही होगी, अब अकेली टहल रही होगी। फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा, वो - बरफ़-सी पिघल रही होगी।
वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है, थमी हुई है वहीं उम्र आजकल लोगो।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाजुओं को देख, पतवारें न देख।
दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना न उड़, रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।
मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए, ऐसा भी क्या परहेज, ज़रा-सी तो लीजिए।
यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते, इन्हें कुंकुम लगाकर फेंक दो तुम भी।
मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता, हम घर में भटके हैं, कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे।
दुःख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें, सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया।
यों पहले भी अपना-सा यहाँ कुछ तो नहीं था, अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए।
जाने किस-किसका ख़याल आया है, इस समंदर में उबाल आया है।
ये नज़र है कि कोई मौसम है, ये सबा है कि बबाल आया है।
हमने सोचा था जवाब आएगा, एक बेहूदा सवाल आया है।
ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती,
एक आदत-सी बन गई है तू, और आदत कभी नहीं जाती।
ऐसा लगता है कि उड़कर भी कहाँ पहुँचेंगे, हाथ में जब कोई टूटा हुआ पर होता है।
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गयीं मन में, मीत अब ये मन नहीं है एक धरती है।
मैं तुम्हें छूकर ज़रा-सा छेड़ देता हूँ, और गीली पाँखुरी से ओस झरती है। तुम कहीं पर झील हो, मैं एक नौका हूँ, इस तरह की कल्पना मन में उभरती है।
ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ, मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ।
कभी दिल में आरज़ू-सा, कभी मुँह मैं बद्दुआ-सा, मुझे जिस तरह भी चाहा, मैं उसी तरह रहा हूँ।
मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो, मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ।
यहाँ कौन देखता है, यहाँ कौन सोचता है, कि ये बात क्या हुई है जो...
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मस्लहत आमेज़ होते हैं सियासत के क़दम, तू न समझेगा सियासत तू अभी इनसान है।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
मेरी ज़ुबान से निकली तो सिर्फ़ नज़्म बनी, तुम्हारे हाथ में आई तो एक मशाल हुई।
गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में, सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए।
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ। एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ। तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ। हर तरफ़ एतराज़ होता है, मैं अगर रोशनी में आता हूँ। एक बाजू उखड़ गया जब से, और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ। मैं तुझे भूलने की क़ोशिश में, आज कितने करीब पाता हूँ। कौन ये फ़ासला निभाएगा, मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ।
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूँ पर कहता नहीं, बोलना भी है मना, सच बोलना तो दरकिनार।
रौनक़े जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं, मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार।
मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ, मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।