Tushar Upreti's Blog: People Tree, page 2
December 22, 2014
धर्म औऱ भ्रम :RELIGIOUS WARS
दो तरह के धर्म होते हैं , एक जो आपको पैदा होते ही विरासत में मिलता है और दूसरा वो जो आप खुद खोजते हैं । जन्म से हम हिंदु हो सकते हैं , मुस्लमान हो सकते हैं , ईसाई हो सकते हैं ,सिख या फिर आसान कर दें तो मशीनी हो सकते हैं । मतलब सवाल नहीं करते सिर्फ फॉलो करते हैं जैसे कोई रोबॉट करता है । जन्यु पहन लो , पगड़ी बांध लो , रोज़ा रख लो इत्यादि ।
अब आप सोचिये कि एक रोबोट जो सालों से एक ही सॉफ्टवेअर पर चल रहा है क्या उसे रिबुट किया जा सकता है ?
नोबिल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी ने कहा कि “मैंने बच्चों के भीतर खुदा को मुस्कराते देखा , इसलिये मैं मंदिर-मस्जिद नहीं जाता । “
दूसरी तरफ पाकिस्तान में बच्चों के कत्लेआम के बाद एक बच्चे ने कहा कि “मैं बड़ा होकर आतंकवादियों की नस्लें खत्म कर दूंगा”
धर्म को भ्रम बनते देर नहीं लगती । मंगलवार को नॉनवेज मत खाओ – ऐसी धारणा है । कुछ उसे हनुमान जी का दिन बताते हैं । अब ज़रा मिथक को सच मान लें तो सोचिये क्या बंदर वैजीटेरीयन होते हैं ? या आपकी अपनी तात्कालिक बुद्दि क्या कहती है कि राम ने वनवास के 14 सालों मे जंगल मे सिर्फ कंद-मूल खाये होंगे ?
फिल्म ‘लाइफ ऑफ पाई” में आप एक बच्चे की धर्म को लेकर उलझन को देख सकते हैं । जो हर बार खुदा बदल देता है क्योंकि जानकार उसे बताते हैं कि ऐसा करो वैसा मत करो ?
फिर कड़े संघर्ष के बाद वो समझता है कि ये तो हर जगह है , तो उसे ढूंढ़ना क्यों ? कबीरदास का दोहा आप याद कर सकते हैं । ‘ओ माए गॉड’ और ‘पीके’ ने इसी बात को आगे बड़ाया है ।
पी.के के साथ एक विडंबना ये रही कि ये ओ माए गॉड के बाद आई है । दूसरी विडंबना ये रही कि दिल्ली के कई सिनेमा घरो में जहां पीके का शो है , वहां MSG (MESSENGER OF GOD) नाम की फिल्म का ट्रेलर चल रहा है । जो कुछ पी.के कहती है ,msg उसी बाबा परंपरा का वर्तमान उदाहरण है । तीसरी सबसे बड़ी मुश्किल टिकट को लेकर है । जिस मीडिल क्लास के दिल के करीब ये फिल्म है । वो इसके टिकटों के रेट बड़ जाने की वजह से नहीं देख पा रहा है । आठ हज़ार की तन्खवाह वाले परिवार में मियां,बीवी,बच्चों के लिये 1000 रुपये का टिकट और 200 का popcorn कुछ महंगा सौदा है ।
पी.के के आने से पहले देश-दुनिया में बहुत कुछ घट चुका है । कहीं कोई बाबा Msg कहकर खुद को हीरो बना रहा है । कहीं कोई बाबा देश की जेलों मे पड़ा है और रोज़ अपना स्टेटमेंट बदल रहा है । किसी बाबा ने समाधी ले ली है तो पता चलता है कि उसे उसी के ग्रुप वालों ने मार कर गाड़ दिया है और समाधी बनाकर बिजनैस बड़ा रहे हैं ।
कोई धर्म परिवर्तन की बात करके लाखों दे रहा है । कोई बच्चों पर गोलियां चला रहा है ।
ये सारे उदाहरण इस बात का सबूत हैं कि धर्म को कैसे भ्रम में बदला जा रहा है !
ऐसे में अच्छा हुआ कि पी.के को अंत में वापिस भेज दिया गया । वर्ना उसके नाम का धर्म कब बन जाये ये किसी को नहीं पता । बाद में वो वापिस भी आय़ा तो क्या पता किसी ने उसे भी बाबा ना बना दिया हो । जैसे भैरों के मंदिर में दारु चढ़ती है वैसे ही पी.के के मंदिर मे पान चढेगा !
अब सभी को जरुरत है अपने रोबोटिक धर्मों से बाहर निकलकर ऐसे धर्म को अपनाने की , जो तर्क और सवालों से ना डरे । जिस हम जैसे चाहें वैसे फॉलो कर पायें । जो ना किसी को लव-जेहादी कहे , ना किसी का धर्म परिवर्तन करवाये , ना वो झटके-हलाल से घबराये ! ना वो किसी को लहसुन-प्याज़ खाने से रोके और ना किसी को जबरन मांस खिलाये । जो हर किसी को उसी के तरीके से जीने दे । जो खाली पेट में अल्लाह को पाये , और खाना खा-खिलाकर विष्णु के भजन गाये ।
अब आप सोचिये कि एक रोबोट जो सालों से एक ही सॉफ्टवेअर पर चल रहा है क्या उसे रिबुट किया जा सकता है ?
नोबिल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी ने कहा कि “मैंने बच्चों के भीतर खुदा को मुस्कराते देखा , इसलिये मैं मंदिर-मस्जिद नहीं जाता । “
दूसरी तरफ पाकिस्तान में बच्चों के कत्लेआम के बाद एक बच्चे ने कहा कि “मैं बड़ा होकर आतंकवादियों की नस्लें खत्म कर दूंगा”
धर्म को भ्रम बनते देर नहीं लगती । मंगलवार को नॉनवेज मत खाओ – ऐसी धारणा है । कुछ उसे हनुमान जी का दिन बताते हैं । अब ज़रा मिथक को सच मान लें तो सोचिये क्या बंदर वैजीटेरीयन होते हैं ? या आपकी अपनी तात्कालिक बुद्दि क्या कहती है कि राम ने वनवास के 14 सालों मे जंगल मे सिर्फ कंद-मूल खाये होंगे ?
फिल्म ‘लाइफ ऑफ पाई” में आप एक बच्चे की धर्म को लेकर उलझन को देख सकते हैं । जो हर बार खुदा बदल देता है क्योंकि जानकार उसे बताते हैं कि ऐसा करो वैसा मत करो ?
