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लाख पिएँ, दो लाख पिएँ, पर कभी नहीं थकनेवाला, अगर पिलाने का दम है तो जारी रख यह मधुशाला।
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला, ‘किस पथ से जाऊँ’ असमंजस में है वह भोलाभाला; अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ… ‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला
धर्म-ग्रंथ सब जला चुकी है जिसके अन्तर की ज्वाला, मंदिर, मस्जिद, गिरजे—सबको तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला
एक बरस में एक बार ही जलती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला; दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो, दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मानती मधुशाला
सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल हाला, बादल बन-बन आए साक़ी, भूमि बने मधु का प्याला, झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर, बेली, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला| 30
अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला, भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला, हर सूरत साक़ी की सूरत में परिवर्तित हो जाती, आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला, किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला, किसी ओर मैं देखूँ, मुझको दिखलाई देता साक़ी किसी ओर देखूँ, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला
हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला चंचल नदियाँ साक़ी बनकर, भरकर लहरों का प्याला कोमल कूल-करों में अपने छलकातीं निशिदिन चलतीं; पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला
मुसल्मान औ’ हिन्दू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला, एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला; दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद-मन्दिर में जाते; वैर बढ़ाते मस्जिद-मन्दिर मेल कराती मधुशाला
कभी नहीं सुन पड़ता, ‘इसने, हा, छू दी मेरी हाला’, कभी न कोई कहता, ‘उसने जूठा कर डाला प्याला’; सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं; सौ सुधारकों का करती है काम अकेली मधुशाला
एक तरह से सबका स्वागत करती है साक़ीबाला, अज्ञ-विज्ञ में है क्या अन्तर हो जाने पर मतवाला, रंक-राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में, साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला
सुमुखी, तुम्हारा सुन्दर मुख ही मुझको कंचन का प्याला, छलक रही है जिसमें माणिक- रूप – मधुर – मादक – हाला, मैं ही साक़ी बनता, मैं ही पीनेवाला बनता हूँ, जहाँ कहीं मिल बैठे हम-तुम वहीं हो गई मधुशाला
दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साक़ीबाला, भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला, नाज़, अदा, अंदाज़ों से अब, हाय, पिलाना दूर हुआ, अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़-अदाई मधुशाला
लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला, लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला लाख पटक तू हाथ-पाँव, पर इससे कब कुछ होने का, लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला
और चिता पर जाय उँडेला पात्र न धृत का, पर प्याला घंट बँधे अंगूर लता में, नीर न भरकर, भर हाला, प्राणप्रिये, यदि श्राद्ध करो तुम मेरा, तो ऐसे करना— पीनेवालों को बुलवाकर, खुलवा देना मधुशाला |
नाम अगर पूछे कोई तो कहना बस पीनेवाला, काम ढालना और ढलाना सबको मदिरा का प्याला, जाति, प्रिये, पूछे यदि कोई, कह देना दीवानों की, धर्म बताना, प्यालों की ले माला जपना मधुशाला |
देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला, देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला, ‘बस अब पाया !’ — कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे, किन्तु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला |
नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला, नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला साक़ी, मेरी ओर न देखो मुझको तनिक मलाल नहीं, इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला !
एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला, भोला-सा था मेरा साक़ी, छोटा-सा मेरा प्याला; छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था, विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्हीं मधुशाला !
कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला, टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला, कितने साक़ी अपना-अपना काम ख़त्म कर दूर गए, कितनी पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला |
किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला; इस जगती की मदिरालय में तरह-तरह की है हाला, अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते; एक सभी का मादक साक़ी, एक सभी की मधुशाला |
जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला; जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला; जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साक़ी है, जितना ही जो रसिक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला |
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला, स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला, पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है, स्वयं नहीं जाता, औरों को
बहुतों की सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला, बहुतों के हाथों में दो दिन छलक-छलक रीता प्याला पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय की, इससे ही और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला |
पितृ पक्ष में पुत्र, उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला, बैठ कहीं पर जाना गंगा- सागर में भरकर हाला; किसी जगह की मिट्टी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी तर्पण अर्पण करना मुझको पढ़-पढ़ करक ‘मधुशाला’ |