उदंड पंडित पुराणिक। कवीश्वर याज्ञिक वैदिक। धूर्त तार्किक सभानायक। तुमचे ठायीं।।९।। या भूमंडळाचे ठायीं। धर्म रक्षी ऐसा नाहीं। महाराष्ट्रधर्म राहिला कांहीं। तुम्हां करितां।।१०।। आणखी कांहीं धर्म चालती। श्रीमंत होऊनि कित्येक असती। धन्य धन्य तुमची कीर्ति। विस्तारली।।११।। कित्येत दुष्ट संहारिले। कित्येकांस धाक सुटले। कित्येकांसी आश्रय झाले। शिवकल्याण राजा।।१२।। तुमचे देशीं वास्तव्य केलें। परंतू वर्तमान नाहीं घेतलें। ॠणानुबंधे विस्मरण जाहलें। बा काय नेणूं।।१३।।’