फिर कड़े संघर्ष के बाद वो समझता है कि ये तो हर जगह है , तो उसे ढूंढ़ना क्यों ? कबीरदास का दोहा आप याद कर सकते हैं । ‘ओ माए गॉड’ और ‘पीके’ ने इसी बात को आगे बड़ाया है ।
पी.के के साथ एक विडंबना ये रही कि ये ओ माए गॉड के बाद आई है । दूसरी विडंबना ये रही कि दिल्ली के कई सिनेमा घरो में जहां पीके का शो है , वहां MSG (MESSENGER OF GOD) नाम की फिल्म का ट्रेलर चल रहा है । जो कुछ पी.के कहती है ,msg उसी बाबा परंपरा का वर्तमान उदाहरण है । तीसरी सबसे बड़ी मुश्किल टिकट को लेकर है । जिस मीडिल क्लास के दिल के करीब ये फिल्म है । वो इसके टिकटों के रेट बड़ जाने की वजह से नहीं देख पा रहा है । आठ हज़ार की तन्खवाह वाले परिवार में मियां,बीवी,बच्चों के लिये 1000 रुपये का टिकट और 200 का popcorn कुछ महंगा सौदा है ।
पी.के के आने से पहले देश-दुनिया में बहुत कुछ घट चुका है । कहीं कोई बाबा Msg कहकर खुद को हीरो बना रहा है । कहीं कोई बाबा देश की जेलों मे पड़ा है और रोज़ अपना स्टेटमेंट बदल रहा है । किसी बाबा ने समाधी ले ली है तो पता चलता है कि उसे उसी के ग्रुप वालों ने मार कर गाड़ दिया है और समाधी बनाकर बिजनैस बड़ा रहे हैं ।
कोई धर्म परिवर्तन की बात करके लाखों दे रहा है । कोई बच्चों पर गोलियां चला रहा है ।
ये सारे उदाहरण इस बात का सबूत हैं कि धर्म को कैसे भ्रम में बदला जा रहा है !
ऐसे में अच्छा हुआ कि पी.के को अंत में वापिस भेज दिया गया । वर्ना उसके नाम का धर्म कब बन जाये ये किसी को नहीं पता । बाद में वो वापिस भी आय़ा तो क्या पता किसी ने उसे भी बाबा ना बना दिया हो । जैसे भैरों के मंदिर में दारु चढ़ती है वैसे ही पी.के के मंदिर मे पान चढेगा !
अब सभी को जरुरत है अपने रोबोटिक धर्मों से बाहर निकलकर ऐसे धर्म को अपनाने की , जो तर्क और सवालों से ना डरे । जिस हम जैसे चाहें वैसे फॉलो कर पायें । जो ना किसी को लव-जेहादी कहे , ना किसी का धर्म परिवर्तन करवाये , ना वो झटके-हलाल से घबराये ! ना वो किसी को लहसुन-प्याज़ खाने से रोके और ना किसी को जबरन मांस खिलाये । जो हर किसी को उसी के तरीके से जीने दे । जो खाली पेट में अल्लाह को पाये , और खाना खा-खिलाकर विष्णु के भजन गाये ।
Published on December 22, 2014 02:36
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Tags:
children-books, films, hindi, hindi-books, indian-media, life-of-pie, literary, marathi, media, punjabi, regional, religion, spiritual, thoughts, tushar-upreti, writing
December 14, 2014
#Hindi #Hindustani #India #Regional #languages : भाषा और बाज़ार
हिंदी के बारे में कई बार बहुत सी गलतफहमी लेकर लोग जीते हैं । कई बार बाज़ार की पसंदीदा भाषा होने के बावजूद भी हिंदी को हम एक ऐसी भाषा के रुप में ज्यादा देखते हैं । जिसके लेखक कगार पर खड़े हैं । इस लेख में उन चीज़ों की ओर और वजहों को तलाशने की कोशिश है । जिसमें ना केवल हिंदी बल्कि भारतीय भाषाओं के पढ़ने-लिखने वाले बाज़ार पर सवालिया निशान से लगे हैं
दूसरी अहम बात ये है कि इसमें हमने भाषा के दिग्गजों से टिप्पणी नहीं ली है । हमने टिप्पणी उन लोगों से ली है जो हिंदी के लिये काम करते हैं या उससे खास तरह का जुड़ाव महसूस करते हैं ।
यह एक अजीब सी विडंबना है कि आप हिंदी संवाद लिखे बिना ना तो फिल्म बेच सकते हैं और ना ही साबुन फिर भी हिंदी खासतौर से देवनागरी में लिखना या पढ़ना प्रकाशकों की नज़र मे कम होता जा रहा है । कम से कम किसी लेखक के सामने बैठ कर उसे तो यही सलाह दी जाती है कि रॉयलटी ज्यादा लेनी है तो किसी दूसरी भाषा में लिखो । मेरी एक मित्र ने भी पिछले दिनों मुझे कुछ ऐसा ही करने की सलाह दी । और कारण जानने चाहे , मार्केटिंग के पहलुओं पर नज़र डालें तो आज के दौर में हिंदी मार्केटिंग मे बेहद पिछड़ी है । आप सड़कों पर मुंबई-दिल्ली के मशहूर स्ट्रीट्स पर निकल जाईये तो वहां बिछी किताबों के जाल में हिंदी मे कुछ पुराने उपन्यासों या जासूसी के नावलों , ज्योतिषी को छोड़ कर शायद ही आपको कुछ दिलचस्प सा नज़र आ जाएगा । क्या हिंदी का नया लेखक कुछ लिख ही नहीं रहा है या फिर उसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिशें ठीक तरह से नहीं हो रही हैं । क्योंकि जब सामने दिख ही नहीं रहा तो कोई राह चलते से लेकर लैंडमार्क सरीखे बड़े ब्रांड मे भी उसे एक कोने में हिंदी की किताबों का डिस्प्ले मिलता है । जब दिखोगे नहीं तो बिकोगे कैसे ?
