देवस्मरण केलेल्या वेदसंपन्न गागाभट्टांच्या विमल मुखातून बनारसी वाक्गंगा स्रवू लागली – ‘‘पुरुषोत्तम शिवाजीराजे, हम काशीक्षेत्रसे यहाँ दक्षिणदेश आये – मनमें एक धर्मसंकल्प लेकर। आपका यह किला हमने देखा, परमसंतोष। यहाँ सब है। परंतु एक नहीं। सिंहासन। नरेश, राजदंडके व्यतिरिक्त धर्मदंड व्यर्थ है। समस्त आर्यावर्तमें आज हिंदुओंका एक भी राजपीठ नहीं। सिंहासन नहीं, जिसे देखकर हिंदुमस्तक गर्व करे। जीवनसंग्राम लडानेकी मनीषा करे। वहीं कारन है कि, हिंदू स्वयं को निराश्रित, पराजित मान रहै है। नरश्रेष्ठ, अनुरक्षित धर्म-धर्म नहीं रहता!....