Saket Suryesh's Blog, page 5
April 20, 2018
महाभियोग पर महाभारत

भारत बहुत ही मज़ेदार राष्ट्र है, सुप्रीम कोर्ट ने खाप पर प्रतिबंध लगाया। अब खाप जुटा है सर्वोच्च न्यायालय पर प्रतिबंध लगाने में ।
भारत में जनतंत्र आरंभ से ही ख़तरे में रहा है। कभी यह सत्तर के दशक के सिनेमा में नायक की माँ की तरह ख़तरे में रहा, कभी नब्बे के दशक के नायक की बहन के रूप में। ख़तरे के प्रकार और ख़तरे की तीव्रता घटती बढ़ती रही परंतु लोकतंत्र से ख़तरा कभी ना टला।
इस सबके बावजूद जनता की जनतंत्र में भारी श्रद्धा रही। जनतंत्र ख़तरे में है - की गुहार पर वो वीरता नसों में दौड़ जाती थी कि बहुधा यह संकट भी प्रस्तुत हुआ कि लोकतंत्र के रक्षकों से लोकतंत्र की रक्षा कैसे की जाए?
लोकतंत्र पर आए ख़तरे से लड़ने के लिए ही भारत में पहली बार आपातकाल लगाया गया। दो वर्ष तक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को काँग्रेस के सुरक्षित गोदामों में छोड़ कर, एक सच्चे प्रेमी की भाँति कृतज्ञ राष्ट्र - तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना - की तर्ज़ पर, सत्ता की ओर तकता रहा।
लोकतंत्र के चाचाजी की पुत्री ने विदेशी हाथ पर आक्षेप लगाया और न्यायालय को पलट दिया। एक जादुई परिवेश में भारत भटकता रहा जहाँ कोई भी युवा, किसी भी शाम विलुप्त हो जाता था। ख़तरे में पड़े लोकतंत्र को ले कर चिंतित राष्ट्र छज्जे के नीचे खड़े युवा प्रेमी की भाँति धनिया लाता रहा।
राष्ट्र सब्जीवाले से प्रेमिका के लिए मुफ्त धनिया लाता रहा; चाचाजी गुलाब टाँगे घूमते रहे, राष्ट्र उनका बिगड़ा लैम्ब्रेटा कल्लू मकैनिक के यहाँ जाकर कर्तव्यनिष्ठा के साथ बनवाता रहा। मध्यवर्गीय शहर के मध्यवर्गीय प्रेमी की भाँति जनता के हाथ सत्ता के हवाई चुंबन के अतिरिक्त कुछ न लगा।
पुराने कवि कह गए है कि सच्चा प्रेम प्रतिरोध से ही परवान चढ़ता है। जब तक कन्या के दो मुस्टंडे भाई हड्डियों का कीर्तन कराने को उपलब्ध ना हों तो प्रेम तरीक़े से उफान नहीं मारता। उसी प्रकार लोकतंत्र भी अपने अप्रतिम सौन्दर्य का दर्शन तब तक नहीं कराता जब तक वह ख़तरे में ना हो।पीछे परिवर्तन बस ये हुआ कि आपातकाल वाली आँटी की दो पीढ़ियाँ गुज़र गईं और काँग्रेस को एक आयातित अभिभाविका की स्नेहछाया में लालन पालन का अवसर प्राप्त हुआ। जनतंत्र अब भी बराबर ख़तरे में बना रहा, बस विदेशी हाथ के आरोप की लज्जा त्याग कर अंदरूनी शक्तियों पर आरोप लगा।
चंद्रमुखी युवराज ने स्वयं के सत्ताच्युत होने को स्वतंत्रता उपरांत लोकतंत्र पर उतरने वाला सबसे बड़े ख़तरे का सूचक माना। भला वह कैसा लोकतंत्र जो उन्हें सिंहासन पर स्थापित करने का पुण्य कार्य करने में असफल रहे। यह लोकतंत्र की हार है, प्रजातंत्र की पराजय है।
राजपुत्र के चेलों ने उन्हें सूचित किया कि आपातकाल के समय से न्यायपालिका का कर्तव्य रहा है कि कटप्पा के स्तर की स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करे। जिस लोकतंत्र में सत्ता राजकुल के पास न हो, वह लोकतंत्र लज्जाजनक है, और जो न्यायपालिका इस त्रुटि का सुधार न करे, वह न्यायपालिका निरर्थक !
ऐसी न्यायपालिका उस नारियल की तरह है जो ऐसे बीमार व्यक्ति को देखने आने वाला दे गया हो जिसे डाक्टर ने छिलके के साथ फल खाने की सलाह दी हो। न्यायपालिका ने दही हाँड़ी की ऊँचाई तय की तो राजपुत्र ने न्यायाधीश की उड़ान की ऊँचाई की सीमा ही तय करने का प्रण लिया।
सज्जनों के समाज में न्यायालय जेबकतरे को जेल भेजता है, जेबकतरों की

ऐसे में लोकतंत्र पर मँडराते ख़तरे से देश को बचाने का महान कर्तव्य उनके ज़मानत पर मुक्त हुए कर कमलों पर आ रुकता है कि जेबकतरों की ओर से वह न्याय को कारागार में भेजें। कल अदालत ‘की’ पेशी है, आएँ, और लोकतंत्र के पुनरूद्धार का यह महान खेला अवश्य देखें।

Published on April 20, 2018 21:58
April 13, 2018
बच्चों में कोई भेद नहीं

बच्चों में कोई भेद नहीं
अनदेखे ख़्वाबों की दो आँखें, जिन्होंने स्वप्न देखने की आयु से पूर्व दु:स्वप्न देख आँखें मूँद लीं। जो क़दम अभी चलना ही सीखे थे, लड़खड़ा कर थम गए। बचपन के घुटने की हर खरोंच, व्यस्कों के गाल पर एक तमाचा है।
धर्म के आडंबरों से अछूता बाल मन जो मंदिरों और मस्जिदों को अपनी आत्मा में रखता था, धर्म की दरारों पर अपना नन्हा शव छोड़ निकल पड़ा। कहीं दूर,दग्ध शरीर के ताप से दूर, जब यह अकलुषित हृदय पहुँचा तो एक और निष्पाप दूधिया आत्मा दिखी, जिसकी पलकों के कोरों में उसकी आँखों के जैसे ही अविश्वास से सहमा हुआ अश्रु रूका था।
एक दूसरे के गले लग कर दोनों बाल मन दरिया के टूटे बाँध की तरह बह निकले। घाव बाँटे, एक दूसरे के हृदय में चुभी धरती की किरचें निकाली और न देखे हुए स्वप्नों का श्राद्ध रचा। उसने थमती हिचकियों में अपना नाम बताया - असीफा । और दुख के साथी की ठोड़ी थाम कर कहा - " मत रो, न्याय होगा।"
धरती की तरफ़ नन्ही गुलाबी उँगली दिखा कर कहा- “देख, भले लोग लड़ रहे है मेरे लिए, न्याय होगा। तेरे लिये भी लड़ रहे होंगे। तू मत रो”
फिर बोली, “ मैं पश्चिम से हूँ, तू पूरब से, पर हैं तो दोनों बच्चे। हमारे बँधी हुई मुट्ठियों में मनुष्यता के भविष्य की संभावनाएँ हैं। हम बच्चों को हार कर मनुष्य भला क्या जीतेगा? हम से मुँह फेर कर मनुष्य कहाँ जा सकता है। न्याय होगा, तब मन छोटा मत कर। चल हम भगवान से न्याय माँगें। वो जो उड़ती उजली दाढ़ी वाले हैं, जिन्हें तुम भगवान कहते हो, हम उन्हीं को अल्लाह कहते हैं। मैंने अपना नाम बता दिया है उन्होंने कहा है न्याय होगा। तुम भी कह दो।”
उसकी सहेली हिली नहीं, कुछ बोली भी नहीं, पाषाणवत् स्थिर रही।
बस इतना बोली-
“मैं क्या कहूँ, बहन। मैं कहाँ शिकायत लिखाऊँ। मेरे शरीर के साथ मेरा तो नाम भी धुआँ हो गया। मेरा नाम लेना सांप्रदायिक है, असीफ़ा। मैं बरपेटा की बेटी हूँ, मेरा कोई नाम नहीं हूँ। मैं नैतिकता के पन्ने से मिटाई हुई इबारत हूँ, मिट्टी पर लिख कर पुँछा हुआ अक्षर हूँ।तू एक नाम है, मैं एक संख्या हूँ। मैं राजनैतिक असुविधा का पर्याय हूँ। मैं असम की बेटी हूँ, मुझमें किसी की रूचि नहीं। मैं वो घाव हूँ जो सूख जाने के बाद दाग नहीं छोड़ता। मैं राजनैतिक समीकरण में नहीं जुड़ती, मेरा कोई नाम नहीं है। मैं अनामिका, क्या शिकायत करूँ, क्या सोग करूँ?”
यह कह कर असीफ़ा की नई सहेली गले लग गई। और आँसुओं में भीगी सिसकियाँ आकाश की ओर वैसे ही दौड़ती रहीं, जैसे बाबा के पुकारने पर कभी वो दोनों दौड़ा करती थीं।