हिंदी पब्लिशिंग की दुनिया :
ऐसे ही सवाल का एक सटीक जवाब दिया लेखक पंकज रामेंदु ने , दो किताबों के लेखक (रेहड़ी-कविता संग्रह , दर दर गंगे-यात्रा/कहानी संस्मरण) और पेशे से पत्रकार और दिल से टीचर पंकज की टिप्पणी इसमें खासतौर से मायने रखती है । पंकज के अनुसार “जितना दोष प्रकाशकों का है , उतना ही गलत लेखक भी है । प्रकाशक सोचता है कि उसने किताब छाप दी , उसकी इतिश्री हो गई , वो चाहता है कि लेखक लिख भी ले और मार्केटिंग भी कर ले । दूसरी तरफ लेखक इस लिहाज से दोषी है कि वो नए के रास्ते में रोड़ा बना हुआ है । हर बार पुराने स्थापित लेखक ये कहते नज़र आ रहे हैं कि नये कुछ लिख नहीं रहे हैं । नए लेखकों के साथ समस्या ये है कि वो लिखने की जल्दी में है । हर बार हर व्यक्ति ये कहता नज़र आता है कि पाठक नहीं है । अगर पाठक नहीं है तो अऩुवाद कैसे बिक रहा है ? अच्छा बताया और परोसा जाये तो बिलकुल चलेगा । जरुरी है कि लेखक छपास पर नहीं लिखास पर ध्यान दे और प्रकाशक स्थापित लेखकों से उबरे, ये कह कर कि हिंदी का बाज़ार नहीं है , चुप हो कर बैठ जाना कोई समाधान नहीं है ।
पंकज ने खासतौर से हिंदी नाटकों के बने बनाये प्रतिमानों की इशारे करते हुए कहा कि हमारे नाटकों को ही लें तो नया कितना लिखा जा रहा है , पुराना ही घसीटा जा रहा है ।
दरअसल ये बात कुछ कुछ ठीक भी लगती है , अगर आप मंडी हाऊस और श्रीराम सेंटर के बाहर से अक्सर निकलते हैं तो वहां अभी भी पुराने नाटकों के बोर्ड लगे ज्यादा पाएंगे । हांलाकि ये सच है कि ये नाटक आज भी प्रासंगिक है । लेकिन कहीं ना कहीं इसके पीछे एक बुर्जुवा सोच तो नज़र ही आती है कि आप उन्हीं नाटकों को बार बार खेल रहे हैं । फेस्टिवल्स में कुछ एक्सपेरीमेंट जरुर होते रहते हैं ।
लेकिन ये सच सिर्फ हिंदी की पब्लिशिंग का ही नहीं है । जहां तक अन्य भारतीय भाषा-भाषी लोगों की बात है तो एक खतरा भाषा के बोली बन जाने की तरफ भी इशारा करता है । कहने का मतलब यह है कि अपनी भाषा में लिखना अब ज्यादा देखने को नहीं मिल रहा है । मराठी की ही बात करें तो नये मराठी परिवारों मे बहुत ही कम लोग हैं , जो सच में मराठी पढ़ना या लिखना जानते हैं , हां वो महाराष्ट्र में पैदा होने के कारण उसे बोल अवश्य लेते हैं । जैसे कोई भी पंजाबी या उत्तर भारतीय जिसका जन्म मुंबई मे हुआ है और उसके सरोकार राज्य से जुड़े हैं तो वो भाषा बोल लेता है ।
मराठी भाषी समस्याएँ :
पुणे में जन्मे और सॉफ्टवेयर की दुनिया छोड़ कर फिल्म इंडस्ट्री मे बतौर फिल्मकार सालों से काम कर रहे चिन्मय ओगले एक कोंकणस्थ ब्राह्ण परिवार से आते हैं । हिंदी , अंग्रेज़ी के अलावा ये अपनी मातृभाषा मराठी के पंडित कहे जा सकते हैं । चिन्मय के विचार में किसी भी भाषा का नज़र में आना या फिर महत्वपूर्ण होने ना होने के लिये आप सिर्फ लेखकों पर ही निर्भर नहीं रह सकते , सिर्फ साहित्य के लेखक और पाठक भाषा के दिवालियेपन के लिये जिम्मेदार नहीं होते । इसमें उस बिजनेस क्लास की एक खास भूमिका होती है जो अपना सामान बेचने के लिये भाषा से एक्सपेरीमेंट करते हैं । चिन्मय एकदम बिंदास लहज़े मे ये बात कहते हैं कि मराठी लोग बिजनेस में कम ही देखने को मिलेंगे । आप दिल्ली या दूसरी जगहों पर साऊथ इंडियन , नार्थ इंडियन रेस्ट्रां आसानी से देखते हैं । कितने गैर मराठी भाषी शहरों मे सच में आपको कोई अच्छी मराठी खाने-पीने की दुकान दिखेगी । आप लंदन , न्यूयार्क , बैंगलौर जैसे शहरों को कुछ देर भूल जाएं जहां मराठी युवा आई.टी सेक्टर में काम करता है । जिस तरह से कोई बाहरी क्षेत्र का व्यक्ति दूसरे की खाने की डिश का रैस्ट्रां नही खोलेगा । ठीक उसी तरह वो आपकी भाषा को अव्वल बनाने में भी कोई रुचि नहीं दिखाएगा । जब घरों मे मां-बाप ही अंग्रेज़ी या कोई और भाषा पढ़ेंगे या बोलेंगे तो बच्चे को कैसे कह सकेंगे की मराठी समाचार पढ़ो ? ऐसा ही हाल मराठी सिनेमा या साहित्य का भी है ।
भाषाओं मे एक समृद्ध भाषा पंजाबी भी है । पंजाबी गानों में , शायरी में , साहित्य में एक समृद्द भाषा है । फिर भी गुरुमुखी पढ़ने वाले लोगों की संख्या बेहद कम हैं ।
पंजाबी(गुरुमुखी) भाषा की वर्तमान स्थिति :
पेशे से डॉक्टर अजीता गिल हंसते हुए कहती हैं कि पंजाबी दुनिया के अकेले ऐसे प्राणी हैं , जो दारु पीते ही अंग्रेज़ी बोलने लगते हैं । उन्होंने अपने निजी जीवन में ऐसे बेहद कम लोग देखे हैं जो भाषा को लेकर संजीदा है । खासतौर से उन्होंने एक भी ऐसा युवा हाल-फिलहाल में नही देखा जो पंजाबी सीखने के बाद भी उसे ही करियर बनाना चाहता हो । इसकी वजह गिनाते हुए वो कहती हैं कि पंजाब में जो विदेश जाने की होड़ है उसके आगे उन्हें अपनी भाषा एक सेकेंड लैंग्वेज ज्यादा लगती है । स्कूली शिक्षा के शिक्षकों की ओर उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि सरकारी गैर सरकारी स्कूली शिक्षा के दौरान भाषा के शिक्षक पढ़ाने में जब रुचि ही नहीं दिखाएंगे तो बच्चे को दिलचस्पी कैसे पैदा होगी ?
दरअसल भारतीय भाषाओं के पिछड़ेपन के पीछे , उस भाषा में उचित रोज़गार की कमी को माना जाता था ? लेकिन अब इस लिहाज़ से ये एक भ्रामक मिथ ज्यादा नज़र आता है । रीजनल मीडिया जिस तेज़ी से ग्रो किया है तो उससे रोजगार भी जन्मा है और एक नये बाज़ार ने भी जन्म लिया है ? भाषा के नाम पर अभी भी हम राज्यों को अलग होते या लड़ते हुए देखते हैं । लेकिन कहीं ना कहीं सुपरकूल होने की तमीज़ में हम उस भाषा को भूलते जा रहे हैं जो हमारी अपनी है । भाषा आप सहूलियत के हिसाब से चुन सकते हैं , आप कह सकते हैं कि एक धर्म की तरह आप जन्म किसी भी भाषिक परिवार में ले सकते हैं । फिर उसे अपनी पसंद के हिसाब से बड़े होने पर चुन सकते हैं । आखिर इसमें गलत क्या है ? सच पूछिए तो गलत कुछ है भी नहीं । बस एक हल्की सी टीस है । जिस तरह घरों से दादी-नानी खत्म हो गई ? संयुक्त परिवार खत्म हो गये तो वैसे ही हमारी भाषा भी खत्म हो जाएगी तो क्या बुरा होगा ? भाषा के जाने के साथ एक पूरा संस्कार भी चला जाता है ।
टीवी मीडिया और हिंदी :
टेलीविज़न मीडिया में एक नामचीन एंकर के तौर पर काम करने वाली वंदना झा एक तेज़-तर्रार पत्रकार हैं ।
बिहार के दरभंगा ज़िले से दिल्ली आकर खुद को विपरीत परिस्थितियों के लिहाज़ से ढ़ालना उनके लिये आसान नहीं था । हिंदी में काम कर रहे टेलीविज़न मीडिया के लोगों के बारे में टिप्पणी करते हुए वो कहती हैं कि फिल्मी दुनिया के कलाकारों की तरह हिंदी के पत्रकारों को भी अंग्रेज़ी मे शेखी झाड़ने का शौक है । फेसबुक या ट्विटर पर हिंदी को रोमन में लिखना एक आम उदाहरण है । जहां तक पत्रकारिता का सवाल है तो वो तो टीवी में पहले भी टी.आर.पी और पैसों की वजह से खत्म हो चुकी थी । अब तो सिर्फ बिजनैस या धंधा बचा है । टेलीविज़न में अंग्रेज़ी के मुहावरों का जिक्र बेहद ज्यादा होता है । जो इससे लड़ने की कोशिश करता है वो पिछड़ा कहलाता है । वंदना उदाहरण के तौर पर कहती हैं कि सर्वेक्षण के नाम पर सर्वे और वातावरण के नाम पर इनवॉयरोनमेंट लिखने से आप टीवी के पत्रकार हो जाएंगे । वर्ना बॉस लोग ये कहते पाए जाते हैं कि अखबार में नौकरी कर लो ! कई वक्ताओं का उच्चारण गलत होने के बावजूद उसे चलने दिया जाता है , लेकिन अगर किसी ने हिंदी के साधारण शब्दों का इस्तेमाल भी कर दिया तो उसे क्लिष्ट कहकर पहले ही दरकिनार कर दिया जाता है ।
वंदना के मुताबिक कुछ ऐसा ही हाल हिंदी संगोष्ठियों का भी है । जो अपनी ज़ीरो मार्केटिंग की वजह से सिर्फ समोसों के सेवकों की वजह से भरी रहती है ।
इन बातों पर गौर करें तो सच में कई भाषा के ऐसे भी विद्दान हैं जो बदलना नहीं चाहते हैं । उन्होंने ठान रखी है कि वो भाषा का बेड़ागर्क करके रहेंगे । अगर हिंदी का कोई शब्द गलत लिख दिया जाये तो वो अपना पंडित्व झाड़ते नज़र आ जाते हैं । लेकिन ठेलों पर अपनी चिथड़े छाप अंग्रेज़ी मे कंधे उच्का उच्का कर या या करते रहेंगे । आखिर किसी भी भारतीय भाषा की वो स्थिति क्यों आने दी जायें कि उसे संवारना नामुमकिन सा हो जाये ? ये खिलवाड़ कैसे सालों से हो रहा है और आखिर किस नाम पर ?
