A R Kushwaha

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कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला, कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला, कितनी जल्दी साक़ी का आकर्षण घटने लगता हैं; प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला |
मधुशाला
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