Published on April 13, 2018 20:16
April 9, 2018
अनशन के आवश्यक अंश
अनशन के आवश्यक अंश
भारतीय राजनीति में भूख का अभूतपूर्व स्थान है। बँग-भंग के समय से भूख भारतीय राजनीति की दशा का निर्धारण करती रही है और राजनीति के रथ के पहिए की धुरी रही है। एक प्लेट पूड़ी सब्ज़ी राजनैतिक जनसभाओं की सफलता का, और ग़रीबों की थाली में सजी भूख चुनावी निर्णयों का निर्धारण करती रही है। यह चुभती हुई भूख जो पुरूषों के पौरुष और नारियों के सतीत्व का सौदा बन के सात दशकों तक ऐसे समाज में सन्निहित हो गई कि आम भारतीय -ऊ तो होबे करता है - कह कर निकल लेता है।
किन्तु इस राजनैतिक छल और प्रशासनिक विफलता के चूहों द्वारा खाए गए फ़ूड कार्पोरेशन के अनाज से क्रान्ति नहीं होती। क्रान्ति होती है स्वैच्छिक भूख से जिसकी नींव गाँधी जी ने डाली और जिसे उन्होंने हर सामाजिक प्रश्न के समाधान के रूप में भारतीय जनता के सामने परोसा।
इस भूख के शस्त्र को हर मिडिल क्लास युवक ने अपनी बात मनवाने को भोजन त्याग कर चुपके से पिज़्ज़ा आर्डर करते हुए उपयोग किया है। श्री अन्ना हज़ारे एवम् श्री अरविंद केजरीवाल ने इस लुप्त होती कला का पुनरूत्थान किया। भूख के इस शस्त्र रूप के लिये कई चीज़ेो की आवश्यकता होती है और इस स्वैच्छिक, राजनैतिक भूख को हम भूख हड़ताल कहते हैं। इसी शस्त्र के साधन से राजनेताओं द्वारा सूखे पत्तलो से सत्ता के समोसों तक का सफ़र तय किया जाता है।
एक सफल भूख हड़ताल ऐसे नहीं होती कि आप पर चिन्तित मुद्रा में धम्म से बिस्तर पर गिरे और अनशन हो गया। इसके लिए एक अदद तंबू, लाऊडस्पीकर, मीडिया और चंद छुटभैये नेताओं और चमचों की आवश्यकता होती है। इस घटनाक्रम में समर्थकों की भूमिका अनशनरत नेता की तोंद को लगातार चादर से ढाँपने, खाद्य सामग्री स्मगल करने, धार्मिक कैलेंडर पर प्रभु के श्री चरणों में पड़े भक्तों की मुख मुद्रा के साथ स्टेज पर रहने के अलावा सिद्धांत और सत्ता के मध्य का संवाद एवम् संतुलन बनाए रखने आवश्यक है। यह इन समर्थकों का ही पुनीत कर्तव्य होता है कि नेता जी सिद्धांत के संघर्ष में शहीद न हो जाएँ।
जब एक नेता जी, अपने मैनिक्यूर्ड लान से निकल कर, वातानुकूलित बँगलों को त्याग कर राजघाट या जंतर मंतर के तंबू युक्त मंच पर अवतरित होते हैं तो आत्म हत्या को जाता हुआ भूखा किसान ठिठक कर ठहर जाता है। उसकी भोली आत्मा सन-स्क्रीन लगे गोरे चेहरे पर उभरी स्वेद-बिंदुओं में अपने अश्रुपूरित अस्तित्व को भूल जाती है और नेताजी को अपनी ताज़ा ताज़ा बेवक़ूफ़ बनी जनता के भावुक भूख में सत्ता को जाता वह मार्ग दिखता है जो पिछले सत्तर वर्षों से ग़रीबी हटाने के नाम पर सत्ता के राज पथ पर ग़रीबी को सजाता रहा है। सत्ता के साथ प्रासंगिकता ही एक सैद्धांतिक या वास्तविक भूख हड़ताल की सफलता निर्धारित करती है। अपनी दो दिन की भूख के प्रश्न को ग़रीब नागरिक नेताजी की दो घंटे की भूख हड़ताल पर वोटों में लपेट कर न्योछावर कर देता है।
भारतीय राजनीति में भूख का अभूतपूर्व स्थान है। बँग-भंग के समय से भूख भारतीय राजनीति की दशा का निर्धारण करती रही है और राजनीति के रथ के पहिए की धुरी रही है। एक प्लेट पूड़ी सब्ज़ी राजनैतिक जनसभाओं की सफलता का, और ग़रीबों की थाली में सजी भूख चुनावी निर्णयों का निर्धारण करती रही है। यह चुभती हुई भूख जो पुरूषों के पौरुष और नारियों के सतीत्व का सौदा बन के सात दशकों तक ऐसे समाज में सन्निहित हो गई कि आम भारतीय -ऊ तो होबे करता है - कह कर निकल लेता है।
किन्तु इस राजनैतिक छल और प्रशासनिक विफलता के चूहों द्वारा खाए गए फ़ूड कार्पोरेशन के अनाज से क्रान्ति नहीं होती। क्रान्ति होती है स्वैच्छिक भूख से जिसकी नींव गाँधी जी ने डाली और जिसे उन्होंने हर सामाजिक प्रश्न के समाधान के रूप में भारतीय जनता के सामने परोसा।
इस भूख के शस्त्र को हर मिडिल क्लास युवक ने अपनी बात मनवाने को भोजन त्याग कर चुपके से पिज़्ज़ा आर्डर करते हुए उपयोग किया है। श्री अन्ना हज़ारे एवम् श्री अरविंद केजरीवाल ने इस लुप्त होती कला का पुनरूत्थान किया। भूख के इस शस्त्र रूप के लिये कई चीज़ेो की आवश्यकता होती है और इस स्वैच्छिक, राजनैतिक भूख को हम भूख हड़ताल कहते हैं। इसी शस्त्र के साधन से राजनेताओं द्वारा सूखे पत्तलो से सत्ता के समोसों तक का सफ़र तय किया जाता है।
एक सफल भूख हड़ताल ऐसे नहीं होती कि आप पर चिन्तित मुद्रा में धम्म से बिस्तर पर गिरे और अनशन हो गया। इसके लिए एक अदद तंबू, लाऊडस्पीकर, मीडिया और चंद छुटभैये नेताओं और चमचों की आवश्यकता होती है। इस घटनाक्रम में समर्थकों की भूमिका अनशनरत नेता की तोंद को लगातार चादर से ढाँपने, खाद्य सामग्री स्मगल करने, धार्मिक कैलेंडर पर प्रभु के श्री चरणों में पड़े भक्तों की मुख मुद्रा के साथ स्टेज पर रहने के अलावा सिद्धांत और सत्ता के मध्य का संवाद एवम् संतुलन बनाए रखने आवश्यक है। यह इन समर्थकों का ही पुनीत कर्तव्य होता है कि नेता जी सिद्धांत के संघर्ष में शहीद न हो जाएँ।
जब एक नेता जी, अपने मैनिक्यूर्ड लान से निकल कर, वातानुकूलित बँगलों को त्याग कर राजघाट या जंतर मंतर के तंबू युक्त मंच पर अवतरित होते हैं तो आत्म हत्या को जाता हुआ भूखा किसान ठिठक कर ठहर जाता है। उसकी भोली आत्मा सन-स्क्रीन लगे गोरे चेहरे पर उभरी स्वेद-बिंदुओं में अपने अश्रुपूरित अस्तित्व को भूल जाती है और नेताजी को अपनी ताज़ा ताज़ा बेवक़ूफ़ बनी जनता के भावुक भूख में सत्ता को जाता वह मार्ग दिखता है जो पिछले सत्तर वर्षों से ग़रीबी हटाने के नाम पर सत्ता के राज पथ पर ग़रीबी को सजाता रहा है। सत्ता के साथ प्रासंगिकता ही एक सैद्धांतिक या वास्तविक भूख हड़ताल की सफलता निर्धारित करती है। अपनी दो दिन की भूख के प्रश्न को ग़रीब नागरिक नेताजी की दो घंटे की भूख हड़ताल पर वोटों में लपेट कर न्योछावर कर देता है।