अंग्रेजी के मिथ और हिंदी का राजनीतिकरण :
एक बड़े अंग्रेज़ी ग्रुप की फीचर एडिटर पूजा मदहोक इसी पर रोशनी डालते हुए कहती हैं कि पिछले कुछ दशकों से भाषा का राजनीतिकरण जिस तरह से हुआ है । उसकी वजह से एक खास वर्ग भाषा को लेकर उदासीन सा बना हुआ है । खासतौर से भाषा के नाम पर जैसे अस्सी और नब्बे के दशक में हमे बरगलाया जाता रहा है । उससे कई बार आज भी अच्छी हिंदी सुनने पर हम उसकी तुलना किसी राजनीतिक पार्टी के वक्ताओं से करने लगते हैं ।
दूसरा अहम कारण मुझे लगता है कूल होना या लगना । भले ही आप कूल हों ना लेकिन आप अंग्रेज़ी के माध्यम से कूल लगने का नाटक तो कर ही सकते हैं । वैसे भी ये हमारी मातृभाषा नहीं है तो बोलते वक्त इसका मर्डर करना बेहद आसान सा हो जाता है । जबकि हिंदी में अगर कोई शब्द या संवाद आप गलत बोल जाएं तो भाषा के जानकार आपका मज़ाक उड़ा देते हैं ।
दरअसल ये एक सच भी है कि आखिर हम क्यों एक बंगाली भाषी व्यक्ति से या दक्षिण भारतीय व्यक्ति से हिंदी के उच्चारण पर बहस करते हैं । क्या उनकी कोशिश ही काबिलेगौर नहीं है ?
कुछ लोग कह सकते हैं कि उन्हें वही हिंदी चाहिए जो क्लिष्ट ना हो और भारत सरकार के बैंकों के फार्मों , रेलवे आरक्षण और अन्य संस्थानों मे इसका जो रुप देखने में आता है वो कई बार बेहद डराने वाला सा होता है ।
दुनिया की प्राचीनतम और चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा जिसके वक्ता हर दशक में बड़ रहे हैं । हिंदी-हिंदुस्तानी या किसी भी दूसरी भारतीय भाषा के विस्तार की हद उसका साहित्य , सिनेमा , पत्रकारिता , जैसे क्षेत्रों के अलावा आम-जन तय करते हैं । जो विभिन्न भाषाओं की मिलावट से किसी भी भाषा का रुप आज हम देखते हैं , वो मार्केटिंग-विज्ञापन के अलावा बाज़ार की मांग ने भी तय किये हैं ।
ऐसे बहुत से पक्ष हो सकते हैं जिन पर इस लेख में रोशनी नहीं डाली गई । ऐसा अनजाने और जानकर भी किया गया है । वहां कम से कम आप अपने अध्ययन और टिप्पणी का इस्तेमाल कर सकते हैं । भाषा की इस जंग मे हर साल जब मैं हिंदी दिवस का आयोजन होते देखता हूं तो मुझे बुरा लगता है । ये शायद पहला ऐसा दिवस है जो विज्ञापन की दुनिया से अछूता रहा है । वर्ना मडर्स डे , वैलेंटाइन डे इत्यादि को उत्पाद या प्रोडक्ट बनाकर बाज़ार बेच रहा है । आखिर ऐसा क्यों ? सोचने के लिये अनंत आकाश है ! कम से कम इस दौर में ‘बिग बॉस’ का घर तो है जहां हिंदी ना बोलने वाले को दंडित किया जाता है !
दूसरी अहम बात ये है कि इसमें हमने भाषा के दिग्गजों से टिप्पणी नहीं ली है । हमने टिप्पणी उन लोगों से ली है जो हिंदी के लिये काम करते हैं या उससे खास तरह का जुड़ाव महसूस करते हैं ।
यह एक अजीब सी विडंबना है कि आप हिंदी संवाद लिखे बिना ना तो फिल्म बेच सकते हैं और ना ही साबुन फिर भी हिंदी खासतौर से देवनागरी में लिखना या पढ़ना प्रकाशकों की नज़र मे कम होता जा रहा है । कम से कम किसी लेखक के सामने बैठ कर उसे तो यही सलाह दी जाती है कि रॉयलटी ज्यादा लेनी है तो किसी दूसरी भाषा में लिखो । मेरी एक मित्र ने भी पिछले दिनों मुझे कुछ ऐसा ही करने की सलाह दी । और कारण जानने चाहे , मार्केटिंग के पहलुओं पर नज़र डालें तो आज के दौर में हिंदी मार्केटिंग मे बेहद पिछड़ी है । आप सड़कों पर मुंबई-दिल्ली के मशहूर स्ट्रीट्स पर निकल जाईये तो वहां बिछी किताबों के जाल में हिंदी मे कुछ पुराने उपन्यासों या जासूसी के नावलों , ज्योतिषी को छोड़ कर शायद ही आपको कुछ दिलचस्प सा नज़र आ जाएगा । क्या हिंदी का नया लेखक कुछ लिख ही नहीं रहा है या फिर उसे लोगों तक पहुंचाने की कोशिशें ठीक तरह से नहीं हो रही हैं । क्योंकि जब सामने दिख ही नहीं रहा तो कोई राह चलते से लेकर लैंडमार्क सरीखे बड़े ब्रांड मे भी उसे एक कोने में हिंदी की किताबों का डिस्प्ले मिलता है । जब दिखोगे नहीं तो बिकोगे कैसे ?
