खड़े–खड़े बात करने में एक चलतापन होता है जिसपर मैं हमेशा सहज बना रहता हूँ। बैठकर बात करने में ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। बैठकर बात लंबी चलती है। फिर खड़े होने की गलियाँ खोजनी पड़ती हैं। बैठकर बात करने में बहुत देर खड़े होकर भी बात होती रहती है। बैठे–बैठे आप सीधे जा नहीं सकते। जबकि खड़े–खड़े बात करने में आप सीधे कहीं जा सकते हैं। जीवन बिठाकर बात करना चाहता है और मैं खड़े–खड़े चल देना।