Published on April 09, 2018 10:14
April 7, 2018
बसेसर कुछ नहीं समझता
बसेसर कुछ नहीं समझता
इमेज : मालगुडी डेज : दूरदर्शन
स्मार्टफ़ोन की पिछले साल खुली फ़ैक्टरी से बाहर आकर उसने टैक्सी पकड़ ली। आज तनख़्वाह मिली थी। इस महीने घर के लिए ज़्यादा पैसे भेजने थे। जानता था पिताजी के चेहरे पर पिछले दशकों से गिरी झुर्रियों के कैक्टस मे मुस्कान का सूरज उगेगा। पुत्र के भेजे पैसे पिता का घर नहीँ चलाते पर रिश्ते की निरंतरता के लिए आवश्यक होते हैं और सफ़ेद मूँछों को सम्बल होते हैं। माँ ज़रूर चिंता करेगी कि सब पैसे ख़र्च करेगा तो प्रायवेट नौकरी में उसके ख़ुद के बुढ़ापे का क्या होगा? उसने सोचा इस बार माँ को प्रधानमंत्री पेंशन स्कीम के बारे में ज़रूर बताएगा। कब तक माँ उसे बच्चा ही मानती रहेगी और उसके बुढ़ापे की फ़िक्र भी अपनी पीठ पर ढ़ोती रहेगी। माँ ही अपने पुत्र में आता बुढ़ापा और जाता बचपन एक साथ रूका हुआ देख सकती है। याद आया, माँ को देखे बहुत समय हो गया। मन कमज़ोर हो गया। माँ की याद से हमेशा ही ऐसा होता है, मन बालक होने के व्याकुल हो उठता है। याद आया बचपन में चूल्हे के पास बैठ पहाड़े याद करना और ममता की आत्मा को धीमे धीमे, हर रोज़, धुएँ में बुझते हुए देखना।
पिछले दो महीने से फ़ोन पर माँ की खाँसी कम और उलाहना -आशीष ज़्यादा मुखर हो गए थे। गाँव के घर में गैस लग गई थी। कई बार मन में खीझ भी आती थी कि तपेदिक के ख़िलाफ़ नेताओं की खिलखिलाती तस्वीर के पोस्टर स्वास्थ्य-केंद्रों पर साटते लोगों ने अब तक समय से पूर्व वृद्ध होती पीढ़ी की सुध क्यों नहीं ली। पोस्टर चिपका कर कर्तव्य का निर्वाह हो जाता था मानो पोस्टर पर नेता जी की तनी हुई राजसी भृकुटि देख कर ही तपेदिक गाँव में क़दम नहीं रखेगा।
मतलब बसेसर की बन आई होगी। हर शाम पराँठा भकोस रहा होगा, सोच कर उसके चेहरे पर मुस्कान खिल आई। कैशोर्य में ही लालटेन की धूप छाँह रोशनी में बसेसर का चेहरा किसी शहर के नक़्शे सा दिखता था। गाँव में तो ख़ैर अब बिजली भी थी। बसेसर पिछली बार फ़ोन पर हँस रहा था, कहा- “तुम्हारी भौजी कहती लट्टू की लैट में हमरा चेहरा फिर से जवान हो गया है।” बचपन में उसके साथ स्कूल से भागने वाला बसेसर शाम के स्कूल जाने लगा था।
माँ पिछली बार बता रही थी कि बसेसर भूमिहीन किसान होने के अभिशाप से मुक्त होकर परचून की दुकान खोल रहा था, सो भी अपनी बचत से। जब इस बारे में बसेसर से बात हुई उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना था, बोला पिछली गर्मी में नरेगा में नहर खुदाई का पैसा मिला था। पर नरेगा में लेने देने के बाद बचत कहाँ होती थी, और बिना लिए दिए पैसा मिलता नहीं था। छोटे बड़े, भिन्न भिन्न आकार और विचार के बाबुओं को देने के बाद नरेगा में तो उतना ही पैसा आएगा जो उसे हमेशा नरेगा से बाँध के रखे। बस ज़मींदार अदृश्य हो गया था, व्यवस्था तो वही थी। उसने पैसे की मदद के लिए पूछा तो बसेसर हँसने लगा।
बसेसर हँसा, वही जो पीपल के पत्तों से पुरबा की सरसराती हवा की आवाज़ वाली निश्छल हँसी, बोला - ‘भैया, किसी को देना नहीं पड़ता, आधार से जोड़ दिये हैं, बस खाते में आ जाता है, फ़ोन बाबा का घंटी बजता है, और पैसा यहाँ। चिंता की कोई बात नहीं है। दू लाख मिला था, सो घर भी पक्का कर लिए हैं, इस बार आओगे तो देखना। अब बस अपना काम करना है, बाबू।'
उसे पिछले शनीवार की कनाट प्लेस के बरिस्ता में हुई ‘आधार-एक साज़िश’ सभा का ध्यान आया। लोग आए थे, जिसमें कुछ बढ़ी दाढ़ी वाले विचारमग्न युवा थे जो सिगरेट के धुएँ का आवरण ओढ़ कर अपने बौद्धिक स्तर को और उन्नति देने में प्रयासरत थे। महिलाएँ सुंदर काटन की साड़ियों में थीं। मनुष्य की बौद्धिकता के विकास में काटन साड़ियों का भी वही स्थान है जो सिगरेट का अविष्कार का और नाई के अवकाश का।
बहरहाल, सरकार और आधार को कोसने के साथ निजता पर मँडराते ख़तरे पर विचार हुआ। तस्वीरें खींच कर फ़ेसबुक पर डाली गईं और कैफ़े के मेम्बरशिप फ़ार्म में नाम, पता, फ़ोन, माँ का नाम, पसंदीदा रंग, जन्मतिथि इत्यादि दे कर सब हर स्तर आधार विरोध का प्रण कर के निकल गए थे। बसेसर तो ये सब कुछ समझता नहीं है।
ठीक है कि पाँच बरस पहले बैंक वाले गुप्ता जी खाता खुलाने गए बसेसर को दरवाज़े से भगा दिए थे। और बसेसर ख़ाली हाथो में उलाहना ले कर लौट आया था- ‘बतलाईए,अब ई लोग भी खाता खुलवावेगा।’ बैंक के रामदीन चौकीदार की पान की पीक भी इस अपमान के छींटे के साथ बसेसर के लौटते पैरों पर गिरी थी। अपने मन में ‘ई लोग’ होने का बोध और अपने उजले मन पर पान की पीक का भद्दा दाग लिए बसेसर लौट आया था।
पिछले बरस वही गुप्ता जी घर आ के, मान मनौवल और इसरार कर के खाता खुलवा गए। उस खाते से ही बसेसर समाज के गिर्द बने हाशिए के इस तरफ़ आ गया, ऋण पा कर पक्का घर बनवाया। लेकिन लोकतंत्र तो ख़तरे में है, दलित समाज तो दबा है। बसेसर तो कुछ समझता नहीं, समाज में जुड़ जाने भर से स्वाभिमान की लड़ाई थोड़े ना हो जाती है।
बसेसर से दो माह पहले बात हुई थी, बहुत चिंतित था। कहा साहूकार बाबू जो अब सरपंच हो गए थे, बुला कर कहे कि अपने समाज के लिए कुछ करो। अपने पर ख़ास बल दे कर उन्होंने यह बात कही थी, सो बसेसर भी इतना तो तो समझ पाया था कि सरपंच जी का इरादा उसे फ़ौज में भर्ती कराने या मोहल्ला सफ़ाई में शामिल करने का तो नहीं था।
हड़बड़ी में जब फ़ोन आया था तो चिंता की लकीरें बसेसर की वाणी में ऐसी छपी थी, कि उसे फ़ोन पर ही बसेसर की दुविधा समझ आ गई थी। वो बचपन के मित्र थे, उस समय के, जब दलित, ग़ैर-दलित रेखा इतनी भी गहरी नहीं हुई थी। साथ में आम चुराए थे, और थुराए भी थे। बसेसर बोला- ‘भैया, सरपंच जी कहे एक जुलूस निकालेंगे और रामायण जलावेंगे। कहो भईया, बजरंग बली हमको माफ़ करेंगे का? बोल रहे थे हिंदू लोग हम पर अन्याय किए। हम कहा कि बाबू राम जी तो अन्याय नहीं किए, उ तो शबरी के बेर भी खाए, और केवट को भी गले लगाए। अब हम रामायण ही जला देंगे तो बचवन को रात में राम कथा नहीं का सरपंच जी की गाथा सुनाएँगे? हम मना कर दिए, भाई। पर मन बहुत ख़राब हो गया। कब तक, कौन कौन मना करेगा, पैसा देने का भी वादा कर रहे थे।'
सरपंच जी बोले दलितों का हिंदू समाज में कुछ नहीं है। कहे वही हैं जो दलितों का सम्मान करते हैं। चाय का नया चीनी मिट्टी का कप दिखाए, कहे देखो तुम्हारे सम्मान में काँच वाला गिलास जो तुम लोग के लिए रखे थे अब इतना सुन्दर कप से बदल दिए हैं। यहीं ओसारे में रहेगा घर के बाहर, तुम लोग को लिए।
‘कप तो सुन्दर था’ बसेसर बोला- ‘लेकिन का नए कप के लिए बजरंग बली से लड़ लेते। हमारे बाबा कँधा पे बैठा के रामलीला ले जाते थे, भोरे नदी किनारे हनुमान जी के मंदिर ले जाते थे। सफ़ेद कप के लिए भगवान से लड़ जाएँगे तो बच्चा सब को कल क्या बताएँगे? अब भगवान तो कहीं होगा ही जो सब दुनिया चल रहा है। उसको हम नहीं छोड़ सकते। कप सुंदर है, पर है तो ओसारे में ना, बाबू। और कुच्छो हो, बजरंग बली को धोखा नहीं दे सकते। माँ कहती थी कि उन्हीं का मन्न्त से हम हुए थे।’
प्रश्न कप का नहीं है, कप के पीछे के षड्यंत्र का है। प्रश्न भविष्य का है और इतिहास का है। प्रश्न अस्तित्व की निरंतरता का है। इस सारे समीकरण में सफ़ेद कप गौण हैं, निरर्थक हैं। कुछ पढ़ लिया होता बसेसर तो समझ लेता। लेकिन बसेसर है कि समझता ही नहीं।
उसका सिर खिड़की से टिका हुआ था और मन गाँव और शहर के बीच कहीं खड़ा था। उसकी दृष्टि अस्त होते सूरज के सामने बने नन्हें से मंदिर और उसके सामने हाथ जोड़े खड़े बसेसर-नुमा आदमी पर पड़ी।
ग़ाज़ियाबाद पीछे छूट चुका था और नई बन रही सड़कों के बीच एक गाँव निराशा के बीच मानों नव-सम्मान का सर उठा के खड़ा था।
गाँव के आशापूर्ण नेत्र निर्माण की धूल से निराश और व्याकुल नहीं होते। शहर के पास सहनशीलता और संवरण नहीं है। बसेसर और बसेसरनुमा लोग हनुमान जी का कोप नहीं ले सकते, शहर उन्ही बजरंगबली को लेकर कभी भी शर्मिंदा हो लेता है। शहर हर बात पर व्यापार ढूँढता है, गाँव संस्कार का संरक्षक है। शहर अख़बार पढ़ता है, गाँव संवाद स्थापित करता है। शहर शिकायत करता है, गाँव गले लगाता है।
शहर बनती हुई सड़क के हर मोड़ पर, चौड़े फ्लाईओवर से उतर कर जाम में फँसते ही अपशब्द निकालता है, गाँव टूटी सड़क पर चलते हुए हाथ आकाश की ओर छोड़ कर कहता है- होईंही वही जो राम रची राखा। शहर साफ़ होते प्लेटफ़ार्म के कोने पर धरे कूड़े के ढेर को पेप्सी की बोतल फेंक कर सरकार को कोसता है, नव निर्माण की धूल में फँसे बसेसर को निर्विकार भाव मंदिर के आगे आँख मूँदे देख शर्मिंदा होता है। लेकिन बसेसर, बसेसर कम माँगता है, कम कोसता है। बसेसर कुछ नहीं समझता है।