हिंदी पब्लिशिंग की दुनिया :
ऐसे ही सवाल का एक सटीक जवाब दिया लेखक पंकज रामेंदु ने , दो किताबों के लेखक (रेहड़ी-कविता संग्रह , दर दर गंगे-यात्रा/कहानी संस्मरण) और पेशे से पत्रकार और दिल से टीचर पंकज की टिप्पणी इसमें खासतौर से मायने रखती है । पंकज के अनुसार “जितना दोष प्रकाशकों का है , उतना ही गलत लेखक भी है । प्रकाशक सोचता है कि उसने किताब छाप दी , उसकी इतिश्री हो गई , वो चाहता है कि लेखक लिख भी ले और मार्केटिंग भी कर ले । दूसरी तरफ लेखक इस लिहाज से दोषी है कि वो नए के रास्ते में रोड़ा बना हुआ है । हर बार पुराने स्थापित लेखक ये कहते नज़र आ रहे हैं कि नये कुछ लिख नहीं रहे हैं । नए लेखकों के साथ समस्या ये है कि वो लिखने की जल्दी में है । हर बार हर व्यक्ति ये कहता नज़र आता है कि पाठक नहीं है । अगर पाठक नहीं है तो अऩुवाद कैसे बिक रहा है ? अच्छा बताया और परोसा जाये तो बिलकुल चलेगा । जरुरी है कि लेखक छपास पर नहीं लिखास पर ध्यान दे और प्रकाशक स्थापित लेखकों से उबरे, ये कह कर कि हिंदी का बाज़ार नहीं है , चुप हो कर बैठ जाना कोई समाधान नहीं है ।
पंकज ने खासतौर से हिंदी नाटकों के बने बनाये प्रतिमानों की इशारे करते हुए कहा कि हमारे नाटकों को ही लें तो नया कितना लिखा जा रहा है , पुराना ही घसीटा जा रहा है ।
दरअसल ये बात कुछ कुछ ठीक भी लगती है , अगर आप मंडी हाऊस और श्रीराम सेंटर के बाहर से अक्सर निकलते हैं तो वहां अभी भी पुराने नाटकों के बोर्ड लगे ज्यादा पाएंगे । हांलाकि ये सच है कि ये नाटक आज भी प्रासंगिक है । लेकिन कहीं ना कहीं इसके पीछे एक बुर्जुवा सोच तो नज़र ही आती है कि आप उन्हीं नाटकों को बार बार खेल रहे हैं । फेस्टिवल्स में कुछ एक्सपेरीमेंट जरुर होते रहते हैं ।
लेकिन ये सच सिर्फ हिंदी की पब्लिशिंग का ही नहीं है । जहां तक अन्य भारतीय भाषा-भाषी लोगों की बात है तो एक खतरा भाषा के बोली बन जाने की तरफ भी इशारा करता है । कहने का मतलब यह है कि अपनी भाषा में लिखना अब ज्यादा देखने को नहीं मिल रहा है । मराठी की ही बात करें तो नये मराठी परिवारों मे बहुत ही कम लोग हैं , जो सच में मराठी पढ़ना या लिखना जानते हैं , हां वो महाराष्ट्र में पैदा होने के कारण उसे बोल अवश्य लेते हैं । जैसे कोई भी पंजाबी या उत्तर भारतीय जिसका जन्म मुंबई मे हुआ है और उसके सरोकार राज्य से जुड़े हैं तो वो भाषा बोल लेता है ।
मराठी भाषी समस्याएँ :
पुणे में जन्मे और सॉफ्टवेयर की दुनिया छोड़ कर फिल्म इंडस्ट्री मे बतौर फिल्मकार सालों से काम कर रहे चिन्मय ओगले एक कोंकणस्थ ब्राह्ण परिवार से आते हैं । हिंदी , अंग्रेज़ी के अलावा ये अपनी मातृभाषा मराठी के पंडित कहे जा सकते हैं । चिन्मय के विचार में किसी भी भाषा का नज़र में आना या फिर महत्वपूर्ण होने ना होने के लिये आप सिर्फ लेखकों पर ही निर्भर नहीं रह सकते , सिर्फ साहित्य के लेखक और पाठक भाषा के दिवालियेपन के लिये जिम्मेदार नहीं होते । इसमें उस बिजनेस क्लास की एक खास भूमिका होती है जो अपना सामान बेचने के लिये भाषा से एक्सपेरीमेंट करते हैं । चिन्मय एकदम बिंदास लहज़े मे ये बात कहते हैं कि मराठी लोग बिजनेस में कम ही देखने को मिलेंगे । आप दिल्ली या दूसरी जगहों पर साऊथ इंडियन , नार्थ इंडियन रेस्ट्रां आसानी से देखते हैं । कितने गैर मराठी भाषी शहरों मे सच में आपको कोई अच्छी मराठी खाने-पीने की दुकान दिखेगी । आप लंदन , न्यूयार्क , बैंगलौर जैसे शहरों को कुछ देर भूल जाएं जहां मराठी युवा आई.टी सेक्टर में काम करता है । जिस तरह से कोई बाहरी क्षेत्र का व्यक्ति दूसरे की खाने की डिश का रैस्ट्रां नही खोलेगा । ठीक उसी तरह वो आपकी भाषा को अव्वल बनाने में भी कोई रुचि नहीं दिखाएगा । जब घरों मे मां-बाप ही अंग्रेज़ी या कोई और भाषा पढ़ेंगे या बोलेंगे तो बच्चे को कैसे कह सकेंगे की मराठी समाचार पढ़ो ? ऐसा ही हाल मराठी सिनेमा या साहित्य का भी है ।
भाषाओं मे एक समृद्ध भाषा पंजाबी भी है । पंजाबी गानों में , शायरी में , साहित्य में एक समृद्द भाषा है । फिर भी गुरुमुखी पढ़ने वाले लोगों की संख्या बेहद कम हैं ।
पंजाबी(गुरुमुखी) भाषा की वर्तमान स्थिति :
पेशे से डॉक्टर अजीता गिल हंसते हुए कहती हैं कि पंजाबी दुनिया के अकेले ऐसे प्राणी हैं , जो दारु पीते ही अंग्रेज़ी बोलने लगते हैं । उन्होंने अपने निजी जीवन में ऐसे बेहद कम लोग देखे हैं जो भाषा को लेकर संजीदा है । खासतौर से उन्होंने एक भी ऐसा युवा हाल-फिलहाल में नही देखा जो पंजाबी सीखने के बाद भी उसे ही करियर बनाना चाहता हो । इसकी वजह गिनाते हुए वो कहती हैं कि पंजाब में जो विदेश जाने की होड़ है उसके आगे उन्हें अपनी भाषा एक सेकेंड लैंग्वेज ज्यादा लगती है । स्कूली शिक्षा के शिक्षकों की ओर उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा कि सरकारी गैर सरकारी स्कूली शिक्षा के दौरान भाषा के शिक्षक पढ़ाने में जब रुचि ही नहीं दिखाएंगे तो बच्चे को दिलचस्पी कैसे पैदा होगी ?
