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लेकिन जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे, कुछ हो आदमी नहीं है।
वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है अरि हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्र का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती है, शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानों हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं, जहाँ नीचे का जन-रब हम तक नहीं पहुँचता।
जीत में सब कुछ माफ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही बस्तु है।
वह केवल जुगनू की चमक नहीं, दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती थी।
प्रतिभा तो गरीबी ही में चमकती है दीपक की भाँति, जो अंधेरे ही में अपना प्रकाश दिखाता है।
राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता
मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं उसके अन्तस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर उससे अरुचि हो जायगी।
जो रमणी से प्रेम नहीं कर सकता, उसके देश-प्रेम में मुझे विश्वास नहीं।
न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिन्ता।
जिसे हम डेमॉक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और ज़मीदारों का राज्य है, और कुछ नहीं।
कर्ज वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता।
उसमें वह क्रोध था, जो अपने को खा जाना चाहता है, जिसमें हिंसा नहीं, आत्मसमर्पण है।
अन्धी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है!
गोविन्दी निराशा की उस दशा को पहुँच गई थी, जब आदमी को सत्य और धर्म में भी सन्देह होने लगता है;
कृपण लोगों में उत्सवों पर दिल खोलकर खर्च करने की जो एक प्रवृत्ति होती है, वह उसमें भी सजग हो गई।
उसका मातृत्व उस घर के समान हो रहा था, जिसमें आग लग गई हो और सब कुछ भस्म हो गया हो। बैठकर रोने के लिए भी स्थान न बचा हो।
धन ने आज तक नारी के हृदय पर विजय नहीं पाई और न कभी पाएगा।
घमण्डी आदमी प्राय: शक्की हुआ करता है। और जब मन में चोर हो, तो शक्कीपन और भी बद जाता है।
उसके शोक में भाग लेकर, उसके अन्तर्जीवन में पैठकर, गोबर उसके समीप जा सकता उसके जीवन का अंग बन सकता था; पर वह उसके बाह्य जीवन के सूखे तट पर आकर ही प्यासा लौट जाता था।
और मन स्वस्थ हो, तो देह कैसे अस्वस्थ रहे! उस एक महीने में जैसे उसका कायाकल्प हो गया हो।
दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है।
हमारी सारी आत्मिक और बौद्धिक और शारीरिक शक्तियों के सामंजस्य का नाम धन है।
नेकी न करना बदनामी की बात नहीं। अपनी इच्छा नहीं है। इसके लिए कोई हमें बुरा नहीं कह सकता। मगर जब हम नेकी करके उसका एहसान जताने लगते हैं, तो वही जिसके साथ हमने नेकी की थी, हमारा शत्रु हो जाता है, और हमारे एहसान को मिटा देना चाहता है। वही नेकी अगर करने बालों के दिल में रहे, तो नेकी है, बाहर निकल आये तो बदी है।
हम जिनके लिए त्याग करते हैं, उनसे किसी बदले की आशा न रखकर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैं, चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए हो, यद्यपि उस हित को हम इतना अपना लेते हैं कि वह उनका न होकर हमारा हो जाता है। त्याग की मात्रा जितनी ही ज्यादा होती है, यह शासन भावना भी उतनी ही प्रबल होती है और जब सहसा हमें विद्रोह का सामना करना पड़ता है, तो हम क्षुब्घ हो उठते हैं, और वह त्याग जैसे प्रतिहिंसा का रूप ले लेता है।
बुढ़ापे में कौन अपनी जवानी की भूलों पर दुखी नहीं होता?
तुम किस तर्क से इस दान-प्रथा का समर्थन कर सकते हो। मनुष्य जाति को इस प्रथा ने जितना आलसी और मुफ्तखोर बनाया है और उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात किया है, उतना अन्याय ने भी न किया होगा; बल्कि मेरे खयाल में अन्याय ने मनुष्य-जाति में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके समाज का बड़ा उपकार किया है।
यह मोह ही विनाश की जड़ है।
परदा होता है हवा के लिए। आँधी में परदे उठाके रख दिये जाते हैं कि आँधी के साथ उड़ न जायँ।
जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दुःख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्त्तव्य और निपटाए हुए कामों का क्या मोह! मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्त्तव्य न निभा सके; उन अधूरे मंसूबों में है, जिन्हें हम न पूरा कर सके।