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दिल्ली का अजनबीपन रोमांस का सबसे अच्छा दोस्त है।
किशोर उम्र के बहुत से लोग कपड़े में जिस्म देखा करते थे। कपड़े को कपड़ा समझने के लिए उसका बनते देखना ज़रूरी है।
आप तभी एक शहर को नए सिरे से खोजते हैं जब प्रेम में होते हैं। और प्रेम में होना सिर्फ़ हाथ थामने का बहाना ढूँढ़ना नहीं होता। दो लोगों के उस स्पेस में बहुत कुछ टकराता रहता है।
क्योंकि कोई अपनी तन्हाई यूँ ही हाथ से जाने नहीं देता।
ये दीवारों का शहर है बाबू। यहाँ हर दीवार पर शब्दों की लाश टँगी है—इस
फ़्लाइओवर की तरह सपने दिखाती हो। पता ही नहीं चलता कि ढलान से उतरते ही सपने जाम में फँस जाएँगे।
इश्क़ में सिर्फ़ देखना ही नहीं होता, अनदेखा भी करना होता है।
इश्क़ में अजनबी न रहे तो इश्क़ नहीं रहता…
मुश्किल से एक कोना ढूँढ़ा मगर निगाहों ने उसे चौराहा बना दिया।
हुज़ूर की ख़िदमत भी करते हो और ख़ातिरदारी से डरते हो।
मेरी निगाह में तो हो तुम, लेकिन दीवारों की निगाह से बचके नहीं।