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स्टील प्लांट में स्टील बनते देखा था। ब्रा भी बनता है, पहली बार देखा। सबको ब्रा बनते देखना चाहिए। किशोर उम्र के बहुत से लोग कपड़े में जिस्म देखा करते थे। कपड़े को कपड़ा समझने के लिए उसका बनते देखना ज़रूरी है।
देखो, किरायेदार का अपना कोई शहर नहीं होता। दिल्ली के लाखों मकानों में जाने कितने शहर रहते होंगे। तुम उन्हीं मकानों की छत पर मिली थीं। पता ही बदलने जा रहा है।
सारी दीवारों पर कुछ न कुछ लिख दिया गया था। हर स्टेटस के साथ कमेंट भरा था। घोड़े पर सवार वह उगते सूरज की रौशनी से निकला चला आ रहा था। मानसिक अवसादों से घिरे इस शहर में हर लाइक डिसलाइक की तरह उदास लग रही थी। घोड़े की टाप तस्वीरों पर पड़ती जा रही थी। बाग़ों से लेकर बाँहों में पसरे लोगों की तस्वीरें। घुड़सवार। ख़ामोश ज़ुबानों के इस शहर में शब्दों की मौत का ऐलान पढ़ता जा रहा था। सारे शब्द स्टेटस की दीवारों पर मार कर लटकाए जा रहे थे। कैमरे के क्लोज़-अप में घुड़सवार की आँखें क्रूर लग रही थीं। शब्दों की लाश से बिछ गया है ये शहर। कोई ऐसी बात नहीं जो कही न गई हो। कोई ऐसी लाश नहीं जिस पर शब्दों की काठ न लदी
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इश्क़ में सिर्फ़ देखना ही नहीं होता, अनदेखा भी करना होता है।
इश्क़ में अजनबी न रहे तो इश्क़ नहीं रहता…
घंटे-भर में दनदनाती हुई ट्रेन ने दोनों की दूरी काफ़ी कम कर दी है। वक़्त तो बच गया मगर कहने को कुछ बचा ही नहीं।
देर रात तक कौन जागता होगा? चाँद और परेशान। और सोता कौन होगा? …आसमान। हा-हाऽऽ तुम दार्शनिक कब से हो गईं! तभी से, जब तुम आशिक़ हो गए…
दिल्ली से पटना लौटते वक़्त उसके हाथों में बर्नार्ड शॉ देखकर वहाँ से कट लिया। लगा कि इंग्लिश झाड़ेगी। दूसरी बोगियों में घूम-घूमकर प्रेमचंद पढ़नेवाली ढूँढ़ने लगा। पटना से आते वक़्त तो कई लड़कियों के हाथ में गृहशोभा तक दिखा था। सोचते-सोचते बेचारा कर्नल रंजीत पढ़ने लगा। लफुआ लोगों का लैंग्वेज प्रॉब्लम अलग होता है!