स्मार्टफ़ोन की पिछले साल खुली फ़ैक्टरी से बाहर आकर उसने टैक्सी पकड़ ली। आज तनख़्वाह मिली थी। इस महीने घर के लिए ज़्यादा पैसे भेजने थे। जानता था पिताजी के चेहरे पर पिछले दशकों से गिरी झुर्रियों के कैक्टस मे मुस्कान का सूरज उगेगा। पुत्र के भेजे पैसे पिता का घर नहीँ चलाते पर रिश्ते की निरंतरता के लिए आवश्यक होते हैं और सफ़ेद मूँछों को सम्बल होते हैं। माँ ज़रूर चिंता करेगी कि सब पैसे ख़र्च करेगा तो प्रायवेट नौकरी में उसके ख़ुद के बुढ़ापे का क्या होगा? उसने सोचा इस बार माँ को प्रधानमंत्री पेंशन स्कीम के बारे में ज़रूर बताएगा। कब तक माँ उसे बच्चा ही मानती रहेगी और उसके बुढ़ापे की फ़िक्र भी अपनी पीठ पर ढ़ोती रहेगी। माँ ही अपने पुत्र में आता बुढ़ापा और जाता बचपन एक साथ रूका हुआ देख सकती है। याद आया, माँ को देखे बहुत समय हो गया। मन कमज़ोर हो गया। माँ की याद से हमेशा ही ऐसा होता है, मन बालक होने के व्याकुल हो उठता है। याद आया बचपन में चूल्हे के पास बैठ पहाड़े याद करना और ममता की आत्मा को धीमे धीमे, हर रोज़, धुएँ में बुझते हुए देखना।
पिछले दो महीने से फ़ोन पर माँ की खाँसी कम और उलाहना -आशीष ज़्यादा मुखर हो गए थे। गाँव के घर में गैस लग गई थी। कई बार मन में खीझ भी आती थी कि तपेदिक के ख़िलाफ़ नेताओं की खिलखिलाती तस्वीर के पोस्टर स्वास्थ्य-केंद्रों पर साटते लोगों ने अब तक समय से पूर्व वृद्ध होती पीढ़ी की सुध क्यों नहीं ली। पोस्टर चिपका कर कर्तव्य का निर्वाह हो जाता था मानो पोस्टर पर नेता जी की तनी हुई राजसी भृकुटि देख कर ही तपेदिक गाँव में क़दम नहीं रखेगा।
मतलब बसेसर की बन आई होगी। हर शाम पराँठा भकोस रहा होगा, सोच कर उसके चेहरे पर मुस्कान खिल आई। कैशोर्य में ही लालटेन की धूप छाँह रोशनी में बसेसर का चेहरा किसी शहर के नक़्शे सा दिखता था। गाँव में तो ख़ैर अब बिजली भी थी। बसेसर पिछली बार फ़ोन पर हँस रहा था, कहा- “तुम्हारी भौजी कहती लट्टू की लैट में हमरा चेहरा फिर से जवान हो गया है।” बचपन में उसके साथ स्कूल से भागने वाला बसेसर शाम के स्कूल जाने लगा था।
माँ पिछली बार बता रही थी कि बसेसर भूमिहीन किसान होने के अभिशाप से मुक्त होकर परचून की दुकान खोल रहा था, सो भी अपनी बचत से। जब इस बारे में बसेसर से बात हुई उसकी ख़ुशी का ठिकाना ना था, बोला पिछली गर्मी में नरेगा में नहर खुदाई का पैसा मिला था। पर नरेगा में लेने देने के बाद बचत कहाँ होती थी, और बिना लिए दिए पैसा मिलता नहीं था। छोटे बड़े, भिन्न भिन्न आकार और विचार के बाबुओं को देने के बाद नरेगा में तो उतना ही पैसा आएगा जो उसे हमेशा नरेगा से बाँध के रखे। बस ज़मींदार अदृश्य हो गया था, व्यवस्था तो वही थी। उसने पैसे की मदद के लिए पूछा तो बसेसर हँसने लगा।
बसेसर हँसा, वही जो पीपल के पत्तों से पुरबा की सरसराती हवा की आवाज़ वाली निश्छल हँसी, बोला - ‘भैया, किसी को देना नहीं पड़ता, आधार से जोड़ दिये हैं, बस खाते में आ जाता है, फ़ोन बाबा का घंटी बजता है, और पैसा यहाँ। चिंता की कोई बात नहीं है। दू लाख मिला था, सो घर भी पक्का कर लिए हैं, इस बार आओगे तो देखना। अब बस अपना काम करना है, बाबू।'
उसे पिछले शनीवार की कनाट प्लेस के बरिस्ता में हुई ‘आधार-एक साज़िश’ सभा का ध्यान आया। लोग आए थे, जिसमें कुछ बढ़ी दाढ़ी वाले विचारमग्न युवा थे जो सिगरेट के धुएँ का आवरण ओढ़ कर अपने बौद्धिक स्तर को और उन्नति देने में प्रयासरत थे। महिलाएँ सुंदर काटन की साड़ियों में थीं। मनुष्य की बौद्धिकता के विकास में काटन साड़ियों का भी वही स्थान है जो सिगरेट का अविष्कार का और नाई के अवकाश का।
बहरहाल, सरकार और आधार को कोसने के साथ निजता पर मँडराते ख़तरे पर विचार हुआ। तस्वीरें खींच कर फ़ेसबुक पर डाली गईं और कैफ़े के मेम्बरशिप फ़ार्म में नाम, पता, फ़ोन, माँ का नाम, पसंदीदा रंग, जन्मतिथि इत्यादि दे कर सब हर स्तर आधार विरोध का प्रण कर के निकल गए थे। बसेसर तो ये सब कुछ समझता नहीं है।
ठीक है कि पाँच बरस पहले बैंक वाले गुप्ता जी खाता खुलाने गए बसेसर को दरवाज़े से भगा दिए थे। और बसेसर ख़ाली हाथो में उलाहना ले कर लौट आया था- ‘बतलाईए,अब ई लोग भी खाता खुलवावेगा।’ बैंक के रामदीन चौकीदार की पान की पीक भी इस अपमान के छींटे के साथ बसेसर के लौटते पैरों पर गिरी थी। अपने मन में ‘ई लोग’ होने का बोध और अपने उजले मन पर पान की पीक का भद्दा दाग लिए बसेसर लौट आया था।
पिछले बरस वही गुप्ता जी घर आ के, मान मनौवल और इसरार कर के खाता खुलवा गए। उस खाते से ही बसेसर समाज के गिर्द बने हाशिए के इस तरफ़ आ गया, ऋण पा कर पक्का घर बनवाया। लेकिन लोकतंत्र तो ख़तरे में है, दलित समाज तो दबा है। बसेसर तो कुछ समझता नहीं, समाज में जुड़ जाने भर से स्वाभिमान की लड़ाई थोड़े ना हो जाती है।
बसेसर से दो माह पहले बात हुई थी, बहुत चिंतित था। कहा साहूकार बाबू जो अब सरपंच हो गए थे, बुला कर कहे कि अपने समाज के लिए कुछ करो। अपने पर ख़ास बल दे कर उन्होंने यह बात कही थी, सो बसेसर भी इतना तो तो समझ पाया था कि सरपंच जी का इरादा उसे फ़ौज में भर्ती कराने या मोहल्ला सफ़ाई में शामिल करने का तो नहीं था।
हड़बड़ी में जब फ़ोन आया था तो चिंता की लकीरें बसेसर की वाणी में ऐसी छपी थी, कि उसे फ़ोन पर ही बसेसर की दुविधा समझ आ गई थी। वो बचपन के मित्र थे, उस समय के, जब दलित, ग़ैर-दलित रेखा इतनी भी गहरी नहीं हुई थी। साथ में आम चुराए थे, और थुराए भी थे। बसेसर बोला- ‘भैया, सरपंच जी कहे एक जुलूस निकालेंगे और रामायण जलावेंगे। कहो भईया, बजरंग बली हमको माफ़ करेंगे का? बोल रहे थे हिंदू लोग हम पर अन्याय किए। हम कहा कि बाबू राम जी तो अन्याय नहीं किए, उ तो शबरी के बेर भी खाए, और केवट को भी गले लगाए। अब हम रामायण ही जला देंगे तो बचवन को रात में राम कथा नहीं का सरपंच जी की गाथा सुनाएँगे? हम मना कर दिए, भाई। पर मन बहुत ख़राब हो गया। कब तक, कौन कौन मना करेगा, पैसा देने का भी वादा कर रहे थे।'
सरपंच जी बोले दलितों का हिंदू समाज में कुछ नहीं है। कहे वही हैं जो दलितों का सम्मान करते हैं। चाय का नया चीनी मिट्टी का कप दिखाए, कहे देखो तुम्हारे सम्मान में काँच वाला गिलास जो तुम लोग के लिए रखे थे अब इतना सुन्दर कप से बदल दिए हैं। यहीं ओसारे में रहेगा घर के बाहर, तुम लोग को लिए।
‘कप तो सुन्दर था’ बसेसर बोला- ‘लेकिन का नए कप के लिए बजरंग बली से लड़ लेते। हमारे बाबा कँधा पे बैठा के रामलीला ले जाते थे, भोरे नदी किनारे हनुमान जी के मंदिर ले जाते थे। सफ़ेद कप के लिए भगवान से लड़ जाएँगे तो बच्चा सब को कल क्या बताएँगे? अब भगवान तो कहीं होगा ही जो सब दुनिया चल रहा है। उसको हम नहीं छोड़ सकते। कप सुंदर है, पर है तो ओसारे में ना, बाबू। और कुच्छो हो, बजरंग बली को धोखा नहीं दे सकते। माँ कहती थी कि उन्हीं का मन्न्त से हम हुए थे।’
प्रश्न कप का नहीं है, कप के पीछे के षड्यंत्र का है। प्रश्न भविष्य का है और इतिहास का है। प्रश्न अस्तित्व की निरंतरता का है। इस सारे समीकरण में सफ़ेद कप गौण हैं, निरर्थक हैं। कुछ पढ़ लिया होता बसेसर तो समझ लेता। लेकिन बसेसर है कि समझता ही नहीं।
उसका सिर खिड़की से टिका हुआ था और मन गाँव और शहर के बीच कहीं खड़ा था। उसकी दृष्टि अस्त होते सूरज के सामने बने नन्हें से मंदिर और उसके सामने हाथ जोड़े खड़े बसेसर-नुमा आदमी पर पड़ी।
ग़ाज़ियाबाद पीछे छूट चुका था और नई बन रही सड़कों के बीच एक गाँव निराशा के बीच मानों नव-सम्मान का सर उठा के खड़ा था।
गाँव के आशापूर्ण नेत्र निर्माण की धूल से निराश और व्याकुल नहीं होते। शहर के पास सहनशीलता और संवरण नहीं है। बसेसर और बसेसरनुमा लोग हनुमान जी का कोप नहीं ले सकते, शहर उन्ही बजरंगबली को लेकर कभी भी शर्मिंदा हो लेता है। शहर हर बात पर व्यापार ढूँढता है, गाँव संस्कार का संरक्षक है। शहर अख़बार पढ़ता है, गाँव संवाद स्थापित करता है। शहर शिकायत करता है, गाँव गले लगाता है।
शहर बनती हुई सड़क के हर मोड़ पर, चौड़े फ्लाईओवर से उतर कर जाम में फँसते ही अपशब्द निकालता है, गाँव टूटी सड़क पर चलते हुए हाथ आकाश की ओर छोड़ कर कहता है- होईंही वही जो राम रची राखा। शहर साफ़ होते प्लेटफ़ार्म के कोने पर धरे कूड़े के ढेर को पेप्सी की बोतल फेंक कर सरकार को कोसता है, नव निर्माण की धूल में फँसे बसेसर को निर्विकार भाव मंदिर के आगे आँख मूँदे देख शर्मिंदा होता है। लेकिन बसेसर, बसेसर कम माँगता है, कम कोसता है। बसेसर कुछ नहीं समझता है।

