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वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा।
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ़ लाओ दोस्तो, इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर, और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।
एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में, मैं समझता हूँ ये खाई नहीं जाने वाली।
चीख़ निकली तो है होंठों से, मगर मद्धम है, बंद कमरों को सुनाई नहीं जाने वाली।
तू परेशान बहुत है, तू परेशान न हो, इन ख़ुदाओं की ख़ुदाई...
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खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही, अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही।
क्या वजह है प्यास ज़्यादा तेज़ लगती है यहाँ, लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुआँ।
अब सबसे पूछता हूँ बताओ तो कौन था, वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया। मुँह को हथेलियों में छिपाने की बात है, हमने किसी अंगार को होंठों से छू लिया।
इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उँडेल अब लोग टोकते हैं ग़ज़ल है कि मर्सिया।
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
पुराने पड़ गए डर, फेंक दो तुम भी, ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी।