Sandeep Nayyar's Blog, page 2

June 27, 2018

मैंने इरॉटिक रोमांस क्यों लिखा?

Dark Night by Sandeep Nayyar
डार्क नाइट लिखते समय मन में कई संशय और भय थे. पहली बात तो यह कि इरॉटिक विधा की मेरी स्वयं की जानकारी सीमित थी और दूसरी बात यह कि इसे पोर्न कहकर नकारा या दुत्कारा न जाए. मगर फिर भी मन में इस विधा पर लिखने की एक बलवती इच्छा थी. उसका सबसे बड़ा कारण मेरा अपना यह मत है कि साधारण मनुष्य के जीवन के नैराश्य और कुंठाओं के मूल में बहुत हद तक उसकी इरॉटिक इच्छाओं की अपूर्ति या अतृप्ति ही है. हालाँकि मेरा यह मानना भी है कि जीवन का वास्तविक आनंद ऐन्द्रिक सुख के परे ही है और उस अतीन्द्रीय सौन्दर्य, प्रेम और आनंद की प्राप्ति को ही मैंने जीवन का मूल उद्देश्य बताया है, मगर किसी साधारण मनुष्य के लिए उस अतीन्द्रीय आनंद की स्थाई अनुभूति साधारण काम नहीं है. उसे प्राप्त करने की प्रक्रिया जटिलताओं से परिपूर्ण है. इसका भी पूरा ज़िक्र उपन्यास में है.

अब वापस आते हैं इरॉटिका पर. एक व्यापक भ्रम जो हम भारतीयों में है कि पश्चिमी समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध काफी इरॉटिक होते हैं और इरोटिक संबंधों में लिप्तता ही पश्चिमी समाज की सबसे बड़ी समस्या है. जबकि वास्तविकता इससे बहुत अलग है. हालाँकि यौन संबंधों के मामले में पश्चिमी समाज भारतीय समाज से बहुत अधिक खुला हुआ है मगर यहाँ भी अधिकांश स्त्री-पुरुष एक दूसरे की यौन इच्छाओं को समझने में असमर्थ ही हैं और इनसे उपजी कुंठा यहाँ के समाज की भी बहुत बड़ी समस्या है. पुरुषों के लिए तो फिर भी अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए साधन और सुविधाएँ सदियों से रही हैं और आज भी हैं. पश्चिमी समाज में जिस तरह जगह-जगह सेक्स पार्लर, स्ट्रिप क्लब और खासकर इन दिनों बीडीएसएम रिसॉर्ट दिखते हैं वे प्रमाण हैं कि यहाँ का पुरुष अपने संबंधों में किस हद तक अतृप्त है. नारी की एक बड़ी समस्या यह है कि न तो उसके लिए इस तरह की अधिक सुविधाएँ हैं और न ही उसकी इन सुविधाओं में बहुत अधिक रुचि. हालाँकि नारी मन को समझने में अपनी असमर्थता स्टीफन हाकिंग भी जता गए हैं, मगर जितना मैंने नारी मन को समझा है उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि अधिकांश नारियाँ अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति अपने प्रेम सम्बन्ध के दायरे में ही चाहती हैं. बड़ी समस्या है उसके प्रेमी का उसकी इच्छाओं को न समझना या फिर उनके प्रति उदासीनता. डार्क नाइट के आरम्भ में ही मैं लिखा है, ‘अब कामदेव अनंग हैं और रति अतृप्त’. नारी की इस अतृप्ति का सबसे बड़ा उदाहरण है ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ जैसे उपन्यास की अपार सफलता. एक ऐसा उपन्यास जिसकी न तो ढंग की भाषा-शैली है और न ही कोई कसा हुआ प्लाट, मगर वह सफलता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर रहा है तो सिर्फ इस कारण कि वह नारियों की यौन कुंठाओं को तृप्त करता है.

नारी-पुरुष सम्बन्ध की एक बड़ी समस्या यह भी है कि हर सम्बन्ध की तरह यह सम्बन्ध भी बहुआयामी होता है. सेक्स और रोमांस उस सम्बन्ध का मात्र एक आयाम हैं, और दूसरे आयामों से उनका द्वंद्व भी होता रहता है. नारी जो खूबियाँ अपने प्रेमी में देखती है वही बातें पति में कमियाँ बनकर दिखने लगती हैं. पुरुष अपनी प्रेमिका की जिन अदाओं पर लट्टू होता है, पत्नी की उन्हीं अदाओं को वह घर के बाहर देखना पसंद नहीं करता. स्त्री और पुरुष जब तक इन आयामों और उनके पारस्परिक द्वंद्व को अच्छी तरह न समझें उनके सम्बन्ध भी इन आयामों के टकराव से आहत होते रहेंगे.

मगर इन सबमें इरॉटिका की क्या भूमिका है? इन दिनों किये गए कई वैज्ञानिक अध्यनों से यह बात सामने आ रही है कि इरोटिका को लिखते और पढ़ते दोनों ही समय लेखक और पाठक अपनी और अपने साथी की यौन इच्छाओं के प्रति अधिक जागरूक होते हैं. इरॉटिका, पोर्न से इस मामले में बहुत अलग है कि पोर्न का उद्देश्य मात्र यौन उत्तेजना पैदा करना होता है और उसका प्रभाव भी क्षणिक ही होता है जबकि इरॉटिका में यौन उत्तेजना के साथ ही भावनाओं और संवेदनाओं का एक लम्बा सफ़र होता है और उसका प्रभाव भी दूरगामी होता है. इरॉटिका भी किसी अन्य फैंटसी की ही तरह मनुष्य के लिए न सिर्फ जीवन की कठोर सच्चाइयों से राहत का एक इन्द्रधनुषी व्योम रचता है बल्कि आशाओं और संभावनाओं का एक नया आकाश भी तानता है. इरॉटिका को पोर्न कहकर नकारना उन आशाओं और संभावनाओं के आकाश को नकारना है.
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Published on June 27, 2018 12:55 Tags: dark-night, erotic, erotic-romance, erotica

इरॉटिक साहित्य टैबू क्यों है?

इरॉटिक पर जब भी कुछ लिखना चाहता हूँ ब्रिटिश लेखिका शर्ली कॉनरैन का उपन्यास ‘लेस’ बरबस याद आ जाता है. लेस को मैंने कई बार पढ़ा है. यह एक ट्रेंड सेटर उपन्यास रहा है. शर्ली कॉनरैन ने लेस को किशोर छात्राओं के लिए एक सेक्स इंस्ट्रक्शन मैन्युअल के रूप में लिखना शुरू किया था मगर अंत में उसने एक उपन्यास की शक्ल ले ली. लेस ब्रिटेन के उस दौर की कहानी कहता है जब ब्रिटेन में सेक्स भारत की तरह ही एक टैबू विषय था. लोग सेक्स पर बात करने और लिखने से कतराते थे. किशोर किशोरियाँ में सेक्स का ज्ञान बहुत कम था या लगभग नहीं ही था. अज्ञान ब्लिस या आनंद नहीं होता. अज्ञान हमारी बेड़ी होता है और अज्ञान से बनी बेड़ियाँ पीड़ादायक होती हैं. लेस उन किशोरियों की कहानी कहता है जो सेक्स के अज्ञान से पैदा हुई मानसिक और शारीरिक पीड़ाओं से गुज़रती हैं.
इन दिनों ई.एल.जेम्स का इरॉटिक उपन्यास फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे, लेस से भी कहीं अधिक सफल और चर्चित है. साहित्यिक तौर पर फिफ्टी शेड्स एक बेहद साधारण सा उपन्यास है. मगर वह किंक या बीडीएसएम जैसे विषय पर कहानी कहता है जो आज पश्चिमी समाज में भी टैबू ही है. भारत में तो बीडीएसएम की जानकारी बहुत ही सीमित है. शायद जो थोड़ी बहुत जानकारी है वह फिफ्टी शेड्स से ही आई है. वैसे भारतीयों में किंकी प्रवित्तियाँ पश्चिमी लोगों की अपेक्षा कम ही होती हैं. इसके कई सामाजिक और सांस्कृतिक कारण हैं जिनपर मैं पहले भी लिख चुका हूँ. मगर अज्ञान बुरा ही होता है. वर्ष 2000 में जब मैं ब्रिटेन आया तो मुझे यह जानकार आश्चर्य हुआ कि ब्रिटेन में पैदा हुए और पले बढ़े भारतीय युवाओं को भी इरॉटिक, किंक और सेक्सुअल फेटिश की जानकारी बहुत कम थी.
भारत में तो इरॉटिक के अज्ञान की जो सीमा है उसका एक उदाहरण मुझे याद आता है. 1996 में पूर्वी यूरोप में एक राज्य बनाया गया था, ‘अदर वर्ल्ड किंगडम’, जिसे एक बीडीएसएम रिसॉर्ट के रूप में डेवेलप किया गया था. अमेरिका में ऐसे कई रिसॉर्ट होते हैं, मगर एक पूरे राज्य या राष्ट्र को बीडीएसएम रिसॉर्ट बनाने की यह पहली घटना थी. यह एक फीमेल डोमिनेटेड रिसॉर्ट था जहाँ महिलाएँ शासन करती थीं और पुरुष उनके सेक्स स्लेव होते थे. अमेरिका और यूरोप के हज़ारों पुरुषों ने स्वेच्छा से इस राष्ट्र की नागरिकता ली थी और अपने सारे मानवधिकार खोते हुए महिलाओं का सेक्स स्लेव बनना स्वीकार किया था. वैसे तो इस राष्ट्र को कोई अन्तराष्ट्रीय मान्यता नहीं थी मगर फिर भी इसका अपना झंडा, पासपोर्ट, करेंसी वगैरह सब कुछ था. खैर अब तो यह राष्ट्र बिखर चुका है. भारत में अख़बारों और टीवी चैनलों में इस राष्ट्र के बारे में कई ख़बरें आई थीं कि कैसे इस राष्ट्र में महिलाएँ पुरुषों पर शासन करती थीं, किस तरह उन्हें यातनाएँ देती थीं, और उनसे पशुओं जैसा व्यव्हार करती थीं और कैसे उन पुरुषों को इन महिलाओं के अत्याचार से बचाने की ज़रूरत थी. मगर किसी भी खबर में इस बात कोई ज़िक्र नहीं था कि दरअसल वह राष्ट्र एक बीडीएसएम रिसॉर्ट था और वहाँ महिलाओं के अत्याचार सह रहे पुरुष अपनी इच्छा से उन यातनाओं में यौन आनन्द लेने के लिए गए हुए थे. खैर ज़िक्र होता भी तब इन अखबारों और न्यूज़ चैनल के पत्रकारों या संपादकों को बीडीएसएम की कोई जानकारी होती.
इस बात पर प्रश्न उठ सकते हैं कि आखिर इस तरह के वाहियात विषय की जानकारी होना ज़रूरी क्यों है? जानकारी होना ज़रूरी इसलिए है जिस तरह की यौन हिंसाएँ हम अपने समाज में देखते हैं वे सभी इन किंकी प्रवित्तियों से पैदा होने वाली हिंसाएँ ही हैं. निर्भया जैसी बलात्कार और यौन हिंसा की शिकार लडकियाँ इन्हीं किंकी प्रवित्तियों की शिकार हैं. किंक एक सेक्स प्ले के रूप में तो ठीक है मगर जब वह जीवन शैली बन जाता है तो खतरनाक हिंसक और अपराधिक प्रवित्तियों को जन्म देता है. और जब हिंसा करने और हिंसा सहने वाले दोनों ही इन यौन हिंसाओं में आनंद लेने लगें तो समस्या और भी गम्भीर हो जाती है. आश्चर्य है कि हम ऐसी गंभीर समस्याओं को जन्म देने वाली प्रवित्तियों को टैबू मान कर उनपर बात करने से भी कतराते हैं.
Sandeep Nayyar
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Published on June 27, 2018 12:17 Tags: bdsm, erotic, erotica, kink, lace, shirley-conran

September 25, 2014

विचारों की मुंडेरों से आत्मा की तलहटी तक

कुछ पाठकों का आरोप है कि 'समरसिद्धा' कुछ फिल्मी सा हो गया है। मेरा उनसे कहना है कि फिल्मी होना बुरा नहीं है। फिल्में अच्छी भी होती हैं और बुरी भी। इसी तरह कोई भी कला जिसमें साहित्य भी शामिल है कमोबेश इन दोनों में से किसी एक ही श्रेणी में आती है, अच्छी या बुरी। बाकी की श्रेणियाँ या केटेगरी मूलतः उन्हे थोड़ी दीर्घता से परिभाषित करने की सहूलियत से बनी होती हैं।
इन श्रेणियों में मुझे जो सबसे पसंद है वह है, 'शास्त्रीय या क्लासिकल' और 'लोक, लोकप्रिय या पॉपुलर'। शास्त्रीय कला वह होती है जो आपको इन्द्रियों और विचारों की सतह से परे कहीं भीतर तक छू जाती है, वह जो आपको बाँध देती है, जिसे अंग्रेज़ी में 'एस्थेटिक अरेस्ट' कहा जाता है।वह न गुदगुदाती है, न किसी हरकत में लाती है, न किसी सोच के भंवर में डुबाती है। वहां सिर्फ अनुभूति होती है, 'प्यूर रॉ एक्सपीरियेन्स'. जैसे कि भैरवी की धुन, जैसे कि बीथोवन की सिंफनी, जैसे कि मोनालिसा, जैसे कि रूमी की नज़्म।
और एक कला होती है जो गुदगुदाती है, किसी हरकत में लाती है, किसी सोच के भंवर में डुबाती है, कुछ मस्ती देती है, कुछ आंसू देती है। उसे कहा जाता है, पॉपुलर आर्ट, देसी कला। वह अच्छी भी हो सकती है, वह बुरी भी हो सकती है, वह आदर्शवादी भी हो सकती है, वह यथार्थवादी भी हो सकती है, वह छायावादी हो सकती है, प्रगतिवादी हो सकती है, प्रयोगवादी हो सकती है, मधुर हो सकती है, कटु हो सकती है, रस-प्रधान हो सकती, भाव-प्रधान हो सकती है और न जाने क्या-क्या।
एक लेखक और विशेषकर एक नए लेखक के लिए एक पूरे उपन्यास को शास्त्रीय बना पाना एक बहुत बड़ी चुनौती होती है। वह चुनौती सिर्फ लेखन की ही नहीं बल्कि अपने लेखन को पाठकों तक पहुंचा पाने की भी चुनौती होती है। आजकल के व्यवसायिक जगत में जहां लेखक को प्रकाशकों को यह सिद्ध करना होता है कि उसका लिखा व्यवसायिक रूप से सफल होगा। खासकर तब जब आप हिन्दी के लेखक हों, उस हिन्दी साहित्य के जिसमें किसी पुस्तक की एक हज़ार प्रतियाँ बेचने में प्रकाशक का पसीना निकल जाए। ऐसे में आसान तरीका होता है एक अच्छे पॉपुलर आर्ट का रास्ता। एक ऐसा उपन्यास जिसमें किस्सागोई हो, रोमांच हो, जो गुदगुदाए, कभी हँसाए, कभी रुलाए, थोड़ा सस्पेंस, थोड़ा थ्रिल, थोड़ा प्यार, थोड़ा मॅजिक। हाँ बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ, कुछ वाक्य, कुछ दृश्य, ऐसे हो सकते हैं जो थोड़ी देर के लिये बांध दें, सोच की मुंडेरों से उतार कर आत्मा की तलहटी तक पहुंचा जाएँ। बस ऐसी ही कुछ कोशिश मेरी भी रही है समरसिद्धा में।
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Published on September 25, 2014 11:03