Published on April 07, 2018 21:54
April 5, 2018
Night and Day- By Virginia Woolf- Book Review

Literature doesn't levitate over the messy mayhem of life. It is not a flower which blooms in isolation. Stories begin to breathe in the cusp of social context and the characters of the story. The delicate balance between the data and the desire, statistics and the sublime texture of human feelings extending between the individual and the environment- is where Literature finds its feet. The success and failure of a writer lies in reaching this place of perfect balance. If she leans too much towards the environment, she ends up writing propaganda pamphlet; if she leans totally towards the individual, she ends up writing a handicapped story resembling a diary, written from the perspective of one individual only. Even when someone like Dostoevsky writes Notes from the Underground, which largely happens within the mind of the protagonist, there is still a definite sense of society in which the individual exists, even if by implication.
Night and Day, which is the second novel of the most exceptional novelist of last century, Ms. Virginia Woolf (1882-1941) after On Voyage Out.While her first novel was widely appreciated, this was not exactly the darling of many critics in her time. Ms Woolf tells a story, beautifully, painstakingly, with each word carefully picked and polished. Unlike her later books, for instance, The Waves, Ms Woolf does not toy with experimental-ism in this novel.This is a story well-told as Ms. Woolf's stories are and writing exquisitely, as she always wrote. The story, much in Dostoevsky fashion, is written with the characters given huge emphasis. Words dance in the dark distances between human souls, expanding a moment and contracting the other, like a humongous beating heart, which connects all the characters of the story. Words are beautifully placed, taut but never tense; softly ripe, but never limping into too much of ripeness.
Ms. Woolf finished writing this novel in November, 1918, right about the time the War ended. While the story has fleeting references to the War, the war is not a subject and we do not find the ominous shadow of the war hanging over the story. This is not a war-story. Many took objections to this fact. A writer that Ms. Woolf herself was a big fan of took seemingly the strongest jibe on her, when this book came out. Katherine Mansfield an established writer at the time, and one whom Woolf considered a friend and sort of mentor, called this book a lie in the soul in her letter to John Middleton Murry, as according to her, the story totally ignored the War, as if it never had happened. In her review of the book in Athenaeum she is kinder, even commendatory of Woolf's writing, though with her annoyance about the contemptuous ignore which Woolf offered to the war visibly simmering beneath her praise, when she wrote:
"The strangeness lies in her aloofness, her air of quiet perfection, her lack of any sign that she has made a perilous voyage- the absence of any scar."
While I love Katherine's writing, I do not agree with her. Ms Woolf's characters don't float with aimless ambiguity like balloons. They have their feet on the ground, firmly placed in a very real world. One finds the references to the struggle for women's voting rights, the class conflicts between an elite and erudite literary lit-up world of Katherine Hilbery, grand-daughter of a famed writer, scion of a rich, culturally and economically rich family. Mary Datchet is a study in contrast, who comes from not a privileged background and still has carved a space for herself by choosing the life of a working woman and in process, writes Ms Woolf, lost the look of the irresponsible spectator and had taken on that of a private in the army of workers.
Virginia Woolf is wise, witty and timeless. The legacy, the illustrious family name sits heavy on the Katherine's emancipated shoulders longing to grow wings and fly off. She struggles between the obligations of her great name and the choices she wants to make. Ms. Woolf focuses on these very human issues and choices. A calculated distance that she keeps from the developments of a very interesting story, allows her space to fit in brilliant observations which are as relevant today as they were when they were penned. Take an example here:
'It may be said, indeed, that English society being what it is, no very great merit is required, once you bear a well-known name, to put you into a position where it is easier on the whole to be eminent than obscure.... One finds them at the tops of professions, with letters after their names; they sit in luxurious public offices, with private secretaries attached to them; they write solid books in dark covers, issued by the presses of the two great universities, and when one of them dies the chances are that another of them writes his biography.'
She is written with amazing clarity about the cozy club of entitled elites, who go about trotting their famed family names. Unfortunately, things today haven't changed much from the way they were in 1919. It is this timelessness and eternal beauty of language which makes this book thoroughly enjoyable. Do read. This book is like a mirror to human life and human history.

