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‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’
आशा का विलंब ही दुराशा है, क्या मैं इतना नहीं जानता।
हम क्षणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांति का कैसे होम कर देते
रोने से माँ दूध पिलाती है, शेर अपना शिकार नहीं छोड़ता। रोओ उसके सामने, जिसमें दया और धर्म हो।
अन्य प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने से वह मानो छुट्टी पा जाता है।