दरअसल भारतीय भाषाओं के पिछड़ेपन के पीछे , उस भाषा में उचित रोज़गार की कमी को माना जाता था ? लेकिन अब इस लिहाज़ से ये एक भ्रामक मिथ ज्यादा नज़र आता है । रीजनल मीडिया जिस तेज़ी से ग्रो किया है तो उससे रोजगार भी जन्मा है और एक नये बाज़ार ने भी जन्म लिया है ? भाषा के नाम पर अभी भी हम राज्यों को अलग होते या लड़ते हुए देखते हैं । लेकिन कहीं ना कहीं सुपरकूल होने की तमीज़ में हम उस भाषा को भूलते जा रहे हैं जो हमारी अपनी है । भाषा आप सहूलियत के हिसाब से चुन सकते हैं , आप कह सकते हैं कि एक धर्म की तरह आप जन्म किसी भी भाषिक परिवार में ले सकते हैं । फिर उसे अपनी पसंद के हिसाब से बड़े होने पर चुन सकते हैं । आखिर इसमें गलत क्या है ? सच पूछिए तो गलत कुछ है भी नहीं । बस एक हल्की सी टीस है । जिस तरह घरों से दादी-नानी खत्म हो गई ? संयुक्त परिवार खत्म हो गये तो वैसे ही हमारी भाषा भी खत्म हो जाएगी तो क्या बुरा होगा ? भाषा के जाने के साथ एक पूरा संस्कार भी चला जाता है ।
टीवी मीडिया और हिंदी :
टेलीविज़न मीडिया में एक नामचीन एंकर के तौर पर काम करने वाली वंदना झा एक तेज़-तर्रार पत्रकार हैं ।
बिहार के दरभंगा ज़िले से दिल्ली आकर खुद को विपरीत परिस्थितियों के लिहाज़ से ढ़ालना उनके लिये आसान नहीं था । हिंदी में काम कर रहे टेलीविज़न मीडिया के लोगों के बारे में टिप्पणी करते हुए वो कहती हैं कि फिल्मी दुनिया के कलाकारों की तरह हिंदी के पत्रकारों को भी अंग्रेज़ी मे शेखी झाड़ने का शौक है । फेसबुक या ट्विटर पर हिंदी को रोमन में लिखना एक आम उदाहरण है । जहां तक पत्रकारिता का सवाल है तो वो तो टीवी में पहले भी टी.आर.पी और पैसों की वजह से खत्म हो चुकी थी । अब तो सिर्फ बिजनैस या धंधा बचा है । टेलीविज़न में अंग्रेज़ी के मुहावरों का जिक्र बेहद ज्यादा होता है । जो इससे लड़ने की कोशिश करता है वो पिछड़ा कहलाता है । वंदना उदाहरण के तौर पर कहती हैं कि सर्वेक्षण के नाम पर सर्वे और वातावरण के नाम पर इनवॉयरोनमेंट लिखने से आप टीवी के पत्रकार हो जाएंगे । वर्ना बॉस लोग ये कहते पाए जाते हैं कि अखबार में नौकरी कर लो ! कई वक्ताओं का उच्चारण गलत होने के बावजूद उसे चलने दिया जाता है , लेकिन अगर किसी ने हिंदी के साधारण शब्दों का इस्तेमाल भी कर दिया तो उसे क्लिष्ट कहकर पहले ही दरकिनार कर दिया जाता है ।
वंदना के मुताबिक कुछ ऐसा ही हाल हिंदी संगोष्ठियों का भी है । जो अपनी ज़ीरो मार्केटिंग की वजह से सिर्फ समोसों के सेवकों की वजह से भरी रहती है ।
इन बातों पर गौर करें तो सच में कई भाषा के ऐसे भी विद्दान हैं जो बदलना नहीं चाहते हैं । उन्होंने ठान रखी है कि वो भाषा का बेड़ागर्क करके रहेंगे । अगर हिंदी का कोई शब्द गलत लिख दिया जाये तो वो अपना पंडित्व झाड़ते नज़र आ जाते हैं । लेकिन ठेलों पर अपनी चिथड़े छाप अंग्रेज़ी मे कंधे उच्का उच्का कर या या करते रहेंगे । आखिर किसी भी भारतीय भाषा की वो स्थिति क्यों आने दी जायें कि उसे संवारना नामुमकिन सा हो जाये ? ये खिलवाड़ कैसे सालों से हो रहा है और आखिर किस नाम पर ?
अंग्रेजी के मिथ और हिंदी का राजनीतिकरण :
एक बड़े अंग्रेज़ी ग्रुप की फीचर एडिटर पूजा मदहोक इसी पर रोशनी डालते हुए कहती हैं कि पिछले कुछ दशकों से भाषा का राजनीतिकरण जिस तरह से हुआ है । उसकी वजह से एक खास वर्ग भाषा को लेकर उदासीन सा बना हुआ है । खासतौर से भाषा के नाम पर जैसे अस्सी और नब्बे के दशक में हमे बरगलाया जाता रहा है । उससे कई बार आज भी अच्छी हिंदी सुनने पर हम उसकी तुलना किसी राजनीतिक पार्टी के वक्ताओं से करने लगते हैं ।
दूसरा अहम कारण मुझे लगता है कूल होना या लगना । भले ही आप कूल हों ना लेकिन आप अंग्रेज़ी के माध्यम से कूल लगने का नाटक तो कर ही सकते हैं । वैसे भी ये हमारी मातृभाषा नहीं है तो बोलते वक्त इसका मर्डर करना बेहद आसान सा हो जाता है । जबकि हिंदी में अगर कोई शब्द या संवाद आप गलत बोल जाएं तो भाषा के जानकार आपका मज़ाक उड़ा देते हैं ।
दरअसल ये एक सच भी है कि आखिर हम क्यों एक बंगाली भाषी व्यक्ति से या दक्षिण भारतीय व्यक्ति से हिंदी के उच्चारण पर बहस करते हैं । क्या उनकी कोशिश ही काबिलेगौर नहीं है ?
कुछ लोग कह सकते हैं कि उन्हें वही हिंदी चाहिए जो क्लिष्ट ना हो और भारत सरकार के बैंकों के फार्मों , रेलवे आरक्षण और अन्य संस्थानों मे इसका जो रुप देखने में आता है वो कई बार बेहद डराने वाला सा होता है ।
दुनिया की प्राचीनतम और चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा जिसके वक्ता हर दशक में बड़ रहे हैं । हिंदी-हिंदुस्तानी या किसी भी दूसरी भारतीय भाषा के विस्तार की हद उसका साहित्य , सिनेमा , पत्रकारिता , जैसे क्षेत्रों के अलावा आम-जन तय करते हैं । जो विभिन्न भाषाओं की मिलावट से किसी भी भाषा का रुप आज हम देखते हैं , वो मार्केटिंग-विज्ञापन के अलावा बाज़ार की मांग ने भी तय किये हैं ।
ऐसे बहुत से पक्ष हो सकते हैं जिन पर इस लेख में रोशनी नहीं डाली गई । ऐसा अनजाने और जानकर भी किया गया है । वहां कम से कम आप अपने अध्ययन और टिप्पणी का इस्तेमाल कर सकते हैं । भाषा की इस जंग मे हर साल जब मैं हिंदी दिवस का आयोजन होते देखता हूं तो मुझे बुरा लगता है । ये शायद पहला ऐसा दिवस है जो विज्ञापन की दुनिया से अछूता रहा है । वर्ना मडर्स डे , वैलेंटाइन डे इत्यादि को उत्पाद या प्रोडक्ट बनाकर बाज़ार बेच रहा है । आखिर ऐसा क्यों ? सोचने के लिये अनंत आकाश है ! कम से कम इस दौर में ‘बिग बॉस’ का घर तो है जहां हिंदी ना बोलने वाले को दंडित किया जाता है !
