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खड़े–खड़े बात करने में एक चलतापन होता है जिसपर मैं हमेशा सहज बना रहता हूँ।
जीवन बिठाकर बात करना चाहता है और मैं खड़े–खड़े चल देना।
मैं हमेशा से कहीं चले जाना चाहता हूँ।’’ इस बार मैं सच बोलने पर आमादा था।
ज़मीन पर से निगाह कभी नहीं हटाना वर्ना कब ठोकर खाकर गिरोगे पता भी नहीं चलेगा।’’
माँ–बाप दोनों की अपेक्षाओं का बोझ उठाने के लिए हमेशा कंधे कमज़ोर पड़ जाते। जब भी कंधों को सीधा करने की इच्छा होती मैं चल देता काया के घर के आस–पास कहीं।
‘‘तुम एक पत्थर छोड़ते हो तो दूसरा पत्थर उठा लेते हो। भारी पत्थरों को ढोते रहना तुम्हारी आदत है जिससे तुम बाज़ नहीं आते हो। हल्के रहो। छोड़ो पत्थर।’’
मेरे खुद के डरों ने मेरा मेरे ही जीवन से संबंध कुछ इस तरह का बना दिया था कि मैं अपने होने में क़ैद था और मेरा जीवन बाहर मेरी प्रतीक्षा में था।
कुछ दिनों से मैं अपने इस संसार में नहीं होने के बारे में सोच रहा था, तो लगा कि इस संसार में मैं नहीं हूँ की तरह यह संसार नहीं चलेगा। यह संसार चलेगा कि मैं हुआ करता था।
एक वक्त होता है जब तुम जा सकते हो। मैं जिस दिन जा सकता था उस दिन मैं व्यस्त था।’’
‘‘छोटी–छोटी व्यस्तताएँ आदमी को कॉकरोच बना देती हैं। फिर उसे लगता है कि वह कभी भी नहीं मरेगा।’’
यदि दर्शक ही बने रहूँगा तो जो सब दिखाएँगे मुझे देखना पड़ेगा।
वह जब मर जाएगा तो घड़ी के काँटे की तरह हम सब एक मिनट आगे बढ़ जाएँगे।
काम के वक्त काम नहीं करने की आज़ादी बहुत बड़ी आज़ादी थी।
तुम ठीक नहीं हो यह blessing है। तुम ठीक नहीं हो इसलिए मूँछें नहीं हैं। तुम ठीक नहीं हो क्योंकि तुम हो। तुम ठीक नहीं हो इसलिए भाग सकते हो। भाग जाओ।’’
कूँची वाली औरत ने पूरे कमरे को आसमान बना दिया था। मैं इंतज़ार में था कि कब वह ‘अभी–अभी उड़ने को’ का दूसरा हंस बनाएगी।
इन बीते सालों में माँ ख़ूब सारी बातों का रटा–रटाया–सा पुलिंदा लिए मुझसे फोन पर बात करती थीं।
शुरू में जब खत मिलते तो मैं डर जाता। पता नहीं क्या लिखा होगा इनमें!
जब भी माँ खाना खाती हैं तो उनके मुँह से खाना चबाने की आवाज़ आती है, करच–करच। मुझे शुरू से यह आवाज़ बहुत पसंद थी। मैंने कई बार माँ की तरह खाने की कोशिश की पर वह आवाज़ मेरे पास से कभी नहीं आई।
जबकि मेरे हिसाब से वह उन महिलाओं में से है जो दूसरों के दुःख की साथी होती हैं। उन्हें इस काम में बड़ा मज़ा आता है। दूसरों के दुःख में एक सच्चे दोस्त की हैसियत से भागीदारी निभाना।
कि वह मेरे चेहरे में दुःख की लकीरें तलाश कर रही
मेरी कभी–कभी इच्छा होती थी कि मैं झंझोड़ दूँ या पुरानी घड़ी की तरह माँ और मेरे बीच के संबंध को नीचे ज़मीन पर दे मारूँ और यह संबंध फिर से पहले जैसा काम करना शुरू कर दे।
‘‘अब वह समय निकल चुका है। यूँ मेरे हाथ में कुछ था भी नहीं।’’
उन सीधी बातों के शब्द इतने नुकीले थे कि वह मेरे कंठ में कहीं अटक जाते, चुभने लगते।
ये सब मुझे इंजेक्शन लगने के पहले के दर्द जैसा लगता है। जब डॉक्टर तैयारी करता है, सुई को हवा में रखकर पानी उछालता है फिर जहाँ इंजेक्शन लगाना है, वहाँ गीली रूई से पोंछता है और फिर...
ज़िदगी के खेल में हार जाने के बाद क्या होता है? मैं हार जाना चाहता हूँ। जीतने में मैं फिर एक लूप में ख़ुद को दिखता हूँ। क्या मैं अभी इसी वक्त हारा हुआ घोषित नहीं हो सकता। मुझे नहीं खेलना है। अगर हारकर भी हम इस खेल से बाहर नही हो सकते हैं तो जीतना तो एक भ्रम है। है ना?