Published on April 05, 2018 10:10
April 4, 2018
राहुल गाँधी की आधुनिक महाभारत - Rahul Gandhi's Mahabharat

राहुल गाँधी की आधुनिक महाभारत (Below is Rahul Gandhi's Interpretation of Mahabharat)
आज से कोई १००० वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ। रोमिला आँटी के अनुसार क़रीब 900 AD के आस पास का काल महाभारत बताया जाता है।
महाभारत युद्ध के काल मे ‘यंग इंडिया’ के अध्यक्ष मोतीलाल वोरा अँकल सच मे युवा भारतीय थे और धृतराष्ट्र जी को युद्ध का वृतांत बताने वाले संजय के टी वी का एँटीना घुमा कर वही एडजस्ट कर रहे थे।
धृतू अँकल को कुछ नहीं दिखता था, बिल्कुल मन्नू अँकल जैसे, और उनके जीवन का उद्देश्य भी युवराज के मैच्योर होने तक सत्ता की रक्षा करना था। समस्या वहाँ भी यही थी कि लाख प्रयास करने पर भी युवराज मैच्योर ना हो पा रहे थे, और माता गाँधारी युवराज को राष्ट्र पर ठेले पड़ी थीं।
माता गाँधारी ने गाँधार से भारत आने के बाद लगभग दशक तक भारत मे बसने के बारे मे विचार किया। गहन विचार के उपरांत उन्होंने भूरे रंग के भारतियों के उद्धार का निर्णय लिया। मूढ़ मगज भारतीयों ने उनके उनके इक राष्ट्र का उद्धार करने के भार का निरादर कर के उन्हे सत्ता को संभालने नहीं दिया। तब जाकर राजमाता को भारतियों को अति- प्रिय त्याग का लडडू खिलाया और धृतराष्ट्र को उनके अंधेपन पे भरोसा कर के सम्राट नियुक्त किया, और वास्तविक सत्ता के निर्वहन के लिए शकुनि जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार मण्डल का गठन किया।
समय के साथ युवराज सुयोधन, अपने पैतृक अधिकार को सुनिश्चित जान कर अपनी क्यूटता में आत्मचिन्तन के माध्यम से वृद्धि करने में जुट गए। जहाँ महाराज धृतराष्ट्र अपनी नेत्रहीन की भूमिका में सिंहासन पर सेटल हो गए, वहीं गुरू द्रोण गृह मंत्रालय और वित्त -व्यापार सँभालते, राजमाता के निर्देशानुसार दस टका प्रति डील पर राज्य चलाने मे व्यस्त हो गए।
द्रोण किसी भी विरोधी स्वर को अर्ध रात्रि मे डंडा-वंदन के द्वारा कुशलता से शाँत करने मे कुशल थे, चाहे वो महल में हो या रामलीला मैदान में। उनका पुत्र अश्वत्थामा कुबेर का यान चुरा कर हाई फ्लायर बना, और अकसर यवन देशों में हिमपात का आनंद लेते हुए अपनी तस्वीर नगर पट्टिका पर टाँग कर जनता का जी जलाया करता था।
हाई फ्लायर अश्वत्थामा अपने चित्रों पर किसी टिप्पणी को पसंद नही करता था, और टिप्पणी करने वाले को कारागृह मे डलवा देते थे। महाबली अश्वत्थामा को सुपरमैन पोज मे तस्वीर खिँचाने का ख़ासा शौक़ था परंतु बहुत इच्छा होने पर भी लोक मर्यादा के अनुसार वह अंतर्वस्त्र बाहर नहीं पहनते थे। इस विषय पे महृषि विदुर ने 66 A का नियम बना कर बाल -द्रोण के बहुत सहायक रहे।
युधिष्ठिर और पाँडव, जो कि ब्राह्मणवादी, लम्पेन फ़्रिंज तत्व थे, उन्होंने ख़ानदानी कौरवों से पाँच गाँव माँगे। बताया जाता है कि पाँडवो ने शहर की बजाय गाँव इसलिए माँगे क्योंकि उन्हें रूरल विद्युतीकरण का अभूतपूर्व चाव था।
नकुल और सहदेव संघी गोरक्षक थे। वे एमनेस्टी या पेटा जैसे किसी प्रतिष्ठित संस्था से जुड़ कर अच्छा कैरियर बना सकते थे किन्तु अंग्रेज़ी का ज्ञान ना होने के कारण फ़्रिंज हो कर रह गए। सो डाउन मार्केट !
आगे की कथा हमें गुटखे वाले अंकिल के पुत्र, हमारे सायकिल सखा ने बताई। बहरहाल युधिष्ठिर अपना पाँच गाँव प्राप्त कर के उनमें बिजली-उजली दे के राज चलाने लगे। सुयोधनवा गाँधार वग़ैरह सब जगह कृपाचार्य के द्वारा चिट्ठी लिखा के जुधिस्ठिर का हुक्का पानी बंद करवा दिहिस।
फासिस्ट जुधिष्ठरवा अपन गाँव मे जबरजस्त बिकास ठेला और सब को बोला कि जे देखो इंद्रप्रस्थ माडल। उसमें भी सबसे बड़ा गड़बड़ ये किया कि कृष्ण को साथ लेके जादौ भोट में सेंध मार लिहिस। किन्तु भले ही जैसे अम्बेडकर को मोदी जी ने अपनी ओर कर लिया, दंगाई सेना हमारे साथ है, वैसे ही सुयोधन ने कृष्ण की सेना को अपनी और किया।
ख़ैर, आगे जो है युद्ध हुआ। कर्ण के प्रसंग को ऊना की भाँति आगे लाकर दलित नेरेटिव खींचा गया। और भाई के भाई से संघर्ष की मस्त पृष्ठभूमि खिंची। संजय भाई टैक्स दबा के चुराए, पर द्रोण जी ने उन्हें दस टका पर डील के अंतर्गत एमनेस्टी दे कर , प्रेस फ़्रीडम के नाम पर युद्ध के कवरेज का एक्सक्लूसिव राईट दिया।
इसके आगे की कथा, गुहा जी के अनुसार इतिहास से संघी छेड़ छाड का नतीजा है। सूत्र बताते हैं कि वास्तव मे युद्ध मे पाँडवो की हार हुई। धर्म की हार की वजह से ही आज शैम्पू स्वामी निद्रा में “मैं हिंदू क्यूँ हूँ” कह कह कर विलाप करते हैं। उनकी इसी दुःख की वजह से चिर-चिंतित मुद्रा उन्हें बुद्धिजीवी और महिलाओं में आकर्षक बनाती है।
युद्ध के लिए सुयोधन ने विदेशों में जा के भाषण दिए और गाँधार से इस्लामिक सेना बुलाई गई। पाँडवों के ठाकुर-यादव समीकरण के तोड़ में राजमाता गाँधारी ने दलित-मुस्लिम समीकरण कर्ण के साथ ख़िलजी को बिठा कर सेट किया। यही समीकरण आज भी भारत वर्ष में हमारे काम आता है।
मुझे लगता है कि मॉमा भारत पर राज करने के इस पौराणिक फ़ार्मूले की खोज मे लाला रामदेव से और उपयोग में माता गाँधारी से कम नहीं है। फ़ार्मुला आज भी सौ टका कामयाब है ।
युद्ध के अंत में कारण भी कुरुवंश का शासन शाट वर्षों के लिए स्थापित होता है, और भ्रष्ट्राचार्य के राष्ट्रीय स्वभाव की नींव पड़ी।
अंत मे दलित कर्ण को बोध होता है कि वह अपने परिवार से ही लड़ रहा था। तब तक परंपरा और इतिहास का कवच कुँडल खो कर कर्ण परलोक सिधार जाता है और भारत में प्रथम इस्लामिक सल्तनत नींव पड़ती है।
यही महाभारत का सत्य था जो सिर्फ कांग्रेस को पता है। संघी इतिहासकारों ने इसी सत्य को छुपाने के लिए १००० वर्ष पूर्व हुए महाभारत को ६०००-७००० साल पहले का बताया। ये संघी झूठ है। हम आज भी कर्ण और बाक़ी पांडवों के बीच भेद बना कर, गांधार की भाँति विदेशी समर्थन पा कर, एक युद्ध की स्थिति बना के सत्ता में आ सकते हैं।

