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एक वक्त होता है जब तुम जा सकते हो। मैं जिस दिन जा सकता था उस दिन मैं व्यस्त था।’’
छोटी–छोटी व्यस्तताएँ आदमी को कॉकरोच बना देती हैं। फिर उसे लगता है कि वह कभी भी नहीं मरेगा।’’
तब मैं अपनी थाली में पड़ी हुई आधी रोटी को देख रहा था। एक अजीब–सा ख़्याल आया। आधा जीवन जी चुका हूँ, आधा पड़ा हुआ है। बिना सब्ज़ी, बिना दाल के अकेला। जिसे कोई खाना नहीं चाहता।
‘जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें! किंतु ऐसे भी लोग हैं जो जीवन–भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं, ताकि अंत में अकेले न मरना पड़े।’
‘‘हमें ऐसा क्यों लगता है कि जो खेल हम खेल नहीं पाए उसे अगर हम खेल लेते तो आज जीत चुके होते?’’
कहते थे कि हम किसी भी तरह से गुज़र जाएँगे, धीरे–धीरे ही सही पर हम गुज़र ही जाएँगे।
जब सब कुछ हाथ से छूट रहा होता है तो लगता है कि कुछ पकड़ लो। चाहे वह कितना भी ग़लत क्यों न हो।