Published on December 14, 2014 00:41
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children-books, hindi, hindi-books, indian-media, literary, marathi, media, punjabi, regional, thoughts, tushar-upreti, writing
December 12, 2014
#kids बच्चों का दुख
बहुत से लोगों को मैंने अक्सर ये कहते देखा है कि तुम बच्चे हो , तुम्हें क्या टेंशन ? तुम्हें क्या दुख है ? मुझे कहीं ना कहीं ऐसा लगता है कि ऐसा कहकर एक तरफ हम अपनी नासमझी को दर्शातें हैं बल्कि कहीं ना कहीं इस बात से बेखबर होते हैं कि हमारे बच्चे आखिर किस मानसिक परेशानी से गुज़र रहे हैं । अक्सर बड़े ये कहकर अपनी गलती पर पर्दा डाल देते हैं कि ‘हम भी बड़े पैदा नहीं हुए या उन्होंने भी बचपन देखा है ।‘
उनकी बात ये बात फैक्टुअल स्तर पर तो बिलकुल सही है लेकिन भावना के स्तर पर उतनी ही गलत है । कारण कई गिनाये जा सकते हैं । जिसमें ज्वाइंट फैमली की परवरिश से लेकर आजकल के टैक्नोलोजिकल विकास तक हो सकते हैं । मुझे ये लिखने कि आवश्यकता इसलिये महसूस हुई क्योंकि आज के अखबार में मैंने एक खबर पड़ी । खबर कुछ इस प्रकार थी कि फरीदाबाद के एक स्कूल में होमवर्क ना करने पर टीचर से डांट से घबराये एक बच्चे ने पेट्रोल डाल कर खुद को आग लगा ली ।
इस सारे मामले में लोग या तो टीचर या फिर उस स्कूल को जिम्मेदार ठहराने लग गये जहां ये घटना घटी । लेकिन क्या किसी ने भी ये सोचने की कोशिश करी कि सच में जिस बच्चे ने जो अभी सिर्फ 8वीं क्लास में पड़ता था ये कदम क्यों उठाया ?
कारण ये था कि टीचर ने अपनी डांट मे एक शब्द का इस्तेमाल किया और कहा कि तुम चपरासी बनोगे । ये एक ऐसा सामाजिक सच है कि चपरासी को हम कार्य की सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचले स्तर का प्राणी समझते हैं । बच्चे के दुख का कारण ये शब्द बना ।
अब ज़रा इस खबर को पलटते हैं और ये सोचने की कोशिश करते हैं कि अगर उसी कक्षा के किसी बच्चे के पिता चपरासी हों तो ? उस बच्चे की भावना का आहत होना भी स्वाभाविक है और कहीं ना कहीं अपने पिता को एक लूज़र की नज़र से देखना भी ।
यहां जरुरत किसी एक व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराने की नहीं है । बल्कि यहां जरुरत है उस शिक्षा प्रणाली से ऊपर उठने की जिसे हमने सच में बच्चों के सामने रखा है । बर्ताव के स्तर पर हम उन बच्चों के साथ अक्सर स्कूल कॉलेज में अन्याय होते देखते हैं ,जो आर्थिक तौर पर कमज़ोर बैकग्राउंड से आते हैं । उन्हें हम जिंदगी के हर पायदान पर अपमानित करते हैं या होते हुए देखते हैं ।
अब खबर पर वापिस आये और ये सोचे हैं कि वो बच्चा कितना अकेला , दुखी होगा जिसने खुद पर पेट्रोल डालकर आग लगाई । उसके सामने हमने होमवर्क नाम का राक्षस इतना भयंकर और डरावना बनाकर पेश किया कि उसे उसकी सफलता-या-असफलता में अपनी जिंदगी बिखरती हुई दिखी ।
ऐसे में दोस्तों, मां-बाप, टीचर्स को छोड़ उसने ये कदम उठाया । मां-बाप बच्चे के भावनात्मक विकास में उतने ही जिम्मेदार हैं , जितने की वो टीचर्स , मेरी नज़र मे वो भी उतने ही जिम्मेदार हैं और अगर हम दंड से मामला निपटाना चाहते हैं तो इसमें उनका भी हिस्सा होना चाहिए ।
अपने बच्चों के बैग चैक करना , उनकी दिनचर्या पूछना , स्कूल के टीचर्स से लगातार संपर्क मे रहना ना कि तब जब पेरेंट टीचर मीटिंग हो ।
हमें इन सबसे आगे बड़कर बच्चों के उस दुख को समझना चाहिए , जो जाने-अनजाने में उन्हें मिलता है । ताकि एक बेहतर बचपन पनप सके और एक स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास हो सके वर्ना बच्चे कम हैं और तेल बाज़ार मे बहुत ज्यादा है ।
उनकी बात ये बात फैक्टुअल स्तर पर तो बिलकुल सही है लेकिन भावना के स्तर पर उतनी ही गलत है । कारण कई गिनाये जा सकते हैं । जिसमें ज्वाइंट फैमली की परवरिश से लेकर आजकल के टैक्नोलोजिकल विकास तक हो सकते हैं । मुझे ये लिखने कि आवश्यकता इसलिये महसूस हुई क्योंकि आज के अखबार में मैंने एक खबर पड़ी । खबर कुछ इस प्रकार थी कि फरीदाबाद के एक स्कूल में होमवर्क ना करने पर टीचर से डांट से घबराये एक बच्चे ने पेट्रोल डाल कर खुद को आग लगा ली ।
इस सारे मामले में लोग या तो टीचर या फिर उस स्कूल को जिम्मेदार ठहराने लग गये जहां ये घटना घटी । लेकिन क्या किसी ने भी ये सोचने की कोशिश करी कि सच में जिस बच्चे ने जो अभी सिर्फ 8वीं क्लास में पड़ता था ये कदम क्यों उठाया ?
