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आंसुओं के आवेग से जालपा की आवाज़ रूक गई। उसका सिर झुक गया और झुकी हुई आंखों से आंसुओं की बूंदें आंचल पर फिरने लगीं। एक क्षण में उसने स्वर को संभालकर कहा,’मुझसे बडा भारी अपराध हुआ है। जो चाहे सज़ा दो; पर मुझसे अप्रसन्न मत हो ईश्वर जानते हैं, तुम्हारे जाने के बाद मुझे कितना दु:ख हुआ। मेरी कलम से न जाने कैसे ऐसी बातें निकल गई।’
जालपा जानती थी कि रमा को आभूषणों की चिंता मुझसे कम नहीं है, लेकिन मित्रों से अपनी व्यथा कहते समय हम बहुधा अपना दु:ख बढ़ाकर कहते हैं। जो बातें परदे की समझी जाती हैं, उनकी चर्चा करने से एक तरह का अपनापन जाहिर होता है। हमारे मित्र समझते हैं, हमसे ज़रा भी दुराव नहीं रखता और उन्हें हमसे सहानुभूति हो जाती है। अपनापन दिखाने की यह आदत औरतों में कुछ अधिक होती है।
हम क्षणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांति का कैसे
। रूपये के मामले में पुरूष महिलाओं के साम
कुछ नहीं कह सकता क्या वह कह सकता है, इस वक्त मेरे पास रूपये नहीं हैं। वह मर जाएगा, पर यह उज्र न करेगा।
रमेश—‘कोई हरज़ नहीं, यह रूपये वसूल हो जाएंगे। बडे आदमियों से राहरस्म हो जाय तो बुरा नहीं है, बड़े-बडे काम निकलते हैं। एक दिन उन लोगों को भी तो बुलाओ।‘
जालपा—‘भाग्य को क्यों कोसूं, भाग्य को वह औरतें रोएं, जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरूष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।
श्या के पास लोग आनंद उठाने ही जाते हैं, कोई उससे मन की बात कहने नहीं जाता। तुम्हारी भी वही दशा
प्रियजनों की नज़रों से फिरकर जिए तो तो क्या जिए
रिश्वत बुद्धिसे, कौशल से, पुरूषार्थ से मिलती है। दान पौरूषहीन, कर्महीन या पाखंडियों का आधार है।
तुम्हारे दर्शनों से आंखें पवित्र होती हैं।‘ देवीदीन ने इस भाव से देखा मानो इस बडाई को वह बिलकुल अतिशयोक्ति नहीं समझता। शहीदों की शान से बोला,इन बड़े-बडे आदमियों के किए कुछ न होगा। इन्हें बस रोना आता है, छोकरियों की भांति
प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता ह