Published on April 04, 2018 08:09
April 2, 2018
क्षमा बड़ेन को चाहिए

हर राष्ट्र का एक राष्ट्रीय भाव होता है। फ्राँस का राष्ट्रीय भाव कला है, ब्रिटेन का न्याय, अमरीका का स्वच्छन्दता, चीन का हर चीज़ का भाव लगाने का भाव, पाकिस्तान का गुंडई का, और भारत का क्षमा का। क्षमा हमारा राष्ट्रीय भाव एवम् राष्ट्रीय शग़ल हैं।क्षमा माँगना और क्षमा प्रदान करना हमें व्यस्त रखता है। जब हमारे पास करने को कुछ नही होता तब हम निंदा करते हैं, जब करने का अवसर आता है तब हम क्षमा कर देते हैं।क्षमा करने और माँगने से समाज में प्रवाह बना रहता है। अपशब्द बोलने वाले को बोलते समय परिणाम का भय नहीं होता, क्षमा माँगते समय उसमें लज्जा एवम् ग्लानि का भाव नहीं होता।क्षमा करने और माँगने से समाज में प्रवाह बना रहता है। अपशब्द बोलने वाले को बोलते समय परिणाम का भय नहीं होता, क्षमा माँगते समय उसमें लज्जा एवम् ग्लानि का भाव नहीं होता।क्षमा का गुण ही राजनीति मे मिथ्यावादिता एवम् अनर्गल आरोप प्रत्यारोप की परंपरा को जीवित रखता है। अनर्गल आरोप की परंपरा और क्षमा माँगने की महान कला का हमारे समय से लोप हुआ जा रहा था।
राजनीति का परिपेक्ष्य क्रूर, कुटिल एवं आनंदरहित है। एक समय राजनीति मे आनंद था। नेहरू जी ने संसद को चीन आक्रमण के बाद हफ़्तों तक झूठ की चाशनी बाँटी और फिर कह दिया ‘सारी’। कृतज्ञ राष्ट्र ने रोमाँचित होकर उन्हें क्षमा किया और भारत-रत्न दिया।
आज के समय में मिथ्या-भाषण स्तरहीन हो गया है, और क्षमा का भाव मिटता जा रहा है। राहुल जी चीन के राजदूत से, पूर्व प्रधानमंत्री पाकिस्तान के राजदूत से चुपके चुपके मिलते हैं, पहले खंडन करते है, फिर कहते हैं- तो क्या? क्या ऐसे धमकाने की जगह वह क्षमा नहीं माँग सकते थे?
क्षमा ना माँगने के स्वभाव से राजनैतिक आदान-प्रदान रूखा हो जाता है। लोग मज़ेदार आरोप लगाने से कतराते हैं।मसलन क्या मोदी जी जवाब देंगे कि मिशन मार्स के यान में उन्होंने नोटबंदी से पहले अपनी पार्टी का सारा काला धन मंगल पर भेज कर देश को गुमराह किया?
एक उत्तरदायी राजनीति क़तई रसहीन राजनीति होती है। क्षमा की फ़ैसिलिटी के अभाव मे क्या जन जीवन, क्या राजनीति- दोनों रसहीन हो जाते हैं। इसमें यह आवश्यक नहीं है कि आरोप तथ्यों पर आधारित हों और क्षमा ग्लानि पर। कश्मीरी नेता गिलानी पर और दिल्ली के नेता ग्लानि पर क्षमा नही माँगते।
क्षमा महँगे वक़ील और धन के अभाव मे असत्य को दूर तक खीँचने मे आने वाली कठिनाई से होता है। राजनीति मे बड़े बड़े लोगों के आने से क्षमा का प्रवाह रूक गया था। लोग गंभीर आरोप लगाते थे, और लोग उनका गंभीरता से उत्तर देते थे।
क्षमा की राजनीति के लिए व्यक्ति का छोटा होना आवश्यक है। जब संत केजरीवाल ने रामलीला मैदान से लाला रामदेव को हटाने के बाद पहली बार उद्घोषणा की- मैं छोटा आदमी हूँ- उन्होंने आरोप एवं माफ़ी की मनोरंजक राजनीति की पुनर्स्थापना की। व्यक्ति छोटा ना हो तो क्षमा माँग ही नहीं सकता।
केजरीवाल जी ने लुप्त होती क्षमा की परंपरा का पुनरोद्धार किया। कविवर ने खान साहब पर आरोप लगाया, केजरीवाल जी ने उन्हें पार्टी से निकाला, फिर क्षमा प्रदान कर वापस ले आए। क्षमा के हथियार से लैस केजरीवाल जी ने शब्दों से संकोच नहीं किया।
‘क्षमा बड़ेन को चाहिए, छोटन को उत्पात’ के सिद्धान्त पर चलते हुए खुद स्वघोषित छोटा आदमी बन कर उन्होंने जम कर उत्पात मचाया और आम जनता का भरपूर मनोरंजन किया।
क्या राजा, क्या प्रजा, क्या मंत्री, क्या फ़ौज- केजरीवाल जी ने बड़े छोटे मे आरोप प्रत्यारोप मे कभी भेद नहीं किया। सूचना का अभाव और घटना से दूरी से वह कभी प्रभावित नहीं हुए। असम से अंडमान तक के घटनाक्रम पर नज़र रखी और ‘’इज इट ट्रू’ कह कर मंत्री -संतरी सब पर समभाव से आरोप लगाए।
उन्होंने राजनीति मे न आने का प्रण लिया, फिर अन्ना जी से क्षमा माँग उतर गए। काँग्रेस का नाश करने का प्रण लिया, कार्यकर्ताओं से क्षमा माँग, समर्थन ले सरकार बनाई। कुछ महीनों मे जनता से क्षमा माँग कर सरकार छोड़ दी, और फिर रेडियो पर क्षमा माँग कर फिर सरकार मे आ गए।
सत्य आज के समाज मे दुर्लभ वस्तु है, हमें चाहिए कि हम उसका उपयोग कम से कम करें। ऐसे मे पकड़े जाने की संभावना और क्षमा के अस्त्र की उपयोगिता बढ़ जाती है। केजरीवाल जी ने इसका उपयोग एक महान योद्धा कि भाँति किया।
उन्होंने ‘इज इट ट्रू’ का फुदना लगा कर असत्य को इतनी कुशलता से उपयोग में लिया कि आज यह समाचार चैनलों के प्रिय शब्द - अलेजेडली - को टक्कर दे रहा है। उत्पात तो ऐसा मचा कि कबीर के शब्दों मे- “जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ ‘आप’”
यह संत कबीर की दूरदर्शिता थी कि उन्होंने भविष्य मे इतनी दूर झाँक कर ‘आप’ और क्षमा का संबंध बाँधा। समय आ गया है इस लुप्त होती कला की रक्षा के लिए किसी चैनल के कानक्लेव मे केजरीवाल जी को सम्मानित किया जाए। पंजाब के इतिहास मे केजरीवाल समझौते का स्थान लोंगोवाल समझौते से कम न होगा

Published on April 02, 2018 07:39
March 20, 2018
कांग्रेस संत समागम - Congress Sant Samagam

