चाँदनी रात थी। चाँद खिड़की से नज़र आ रहा था। मैं एक कोरे पन्ने से खेल रहा था। यह क्षण मुझे बहुत पाक लगता है। इस वक्त कुछ भी लिखा जा सकता है। बात कहीं से भी शुरू हो सकती है और कहीं भी पहुँच सकती है। ऐसे क्षणों में मेरे भीतर बच्चों की–सी चंचलता आ जाती है। मैं कुलबुलाने लगता हूँ शब्द–शब्द। अगर शुरुआती शब्द ‘अ’ है तो मुझे अ की गोलाई, उसके घुमाव, सब कुछ गुदगुदी पैदा करते हैं। बहुत से शब्द हैं जिन्हें मैं नहीं लिखता हूँ। फिर बहुत देर बाद एक शब्द कहीं लिखाता है और फिर कड़ियाँ जैसे वह पहला शब्द एक झोला है। जादूई पिटारा। जिसमें से बाकी सारे शब्द निकल रहे हैं। इनमें मैं कहीं विलुप्त हो जाता हूँ।