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Kindle Notes & Highlights
यही दुनियाए उलगत में, हुआ करता है होने दो। तुम्हें हंसना मुबारक हो, कोई रोता है रोने दो।
कसम ले लो जो शिकवा हो तुम्हारी बेवफाई का किए को अपने रोता हूं मुझे जी भर के रोने दो।
धर्म का काम संसार में मेल और एकता पैदा करना होना चाहिए। यहां धर्म ने विभिन्नता और द्वेष पैदा कर दिया है। क्यों खान-पान में, रस्म-रिवाज में धर्म अपनी टांगें अड़ाता है- मैं चोरी करूं, खून करूं, धोखा दूं, धर्म मुझे अलग नहीं कर सकता। अछूत के हाथ से पानी पी लूं, धर्म छूमंतर हो गया। अच्छा धर्म है हम धर्म के बाहर किसी से आत्मा का संबंधा भी नहीं कर सकते- आत्मा को भी धर्म ने बंधा रखा है, प्रेम को भी जकड़ रखा है। यह धर्म नहीं, धर्म का कलंक है।
सकीना जैसे घबरा गई। जहां उसने एक चुटकी आटे का सवाल किया था, वहां दाता ने ज्योनार का एक भरा थाल लेकर उसके सामने रख दिया। उसके छोटे-से पात्र में इतनी जगह कहां है- उसकी समझ में नहीं आता कि उस विभूति को कैसे समेटे- आंचल और दामन सब कुछ भर जाने पर भी तो वह उसे समेट न सकेगी। आंखें सजल हो गईं, हृदय उछलने लगा। सिर झुकाकर संकोच-भरे स्वर में बोली-बाबूजी, खुदा जानता है, मेरे दिल में तुम्हारी कितनी इज्जत और कितनी मुहब्बत है। मैं तो तुम्हारी एक निगाह पर कुर्बान हो जाती।
त्यागी दो प्रकार के होते हैं। एक वह जो त्याग में आनंद मानते हैं, जिनकी आत्मा को त्याग में संतोष और पूर्णता का अनुभव होता है, जिनके त्याग में उदारता और सौजन्य है। दूसरे वह, जो दिलजले त्यागी होते हैं, जिनका त्याग अपनी परिस्थितियों से विद्रोह-मात्र है, जो अपने न्यायपथ पर चलने का तावान संसार से लेते हैं, जो खुद जलते हैं इसलिए दूसरों को भी जलाते हैं।
धर्म की क्षति जिस अनुपात से होती है, उसी अनुपात से आडंबर की वृध्दि होती है।
नौ बजे कथा आरंभ हुई। यह देवी-देवताओं और अवतारों की कथा न थी। ब्रर्ह्यंषियों के तप और तेज का वृत्तांत न था, क्षत्रियों के शौर्य और दान की गाथा न थी। यह उस पुरुष का पावन चरित्र था, जिसके यहां मन और कर्म की शुद्वता ही धर्म का मूल तत्व है। वही ऊंचा है, जिसका मन शुद्ध है वही नीच है, जिसका मन अशुद्ध है-जिसने वर्ण का स्वांग रचकर समाज के एक अंग को मदांधा और दूसरे को म्लेच्छ नहीं बनाया किसी के लिए उन्नति या उधार का द्वार नहीं बंद किया-एक के माथे पर बड़प्पन का तिलक और दूसरे के माथे पर नीचता का कलंक नहीं लगाया। इस चरित्र में आत्मोन्नति का एक सजीव संदेश था, जिसे सुनकर दर्शकों को ऐसा प्रतीत होता था, मानो
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परिहास में औरत अजेय होती है, खासकर जब वह बूढ़ी हो।
कृषि-प्रधान देश में खेती केवल जीविका का साधन नहीं है सम्मान की वस्तु भी है। गृहस्थ कहलाना गर्व की बात है। किसान गृहस्थी में अपना सर्वस्व खोकर विदेश जाता है, वहां से धन कमाकर लाता है और फिर गृहस्थी करता है। मान-प्रतिष्ठा का मोह औरों की भांति उसे घेरे रहता है। वह गृहस्थ रहकर जीना और गृहस्थ ही में मरना भी चाहता है। उसका बाल-बाल कर्ज से बांधा हो, लेकिन द्वार पर दो-चार बैल बंधकर वह अपने को धन्य समझता है। उसे साल में तीस सौ साठ दिन आधे पेट खाकर रहना पड़े, पुआल में घुसकर रातें काटनी पड़ें, बेबसी से जीना और बेबसी से मरना पड़े, कोई चिंता नहीं, वह गृहस्थ तो है। यह गर्व उसकी सारी दुर्गति की पुरौती कर
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अमर ने शांत-शीतल हृदय से जवाब दिया-लेकिन क्या तुम देख नहीं रहे हो कि हमारी इंसानियत सदियों तक खून और कत्ल में डूबे रहने के बाद अब सच्चे रास्ते पर आ रही है- उसमें यह ताकत कहां से आई- उसमें खुद वह दैवी शक्ति मौजूद है। उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। बड़ी-से-बड़ी फौजी ताकत भी उसे कुचल नहीं सकती, जैसे सूखी जमीन में घास की जडे। पड़ी रहती हैं और ऐसा मालूम होता है कि जमीन साफ हो गई, लेकिन पानी के छींटे पड़ते ही वह जड़ें पनप उठती हैं, हरियाली से सारा मैदान लहराने लगता है, उसी तरह इस कलों और हथियारों और खुदगरजियों के जमाने में भी हममें वह दैवी शक्ति छिपी हुई अपना काम कर रही है। अब वह जमाना आ गया है, जब हक
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विप्लव के जंतु को छेड़-छेड़कर न जगाओ। उसे जितना ही छेड़ोगे, उतना ही झल्लाएगा और वह उठकर जम्हाई लेगा और जोर से दहाड़ेगा, तो फिर तुम्हें भागने की राह न मिलेगी।