August 31, 2014

कला और उसका उद्देश्य

हिन्दी के एक प्रतिष्ठित अखबार में कुछ दिनों पहले समरसिद्धा की एक समीक्षा छपी है। समीक्षा की समस्त विचित्रताओं के बीच समीक्षक ने एक बड़ा ही विचित्र सा प्रश्न किया है कि समरसिद्धा जैसे उपन्यास के लिखे जाने का उद्देश्य क्या है। यह प्रश्न मुझे विचित्र ही नहीं बल्कि कुछ सीमा तक मूर्खतापूर्ण भी लगता है, क्योंकि कला से सरोकार रखने वाले संभवतः जानते हैं कि कला का कोई उद्देश्य नहीं होता। कला उद्देश्यों से परे होती है।

क्या किसी गीत, संगीत, नृत्य, चित्र, अभिनय आदि का उद्देश्य पूछा जा सकता है? क्या कोयल के गीत या मोर के नृत्य का आनंद उसके उद्देश्य को समझ कर लिया जा सकता है? क्या यह प्रश्न कोई अर्थ रखता है कि विंची ने मोनालिसा किस उद्देश्य से बनाई थी, वॉनगौफ़ ने अपने कमरे का चित्र किस मकसद से बनाया था? बीथोवन की सिंफनी का उद्देश्य क्या है? राग शिवरंजनी किस मकसद से गाया जाता है? दिलीप कुमार के अभिनय का उद्देश्य क्या रहा है? बिरजू महाराज किस उद्देश्य से नृत्य करते हैं? यदि इन सबके पीछे कलाकार के कुछ व्यक्तिगत या व्यवसायिक उद्देश्य हों भी तो भी क्या कला की उत्कृष्टता से उनका कोई सम्बंध होता है? कला और उसकी उत्कृष्टता मूल रूप से उद्देश्यों से परे होती है। हाँ कला में संदेश हो सकता है, किन्तु वह अनिवार्य नहीं है। कला के लिये कोई बंधन नहीं होते हैं। कला बंधनों से मुक्त होती है।

कला की उत्कृष्टता का पैमाना उसका विषय या विषयवस्तु नहीं होते। कला को इस बात से नहीं परखा जाता कि उसमें क्या कहा या दर्शाया गया है। कला की उत्कृष्टता का पैमाना होते हैं उसका अंदाज़, उसकी शैली, उसके कौशल। कला इस बात से परखी जाती है कि बात को किस तरह से कहा या दर्शाया गया है।
किसी अभिनेता के अभिनय को इस बात से नहीं परखा जाता कि उसने कौन सा चरित्र निभाया है। वह नायक है, सहनायक है या खलनायक है। वह पुलिसवाला है, समाजसेवी है या चोर-लुटेरा है। वह आदर्श की बातें करता है या अपराध की। वह भारीभरकम संवाद बोलता है या मूक रहता है। अभिनय को सिर्फ इस बात से परखा जाता है कि क्या अभिनेता ने उस चरित्र को जीवंत कर दिया है। क्या स्वयं को उस चरित्र में खो दिया है। क्या उस चरित्र को दर्शकों के सामने ला खड़ा किया है। यदि अभिनेता इसमें सफल है तो उसका अभिनय सफल है अन्यथा नहीं। इसी तरह किसी उपन्यास की उत्कृष्टता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि वह किस विषय पर लिखा गया है, किन मुद्दों को उठाता है या क्या संदेश देता है, वह इस बात पर निर्भर करती है कि उपन्यास किस खूबसूरती से लिखा गया है, कहानी किस तरह पिरोई हुई है, भाषा और शैली क्या प्रभाव डालते हैं, पात्र किस तरह जीवंत हो उठते हैं, पाठक किस तरह कहानी की यात्रा का हिस्सा बन जाता है, किस तरह पाठक उपन्यास के चरित्रों को स्वयं से संवाद करता हुआ पाता है। लेखन की सफलता लेखन की शैली में है, लेखन के विषय और मुद्दों में नहीं। किसी उपन्यास की सही समीक्षा इसी आधार पर होनी चाहिये, विषय और संदेश गौण हैं।
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Published on August 31, 2014 07:55

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Sandeep Nayyar
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