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प्रात:काल पानी का घड़ा लेकर चलती, तब उसका गेहूआँ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुन्दन हो जाता, मानों उषा अपनी सारी सुगंध, सारा विकास और उन्माद लिये मुस्कराती चली जाती हो।
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महत्त्वाकांक्षा आँखों पर परदा डाल देती है।
उसने पत्र के टुकड़ों को फिर समेट लिया और उसे जलाकर राख कर डाला। राख की एक चुटकी के सिवा वहाँ कुछ न रहा, जो उसके हृदय में विदीर्ण किए डालती थी। इसी एक चुटकी राख में उसका गुड़ियोंवाला बचपन, उसका संतप्त यौवन और उसका तृष्णामय वैधव्य सब समा गया।
सच कहते हैं, मातृत्व दीर्घ तपस्या है। माता के सिवाय इतना स्नेह और कौन कर सकता है? हम बड़े अभागे हैं कि माता के प्रति जितनी श्रद्घा रखनी चाहिए, उसका शतांश भी नहीं रखते।
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वाह रे अंधेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छॉह में खड़ी हो सकती; अगर यही कानून है, तो इसमें आग लग जाए।
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जानवर मारने से काम करता है; पर खाता है मन से। फूलमती बेकहे काम करती थी; पर खाती थी विष के कौर की तरह।
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उनकी वह रत्नजटित, बिजली से जगमगाती मूर्ति देखकर मेरे मन में ग्लानि उत्पन्न ह ई। इस रुप में भी प्रेम का निवास हो सकता है? मैंने तो रत्नों में दर्प और अहंकार ही भरा देखा है। मुझे उस वक्त यही याद न रही, कि यह एक करोड़पति सेठ का मंदिर है और धनी मनुष्य धन में लोटने वाले ईश्वर ही की कल्पना कर सकता है। धनी ईश्वर में ही उसकी श्रद्धा हो सकती है। जिसक पास धन नहीं, वह उसकी दया का पात्र हो सकता है, श्रद्धा का कदापि नहीं।
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कलाकारों की आदत है कि शब्दों को कुछ इस तरह तोड़-मरोड़ देते हैं कि अधिकांश सुननेवालों की समझ में नहीं आता कि क्या गा रहे हैं। इस गीत का एक शब्द भी मेरी समझ में न आया: लेकिन कण्ठ-स्वर में कुछ ऐसा मादकता भरा लालित्य था कि प्रत्येक स्वर मुझे रोमांचित कर देता था। कंठ-स्वसर में इतनी जादू शक्ति है, इसका मुझे आज कुछ अनुभव हुआ। मन में एक नए संसार की सृष्टि होने लगी, जहाँ आनन्द-ही-आनन्द है, प्रेम-ही-प्रेम, त्याग-ही-त्याग। ऐसा जान पड़ा, दु:ख केवल चित्त की एक वृत्ति है, सत्य है केवल आनन्द। एक स्वच्छ, करुणा-भरी कोमलता, जैसे मन को मसोसने लगी। ऐसी भावना मन में उठी कि वहाँ जितने सज्जन बैठे हए थे, सब मेरे अपने
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अतीत चाहे दुख:द ही क्यों न हो, उसकी स्मतियॉ मधुर होती हैं।
प्रेम जब श्रद्धा के साथ आता हैं, तब वह ऐसा मेहमान हो जाता हैं, जो उपहार लेकर आया हो। युवकों के लिए प्रेम खर्चीली वस्तु हैं लेकिन महात्माओं या महीत्मापन के समीप पहुँचे हुए लोगों का प्रेम-उलटे और कुछ ले आता हैं। युवक जो रंग बहुमूल्य उपहारों से जमाता हैं, ये महात्मा या अर्द्ध- महात्मा लोग केवल आशीर्वाद से जमा लेते हैं।
‘रूप की देवी वेश्या भी हो, उपास्य हैं।’