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मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला, ‘किस पथ से जाऊँ’ असमंजस में है वह भोलाभाला; अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ… ‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला
धर्म-ग्रंथ सब जला चुकी है जिसके अन्तर की ज्वाला, मंदिर, मस्जिद, गिरजे—सबको तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला |
बने पुजारी प्रेमी साक़ी, गंगाजल पावन हाला, रहे फेरता अविरल गति से मधु के प्यालों की माला, ‘और लिये जा, और पिए जा’— इसी मंत्र का जाप करे, मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूँ | मंदिर हो यह मधुशाला
बुरा सदा कहलाया जग में बाँका, मद-चंचल प्याला, छैल-छबीला, रसिया साक़ी, अलबेला पीनेवाला; पटे कहाँ से, मधुशाला औ’, जग की जोड़ी ठीक नहीं— जग जर्जर प्रतिदिन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला, पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला; दास-द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की, विश्वविजयिनी बनकर जग में आ ई मेरी मधुशाला
हरा-भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला, वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला; स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने; पढ़...
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एक बरस में एक बार ही जलती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला; दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो, दिन ...
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उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला, बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला; जीवन की संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते; सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला
धीर सुतों के हृदय-रक्त की आज बना रक्तिम हाला, वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला, अति उदार दानी साक़ी है आज बनी भारतमाता, स्वतंत्रता है तृषित कालिका, बलिवेदी है मधुशाला
दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला, ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला, कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला
पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला, सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला, मुझे ठहरने का, हे मित्रो, कष्ट नहीं कुछ भी होता, मिले न ...
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सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला, सजधजकर, पर, साक़ी आता, बन ठनकर, पीनेवाला, शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से चिर-विधव...
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बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला, गाज़ गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला; शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को अभ...
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कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला, वैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला, एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले, देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला
और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला, इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला, कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद-मन्दिर में घूँ...
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आज करे परहेज़ जगत, पर कल पीनी होगी हाला, आज करे इन्कार जरात पर कल पीना होगा प्याला; होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर जहाँ अभ...
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सोम-सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला, द्रोण-कलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला; वेद-विहित यह रस्म न छोड़ो, वेदों के ठेकेदारों, युग-युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला
कभी नहीं सुन पड़ता, ‘इसने, हा, छू दी मेरी हाला’, कभी न कोई कहता, ‘उसने जूठा कर डाला प्याला’; सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं; सौ सुधारकों का करती है काम अकेली मधुशाला
कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर-फिर आज उठा प्याला, आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है; कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला
आज मिला अवसर तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी भर हाला, आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी भर प्याला, छेड़छाड़ अपने साक़ी से आज न क्यों जी भर कर लूँ, एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला
सुमुखी, तुम्हारा सुन्दर मुख ही मुझको कंचन का प्याला, छलक रही है जिसमें माणिक- रूप – मधुर – मादक – हाला, मैं ही साक़ी बनता, मैं ही पीनेवाला बनता हूँ, जहाँ कहीं मिल बैठे हम-तुम वहीं हो गई मधुशाला
क्या पीना, निर्द्वन्द्व न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला, क्या जीना, निश्चिंत न जब तक साथ रहे साक़ीबाला, खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला
क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला, क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला; थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को; प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला
लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला, लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला लाख पटक तू हाथ-पाँव, पर इससे कब कुछ होने का, लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला
याद न आए दुखमय जीवन इससे पी लेता हाला, जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला, शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है, पर मैं वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला
मेरे अधरों पर हो अन्तिम वस्तु न तुलसी-दल, प्याला, मेरी जिह्वा पर हो अन्तिम वस्तु न गंगाजल, हाला, मेरे शव के पीछे चलने- वालो, याद इसे रखना— ‘राम नाम है सत्य’ न कहना, कहना ‘सच्ची मधुशाला’
मेरे शव पर वह रोए, हो जिसके आँसू में हाला, आह भरे वह, जो हो सुरभित मदिरा पीकर मतवाला, दें मुझको वे कंधा जिनके पद मद-डगमग होते हों और जलूँ उस ठौर, जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला | 83 और चिता पर जाय उँडेला पात्र न धृत का, पर प्याला घंट बँधे अंगूर लता में, नीर न भरकर, भर हाला, प्राणप्रिये, यदि श्राद्ध करो तुम मेरा, तो ऐसे करना— पीनेवालों को बुलवाकर, खुलवा देना मधुशाला
ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला, पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला, और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला, किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला |
पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों—साक़ी बाला, नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला; साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है, क़ैद जहाँ मैं हूँ, की जाए क़ैद वहीं पर मधुशाला
जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला, जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला, जिस साक़ी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साक़ी, जिसके पीछे मैं था पागल, हा, न मिली वह मधुशाला |
हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला, अधरों पर आने-आने में, हाय, ढलक जाती हाला; दुनिय वालो, आकर मेरी किस्मत की खूबी देखो रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-मिलते मधुशाला
प्राप्य नहीं है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला, प्राप्य नहीं है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला; दूर न इतनी, हिम्मत हारूँ, पास न इतनी, पा जाऊँ; व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला
मिले न, पर, ललचा-ललचा क्यों आकुल करती है हाला, मिले न, पर, तरसा-तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला, हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई— ‘...
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क्या मुझको आवश्यकता है साक़ी से माँगूँ हाला, क्या मुझको आवश्यकता है साक़ी से चाहूँ प्याला, पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से! मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला
एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला, एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला, एक समय पीनेवाले, साक़ी, आलिंगन करते थे; आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला
कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला, कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला, कितनी जल्दी साक़ी का आकर्षण घटने लगता हैं; प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला |
छोड़ा मैंने पंथ-मतों को तब कहलाया मतवाला, चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा मैंने जब प्याला; अब मानी मधुशाला मेरे पीछे-पीछे फिरती है, क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला |
कहाँ गया, वह स्वर्गिक साक़ी, कहाँ गई सुरभित हाला, कहाँ गया स्वप्निल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला ! पीनेवालों ने मदिरा का, मूल्य, हाय, कब पहचाना ! फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला
अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, अपने युग में सबको अद्भुत ज्ञात हुआ अपना प्याला, फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया— अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला
‘मय’ को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, ‘हाला’ ‘मीना’ को ‘मधुपात्र’ दिया ‘साग़र’ को नाम गया ‘प्याला’, क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी ‘...
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जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला; जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला; आँख चार हों जिसकी मेरे साक़ी से, दीवाना हो; पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला
मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला, मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला, मेरे साक़ी में सबने अपना प्यारा साक़ी देखा; जिसकी जैसी रूचि थी उसने वैसी देखी मधुशाला
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला, स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला, पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है, स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुँचा देता मधुशाला।