गोदान
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Read between September 17 - November 20, 2018
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जब दूसरे के पाँवों-तले अपनी गरदन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशल है।’
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काना कहने से काने को जो दुःख होता है, वह क्या दो आँखोंवाले आदमी को हो सकता है?
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दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है, वह निर्लज्जता के तकाजे, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती,
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संपत्ति और सहृदयता में वैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं, लेकिन जानते हो, क्यों? केवल अपने बराबरवालों को नीचा दिखाने के लिए।
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जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ हो, आदमी नहीं है।
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मुफ्तखोरी ने हमें अपंग बना दिया है, हमें अपने पुरुषार्थ पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं,
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‘कौन कहता है कि हम-तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ? आदमी वह है, जिसके पास धन है, अख्तियार है, इलम है, हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं।
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बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता।
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वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी होती है। उसके बाद विश्राममय संध्या आती है, शीतल और शांत, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन भर की यात्रा का वृत्तांत कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं, जहाँ नीचे का जन-रव हम तक नहीं पहुँचता।
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जीतकर आप अपनी धोखेबाजियों की डींग मार सकते हैं, जीत से सबकुछ माफ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है।
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गुड़ से मारनेवाला जहर से मारनेवाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है।
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रस्सी को साँप बनाकर पीटो और तीसमारखाँ बनो।
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आदमी का बहुत सीधा होना भी बुरा है। उसके सीधेपन का फल यही होता है कि कुत्ते भी मुँह चाटने लगते हैं।
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‘प्रेम जब आत्म-समर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है, उसके पहले अय्याशी है।’
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हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिरकर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वच्छंद होना चाहती है, इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सके। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है, लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है!
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और यह पुरुषों का षड्यंत्र है। देवियों को ऊँचे शिखर से खींचकर अपने बराबर बनाने के लिए, उन पुरुषों का, जो कायर हैं, जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व सँभालने की क्षमता नहीं है, जो स्वच्छंद काम-क्रीड़ा की तरंगों में साँड़ों की भाँति दूसरों की हरी-भरी खेती में मुँह डालकर अपनी कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं।
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संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है।
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सेवा ही वह सीमेंट है, जो दंपती को जीवनपर्यंत स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है,
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बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है। अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता।
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संसार में अन्याय न होता तो इसे नरक क्यों कहा जाता। यहाँ न्याय और धरम को कौन पूछता है?
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घमंडी आदमी प्रायः शक्की हुआ करता है और जब मन में चोर हो तो शक्कीपन और भी बढ़ जाता है।
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आपके मजूर बिलों में रहते हैं, गंदे, बदबूदार बिलों में, जहाँ आप एक मिनट भी रह जाएँ तो आपको कै हो जाए। कपड़े जो पहनते हैं, उनसे आप अपने जूते भी न पोछेंगे। खाना जो वह खाते हैं, वह आपका कुत्ता भी न खाएगा।
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दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका सम्मान नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है।
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सत्पुरुष धन के आगे सिर नहीं झुकाते।
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वही नेकी अगर करनेवालों के दिल में रहे तो नेकी है, बाहर निकल आए तो बदी है।
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समाज-धरम पालने से समाज आदर करता है, मगर मनुष्य-धरम पालने से तो ईश्वर प्रसन्न होता है।
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आदमी अगर धन या नाम के पीछे पड़ा है, तो समझ लो कि अभी तक वह किसी परिष्कृत आत्मा के संपर्क में नहीं आया।
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मोह ही विनाश की जड़ है।
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प्रेम-जैसी निर्मम वस्तु क्या भय से बाँधकर रखी जा सकती है? वह तो पूरा विश्वास चाहती है, पूरी स्वाधीनता चाहती है, पूरी जिम्मेदारी चाहती है। उसके पल्लवित होने की शक्ति उसके अंदर है। उसे प्रकाश और क्षेत्र मिलना चाहिए। वह कोई दीवार नहीं है, जिस पर ऊपर से ईटें रखी जाती हैं। उसमें तो प्राण है, फैलने की असीम शक्ति है।
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जिस दिन मन मोह में आसक्त हुआ और हम बंधन में पड़े, उस क्षण हमारा मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जाएगा, नई-नई जिम्मेदारियाँ आ जाएँगी और हमारी सारी शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लगने लगेगी।
जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दुःख का नाम तो मोह है।