मेरे हाथ में एक तिल उग आया है। मेरे पिताजी की ज्योतिष की दुकान है। मैंने उस तिल का मतलब पिताजी से पूछा तो वह कहने लगे कि जब मुट्ठी बंद करो तो तिल मुट्ठी के भीतर बंद होना चाहिए। तुम्हारा तिल मुट्ठी के बाहर रह जाता है। सो, किसी काम का नहीं है।
जब मैं वापिस कमरे में आया तो अपने तिल को मुट्ठी में बंद करने की कोशिश करने लगा पर वह बाहर ही रह जाता था।
मैं मिट्टी को देखता रहा। वह इस वक्त एक विकृत आकार में थी। मैं अपने भीतर की विकृति उसमें देख सकता था। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं। कुछ देर मिट्टी को छुआ पर मन अस्थिर था। वह भाग रहा था।
‘‘मुझे लगता है कि Nothingness को हम कह नहीं सकते। लिख नहीं सकते। उसे हम कहीं किसी के कृतित्व में महसूस कर लेते हैं बस। और वह Nothingness रह जाती है उस कृतित्व में हमारे साथ। जैसे ख़ालीपन को भरने की मूर्ख कोशिश जब भी हम करते हैं, पर क्या खालीपन को कभी भी भरा जा सकता है? वह एक स्थिति है। है ना? हम उसे हमारी सारी व्यस्तता के बाद अपनी बगल में पड़ा हुआ पाते हैं हर बार। तुम्हारे लिखने में यह बहुत सहजता से है। तुम चीज़ों को, संबंधों को उसके ख़ालीपन में बहुत सुंदरता से देखते हो।’’
इक़बाल भाई कुछ पॉट तोड़ देते थे। मैंने अपनी कुछ कहानियाँ फाड़ दी थीं और अंतिमा से फिर मैं कभी नहीं मिला। यह सारी बातें एक अंत देती हैं। इसमें एक असहजता है पर अंत सहज है।
आज लगता है कि पेलाग्या निलोवना से कहीं महान वह माँएँ हैं जो बिना किसी ‘आह’ के एक घर में काम करते हुए पूरी ज़िंदगी गुज़ार देती हैं। उनकी कोई कहानी हमने नहीं पढ़ी। उन्हें किसी ने कहीं भी दर्ज नहीं किया। वह अपने पति के जर्जर होने और बच्चों से आती खबरों के बीच कहीं अदृश्य–सी बूढ़ी होती रहीं। यह हमारी माँएँ हैं जिनका ज़िक्र कहीं नहीं है।
उन जगहों पर अब मेरी ही आवाज़ लौटकर मेरे पास आएगी। मेरी हर हरकत गूँजेगी मेरे ही कानों में। हमें सालों इंतज़ार करना होता है तब कहीं इस खाली जगह में हल्की–सी घास नज़र आने लगती है। फिर हम एक रात की किसी कमज़ोर घड़ी में वहाँ पेड़ लगा आएँगे और वह बहुत समय बाद एक हरा भरा घास का मैदान हो जाएगा। तब शायद हम कह सकेंगे कि वह अब जा चुकी
‘जीवन में अकेलेपन की पीड़ा भोगने का क्या लाभ यदि हम अकेले में मरने का अधिकार अर्जित न कर सकें! किंतु ऐसे भी लोग हैं जो जीवन–भर दूसरों के साथ रहने का कष्ट भोगते हैं, ताकि अंत में अकेले न मरना पड़े।’
सुबह, सूरज की रोशनी खिड़की से सीधे उनकी दीवार पर पड़ती थी, फिर धीरे–धीरे रेंगते हुए एक उजले प्रेत की तरह घर छोड़कर चली जाती। उन्होंने एक बार मुझसे कहा था कि क्या मैं इस रोशनी को अपने घर में रोक सकती हूँ? घर का दरवाज़ा खिड़की सब बंद करके इसे कैद कर लूँ? जैसे अपने घर में मैं क़ैद हूँ।
हमारे पास शब्द ही तो हैं। शब्दों को एक तरीके से जमाने पर कुछ भाव उत्पन्न होते हैं। वह भाव किसके हैं? जिसने शब्द कहे हैं उसके, या जो वह शब्द सुन रहा है उसके?’’
मैं बहुत जल्दी किसी चीज़ को दफ्न नहीं कर पाता हूँ। इस मामले में शायद मैं हिंदू हूँ। मैं चीज़ों को जलाना पसंद करता हूँ, पूरे संस्कार के साथ। उन्हें कंधे पर कई दिनों तक ढोता हूँ। जलने के बाद उनकी गर्म राख से कई दिनों तक अपने हाथ सेंकता रहता हूँ। फिर राख से जली हुई हड्डियों को बीनकर उन्हें नदी में सिराने जाता हूँ। इन सबमें कई बार सालों लग जाते हैं।
‘‘पर मेरी नीयत थी।’’
वह कहती थी कि हमें हमेशा अधूरे सपने याद रहते हैं। बीच की ख़ाली जगह। आधे कहे हुए संवाद। चुप्पी।
मुझे यूँ भी अंत की हमेशा चिंता रहती थी। किसी भी कहानी को पढ़ते हुए मैं उसके अंत का बोझ अपने कंधे पर लिए हुए उसे पढ़ता।
हर संबंध एक छोर पर आकर आत्महत्या की जगह खोज रहा होता है। वह आत्महत्या करे या न करे की ऊहापोह में वह संबंध ज़िंदा रहता है। किसी भी तरह का निर्णय उस संबंध की हत्या है।
अधूरेपन में भी आज़ादी है।