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मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला;
मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्या बनाता हूँ हाला भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला; उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ; अपने ही में हूँ मैं साक़ी, पीनेवाला, मधुशाला |
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ… ‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला |
ध्यान किए जा मन में सुमधुर, सुखकर, सुन्दर साक़ी का; और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला
लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमि हाला, हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला, हाथ पकड़ लज्जित साक़ी का पास नहीं जिसने खींचा, व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला, पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला;
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला, किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला, किसी ओर मैं देखूँ, मुझको दिखलाई देता साक़ी किसी ओर देखूँ, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला
बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला, गाज़ गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला; शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला
कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला, वैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला, एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले, देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला
यज्ञ-अग्नि-सी धधक रही है मधु की भट्ठी की ज्वाला, ऋषि-सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला, मुनि-कन्याओं-सी मधुघट ले फिरतीं साक़ीबालाएँ, किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला
बार-बार मैंने आगे बढ़, आज नहीं माँगी हाला, समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला, हो तो लेने दो ऐ साक़ी, दूर प्रथम संकोचों को; मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला
यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला, यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला, हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर; मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला
प्राप्य नहीं है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला, प्राप्य नहीं है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला; दूर न इतनी, हिम्मत हारूँ, पास न इतनी, पा जाऊँ; व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला |
उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला, उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर-मुख से हाला; प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में ! पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला
नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला, नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला साक़ी, मेरी ओर न देखो मुझको तनिक मलाल नहीं, इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला !
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से! मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला
मधुशाला वह नहीं, जहाँ पर मदिरा बेची जाती है, भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला
कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला, कितने भेद बता जाता है, बार-बार आकर प्याला, कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साक़ी, फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला | 127
कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला, कितने अरमानों को करके खाक बना पाया प्याला! पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा, कितने मन के महल ढहे, तब खड़ी हुई यह मधुशाला !