Sagar Verma

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प्राप्य नहीं है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला, प्राप्य नहीं है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला; दूर न इतनी, हिम्मत हारूँ, पास न इतनी, पा जाऊँ; व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला |
मधुशाला
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