कारण ये था कि टीचर ने अपनी डांट मे एक शब्द का इस्तेमाल किया और कहा कि तुम चपरासी बनोगे । ये एक ऐसा सामाजिक सच है कि चपरासी को हम कार्य की सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचले स्तर का प्राणी समझते हैं । बच्चे के दुख का कारण ये शब्द बना ।
अब ज़रा इस खबर को पलटते हैं और ये सोचने की कोशिश करते हैं कि अगर उसी कक्षा के किसी बच्चे के पिता चपरासी हों तो ? उस बच्चे की भावना का आहत होना भी स्वाभाविक है और कहीं ना कहीं अपने पिता को एक लूज़र की नज़र से देखना भी ।
यहां जरुरत किसी एक व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराने की नहीं है । बल्कि यहां जरुरत है उस शिक्षा प्रणाली से ऊपर उठने की जिसे हमने सच में बच्चों के सामने रखा है । बर्ताव के स्तर पर हम उन बच्चों के साथ अक्सर स्कूल कॉलेज में अन्याय होते देखते हैं ,जो आर्थिक तौर पर कमज़ोर बैकग्राउंड से आते हैं । उन्हें हम जिंदगी के हर पायदान पर अपमानित करते हैं या होते हुए देखते हैं ।
अब खबर पर वापिस आये और ये सोचे हैं कि वो बच्चा कितना अकेला , दुखी होगा जिसने खुद पर पेट्रोल डालकर आग लगाई । उसके सामने हमने होमवर्क नाम का राक्षस इतना भयंकर और डरावना बनाकर पेश किया कि उसे उसकी सफलता-या-असफलता में अपनी जिंदगी बिखरती हुई दिखी ।
ऐसे में दोस्तों, मां-बाप, टीचर्स को छोड़ उसने ये कदम उठाया । मां-बाप बच्चे के भावनात्मक विकास में उतने ही जिम्मेदार हैं , जितने की वो टीचर्स , मेरी नज़र मे वो भी उतने ही जिम्मेदार हैं और अगर हम दंड से मामला निपटाना चाहते हैं तो इसमें उनका भी हिस्सा होना चाहिए ।
अपने बच्चों के बैग चैक करना , उनकी दिनचर्या पूछना , स्कूल के टीचर्स से लगातार संपर्क मे रहना ना कि तब जब पेरेंट टीचर मीटिंग हो ।
हमें इन सबसे आगे बड़कर बच्चों के उस दुख को समझना चाहिए , जो जाने-अनजाने में उन्हें मिलता है । ताकि एक बेहतर बचपन पनप सके और एक स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास हो सके वर्ना बच्चे कम हैं और तेल बाज़ार मे बहुत ज्यादा है ।
Published on December 12, 2014 00:22
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children-books, hindi, hindi-books, tushar-upreti
November 2, 2014
Demographic differences
We fight over demographic differences all over the world. We have the tendency to reject and accept. Do borders and nations really matters ? Being human is sufficient?Global village as technology says, but we really believe in it ?
I often see people rather discouraging or neglecting the values taught in other countries,states and district ! For blacks we are white , for white we are brown and black.For Americans we are Asians , for Asians they are westerner .Just holding the hands with technology we can't call our self liberals?
Actually it's a matter of comfort. It's like when a train is crowded and we are standing on the edge , we shout on those who are trying to come inside the train ,bargaining with us , so that we let him/her in.And when we let him in , he is now standing on the edge and we are pushed backwards and now he is shouting on those who are trying to enter. But we all came from the same journey.No one chooses his/her demography and Why we forget after sometime that "We all are in the same train."The Days Of Childhood
I often see people rather discouraging or neglecting the values taught in other countries,states and district ! For blacks we are white , for white we are brown and black.For Americans we are Asians , for Asians they are westerner .Just holding the hands with technology we can't call our self liberals?
Actually it's a matter of comfort. It's like when a train is crowded and we are standing on the edge , we shout on those who are trying to come inside the train ,bargaining with us , so that we let him/her in.And when we let him in , he is now standing on the edge and we are pushed backwards and now he is shouting on those who are trying to enter. But we all came from the same journey.No one chooses his/her demography and Why we forget after sometime that "We all are in the same train."The Days Of Childhood
Published on November 02, 2014 22:21
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america, asia, children-books, demographic-differences, ebooks, english, europe, hindi, india, literature, world-book-lovers
October 31, 2014
Underprivileged
The society neglects them , they don't exist, they are not the one who can live their dreams.They are one who is suffering from diseases yet considered as a disease. They need help : not sympathy , they need love: not affection , they need education : not books.
I want them to grow, smile , nurture each other and enjoy the childhood. Let them be imperfect , let them live their childhood.
The day i realized the need to write especially for them that day i become the real writer. They are waiting for me and you. They need edutainment. They don't need to be survivors of our education system.You can be Hindu , Muslims and christian or whatever you are. But keep the spirit of childhood alive so that your smile don't get neglected in this world full of perfection.
To be alive..Let's become a child. The Days Of ChildhoodThe Days Of Childhood
I want them to grow, smile , nurture each other and enjoy the childhood. Let them be imperfect , let them live their childhood.
The day i realized the need to write especially for them that day i become the real writer. They are waiting for me and you. They need edutainment. They don't need to be survivors of our education system.You can be Hindu , Muslims and christian or whatever you are. But keep the spirit of childhood alive so that your smile don't get neglected in this world full of perfection.
To be alive..Let's become a child. The Days Of ChildhoodThe Days Of Childhood
Published on October 31, 2014 02:02
•
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animals, book-club, children-books, kids, literature, school, the-days-of-childhood, tiger
October 30, 2014
Man-Animal friendship
FROM THE STORY : #Mastana :
"When Kannu’s father heard the kitten’s voice following them, he asked, “Who is it?”
Scared Kannu, slowly asked, “It is meaow… can I take it?”
Without looking, Kannu’s father said, “Ok, take it.”
He just wanted to reach home early. Before it started raining, they reached home. His father kept all the wood in the cow shed, ate his food and went off to sleep. While Kannu started playing with his kitten in the cow shed, his mother called, “Oh Kannu, come and eat food. And give some to your kitten also.”
Kannu ran into the home and kitten followed him. He scolded it, “No-no. Don’t enter my home or else my mother will hit me.”
The kitten stopped there. As if he understood Kannu. Kannu gave it some chapatti and left-over bones of meat to eat.
While sleeping at night, Kannu’s mother asked him, “Have you named your kitten?”
Kannu said with pride, “#MASTANA”.
"When Kannu’s father heard the kitten’s voice following them, he asked, “Who is it?”
Scared Kannu, slowly asked, “It is meaow… can I take it?”
Without looking, Kannu’s father said, “Ok, take it.”
He just wanted to reach home early. Before it started raining, they reached home. His father kept all the wood in the cow shed, ate his food and went off to sleep. While Kannu started playing with his kitten in the cow shed, his mother called, “Oh Kannu, come and eat food. And give some to your kitten also.”
Kannu ran into the home and kitten followed him. He scolded it, “No-no. Don’t enter my home or else my mother will hit me.”
The kitten stopped there. As if he understood Kannu. Kannu gave it some chapatti and left-over bones of meat to eat.
While sleeping at night, Kannu’s mother asked him, “Have you named your kitten?”
Kannu said with pride, “#MASTANA”.
Published on October 30, 2014 00:25
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animals, book-club, children-books, kids, literature, school, the-days-of-childhood, tiger
October 16, 2014
Natyashastra.
There used to be a Dance guru Bharat Muni in Ancient India. He is the creator of "Natyashastra".
It's a collection of principles for Theatre. The basic differentiation of an artist or actor . Like how our Hero should be like ? There are categories to define it. How our heroine should be like ?
What is Rasas or Moods ?
I am writing a collection on it . So that in few months we will be able to make a series on it.
It's a collection of principles for Theatre. The basic differentiation of an artist or actor . Like how our Hero should be like ? There are categories to define it. How our heroine should be like ?
What is Rasas or Moods ?
I am writing a collection on it . So that in few months we will be able to make a series on it.
Published on October 16, 2014 20:58
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bharata-muni, dance, indian-history, literature, natyashastra, rasas
People Tree
Success is People:Unite them you will be succeeded . Business is people :Win their trust and you will be millionaire . Humanity is people : Love them and you get back it in return. It's all about peop
Success is People:Unite them you will be succeeded . Business is people :Win their trust and you will be millionaire . Humanity is people : Love them and you get back it in return. It's all about people and their surroundings. It's a tree after all and we all are leaves which are trying to be a branch. Welcome to People tree.
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