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पता नहीं कितनी सारी चीज़ें हैं जिनका हम कुछ भी नहीं कर सकते। बस मूक दर्शक बन देख सकते हैं। सब होता हुआ। सब घटता हुआ, धीरे–धीरे।
एक अजीब–सा ख़्याल आया। आधा जीवन जी चुका हूँ, आधा पड़ा हुआ है। बिना सब्ज़ी, बिना दाल के अकेला। जिसे कोई खाना नहीं चाहता।
मैं उससे उसके घेरे के भीतर, उसके इलाके में, उससे बात करने आया हूँ। पर क्या बात? ये किसी केस में जज के फ़ैसला सुना देने के बाद की जिरह जैसा है। केस close हो चुका है, फैसला सुनाया जा चुका है, आजीवन सज़ा हो चुकी है।
ये क्या कर रहा हूँ मैं। मैं अपने–आपको कोसने लगा। मुझे लगा, मैं बच्चा हो गया हूँ और किसी board exam का पेपर दे रहा हूँ। सारे प्रश्न पता हैं, सारे उत्तर पता हैं, साल भर से इसी की तैयारी की है पर ठीक परीक्षा के समय कुछ याद नहीं आ रहा है।
तुम अपनी आत्मा पेंट करते हो।’’ मैं अपनी आत्मा के सामने काफी देर बैठा रहा।
चाँदनी रात थी। चाँद खिड़की से नज़र आ रहा था। मैं एक कोरे पन्ने से खेल रहा था। यह क्षण मुझे बहुत पाक लगता है। इस वक्त कुछ भी लिखा जा सकता है। बात कहीं से भी शुरू हो सकती है और कहीं भी पहुँच सकती है। ऐसे क्षणों में मेरे भीतर बच्चों की–सी चंचलता आ जाती है। मैं कुलबुलाने लगता हूँ शब्द–शब्द। अगर शुरुआती शब्द ‘अ’ है तो मुझे अ की गोलाई, उसके घुमाव, सब कुछ गुदगुदी पैदा करते हैं। बहुत से शब्द हैं जिन्हें मैं नहीं लिखता हूँ। फिर बहुत देर बाद एक शब्द कहीं लिखाता है और फिर कड़ियाँ जैसे वह पहला शब्द एक झोला है। जादूई पिटारा। जिसमें से बाकी सारे शब्द निकल रहे हैं। इनमें मैं कहीं विलुप्त हो जाता हूँ।
सूखा हुआ पत्ता हूँ जो बहुत पहले अपने पेड़ से अलग हो गया था।
सुबह की राख में माँ को टटोलना, जो कहानी कल तक मुझे असह्य रूप से लंबी लग रही थी वह अभी इस राख में ख़त्म हो चुकी थी। इस राख में मैं माँ को ढूँढ़ रहा था। कभी वह मुझे अपने घर के बाहर खड़ी दिखतीं तो कभी लाल डलिया लिए मेरे लिए चॉक लाती हुईं, पर पकड़ में कुछ भी नहीं आता। सिर्फ़ राख।
हमें ऐसा क्यों लगता है कि जो खेल हम खेल नहीं पाए उसे अगर हम खेल लेते तो आज जीत चुके होते?’’