बहरहाल नव-नियुक्त ब्रह्मऋषि डिम्पल बाबा ने, घड़ी को देखा। बारह बज गए थे और प्रात: सूर्य वंदना का समय था। रोलेक्स राजर्षि को भी अब पहुँचना चाहिए था। संत सिब्बल यूकिलिप्टस के वृक्ष के नीचे आसन लगा कर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। डिम्पल बाबा ने प्रण लिया था कि ओल्ड फ़ैशन वट वृक्ष या पीपल वृक्ष के स्थान पर उनका स्थान युकलिप्टस के तले होगा। पीपल और वट वृक्ष की तुलना में युकलिप्टस कितना युवा लगता है, और पत्तियों तथा धरती के बीच की दूरी बाल-ऋषि के भाई के जैसे धृष्ट लोगों को संदेश देती है कि ख़ानदानी पत्तों और ज़मीन के बीच की यह सम्माजनक दूरी कितनी आवश्यक है। अच्छा हुआ बालऋषि का विद्रोही भाई मैनेज हो गया अन्यथा काँग्रेस मुख्यालय के शौचालय की कुँडी पता नहीं क्या काम आ पाती।
बहरहाल, डिम्पल बाबा ने आसन ग्रहण किया। संत सिबल ने प्रणाम कर के उनका स्वागत किया। डिम्पल बाबा के अधरों पर मुस्कान छा गई। ये दो व्यक्ति हैं, संत सिबल और औघड मलंग लालू जिन्हें देख अक्सर डिम्पल बाबा के मन मे विचार आता था कि क्या कोई व्यक्ति कानों से पेंटिंग कर सकता है?
तब तक महात्मा शैम्पूस्वामी भी आ चुके थे। शैम्पूस्वामी कमाल के प्रतिभाशाली व्यक्ति थे और शादियों के अंतर्राष्ट्रिय कीर्तिमान बनाने को कृतसंकल्प थे। डिम्पल बाबा को विश्वास था कि कम से कम विवाह के संदर्भ मे उनके भूतपूर्व गुरू को अवश्य पटखनी देंगे। उनके भूतपूर्व गुरू व्योमकेश बख़्शी की नावेल पढ़ कर जासूसी की तरफ़ चल पड़े थे और महिला उद्धार का समस्त भार शैम्पूस्वामी के कँधों पर आ रुका था।
शैम्पूस्वामी भाषा पर भारी पकड़ और बुद्धिजीवी वर्ग मे घोर सम्मान रखते थे। युवा प्रतिभाओं पर वैवाहिक कीर्तिमान के संदर्भ से परे भी उनका खाया दखल था और विरोधी नेता के विरोध करने वाले हर व्यक्ति को भाषाविद, लेखक और समाजसेवी बना कर सार्वजनिक मँच पर उतारने की कला मे वह पारंगत थे। किसी भी बात को कोई भी मोड़ देने मे उनका कोई सानी न था। मसलन उनकी पुस्तक “मैं हिंदू क्यूँ हूँ” को हिंदू होने की व्याख्या, विरोध, विस्मय, विश्वास या ग्लानि - किसी भी रूप में पढ़ा जा सकता है। कल उन्होंने ही डिम्पल जी के ईवीएम विरोध को क्रान्तिकारी मोड़ देकर उन्हें ब्रह्मऋषि घोषित किया। उन्होंने ईवीएम को हिन्दू सिद्धान्त “वीर भोग्या वसुंधरा”!के विपरीत बताया। उन्होंने बताया कि परंपरागत मतदान के समाप्त होने के कारण बूथ कैप्चरिंग जैसी पुरुषार्थपूर्ण गतिविधियों का लोप होना हिन्दूओं मे भीरूता का कारण बताया। इस प्रकार डिम्पल बाबा ने तथाकथित हिन्दुवादी दलों की हिन्दुविरोधी साज़िश को उजागर किया। शैम्पूस्वामी की यही महानता, कि वे डिम्पल बाबा की छींक मे छुपे दर्शन पर भी ३०० पन्नों की पुस्तक लिख सकते थे,उन्हें डिम्पल बाबा के क़रीब लाती थी। सो उन्होंने पत्रकारों को, पत्रकारों ने जनता को समझाया और डिम्पल बाबा ब्रह्मऋषि घोषित हुए। हिन्दू धर्म-ध्वजा धारण करते ही रोलेक्स राजर्षि ने हिन्दू समाज के उद्धार की प्रार्थना प्रस्तुत की। राजर्षि प्रगतिशील हिंदू थे और रूढ़िवाद एवं अंधविश्वास से लड़ने को कृतसंकल्प थे। शैम्पूस्वामी ने बताया कि राजर्षि आज एक अंधविश्वास-विरोधी गोष्ठी के उद्घाटन मे जाने वाले थे परंतु पहले मुहूर्त नहीं बैठ रहा था, फिर निकलते समय उनकी गाडी पर कौवा बैठ गया। अत: वह सीधे बाबा के सत्संग में पहुँच रहे थे।
पहुँचते ही उन्होंने बाबा को प्रणाम किया। पहले बैठे, फिर झुके और अंतत: लेट हो गए, जो उनकी मूल अवस्था थी। आँखें बँद, घोर चिन्तन। वह अकसर मंत्रीमंडल के बैठक मे इसी योगनिद्रा मे पाए जाते थे। आज की सभा मे कर्नाटक चुनाव मे हिंदू वोटों पर चिन्तन था।
“हिन्दू हमें पिकल क्यों पुकार रहे हैं और नाराज़ क्यों हैं?” ब्रह्मऋषि ने प्रश्न अपने नेताओं की ओर और एक बिस्कुट कुत्ते की ओर फेंका।
शैम्पू स्वामी बोले - "बाबा, वो अचार नहीं आचार्य कहते हैं। इसका अर्थ है टीचर। "
बाबा को अर्थ समझ कर प्रसन्नता हुई किन्तु दूसरा प्रश्न बना हुआ था- "हिन्दू गुस्सा क्यों हैं?"
रोलेक्स ऋषि ने पहले शैम्पूस्वामी की ओर क्रोधपूर्वक देखा फिर बोले -
“बाबा, हिंदू हमें गौ विरोधी मानते हैं। और इनके प्रदेश मे बछड़े का वध हुआ। बीफ पार्टी तक ठीक है, पर टीवी पर काटने को किसने बोला?”
बाबा सोच में थे, अचानक बोले- “आप जनता को हमारे गौ प्रेम के बारे मे बताएँ। हमें गाय से बहुत प्रेम है। अब लोग पकाते ठीक से नहीं हैं और फिर इल्ज़ाम हम पर लगाते हैं। ठीक से नहीं पकाएँगे तो प्रेम कैसे आएगा?”
शैम्पूस्वामी को भान हुआ कि बात विपरीत दिशा में जा रही है। बोले, “संत सिबल ने श्री सीता राम को काल्पनिक बताया इस लिए हिंदू नाराज़ है।”
“अरे तो नाराज़ हो के क्या कर लेगा?” संत सिबल भड़क कर बोले। “और राम मिथ हो या ना हो, हिंदू वोट आज के भारत का सबसे बड़ा मिथ है। हिंदू- विंदू कुछ नही होता, सब मन का वहम है। होता है जाट, गुर्जर, बनिया, बाभन, पटेल, यादव। होता है उत्तर -दक्षिण भारतीय। हिंदू अपने आप में कोई परिभाषित करने वाली वस्तु नहीं है। हिन्दू वोट वैसे ही है जैसा हमने पहले कहा था - २ जी लॉस की तरह- नोशनल, सांकेतिक, अयथार्थ। जात से निकलेगा तो वर्ग में बटेगा - रूढ़िवादी, प्रगतिशील, अमीर, गरीब, शिक्षित, अशिक्षित। मोनोलिथ होता है मुस्लिम, ईसाई, वही सत्य है। उस पर ध्यान दीजिए। इनके तो भगवान भी अलग हैं तो भगवा क्या एक होगा। ”
रोलेक्स ऋषि को ये इंटरवेंशन पसंद नहीं आया। बोले- “देखिए, आप संत आदमी हैं, राज्य सभा वाले, रोहिंग्या, आईसीस के मुक़दमे लड़ के घर चला लेंगे। हमें चुनाव लड़ना और जीतना होता है।”
डिम्पल बाबा सोच मे थे। ब्ह्मऋषि को दैवीय संदेश की प्रतीक्षा थी। बाबा ने चाय के कप मे बिस्कुट डुबोया। आधा बिस्कुट गल कर गिर गया। बाबा की आँखें चमक उठी मानो डूड फ्राम माऊंटेन ने आवाज़ दी हो। बाबा ने डिम्पलयुक्त मुस्कान रोलेक्स ऋषि की तरफ़ फेंकी और बोले- “तोड़ो”
संतों की मंडली पर एक अध्यात्मिक शाँति छा गई। हिंदू वोट का रहस्य खुल गया। डिम्पल बाबा सच ही ब्रह्मऋषि हैं। उनसे बेहतर हिंदुत्व के भेद कौन जानता है? शैम्पू स्वामी तेजी से डिंपल बाबा के मोनोसिलबिक सन्देश का मानवी भाषा में रूपांतर करने में व्यस्त हो गए। माता गांधारी द्वारा हिंदी भाषण की हाल में हुई दुर्गति के बाद कोई रिस्क लेना उचित नहीं था, नर्मदा को नर-मादा तक ले जाना तो ठीक था पर ये तो कुछ और ही था, मीडिया हमारी न होती तो पता नहीं क्या होती। राजमाता का भाषण उनकी कमज़ोर भाषा और बात का दब जाना उनके चमत्कारी मीडिया मैनेजमेंट का सूचक था।
जो भी हो हिन्दू धर्म को नया मार्ग प्राप्त हुआ था, और भारत के भूरे निवासियों को नया धर्म प्राप्त हुआ था, जिसे जन -सामान्य के बीच ले जाना आवश्यक था बीच बीच में संत शैम्पू जी डिंपल बाबा के आसन की तरफ देख कर प्रेरित होते थे। पेड़ पे टिके बोर्ड पर लिखा था - कर्म की इच्छा मत करो, फल की कामना करो। ब्रह्मऋषि अपने नन्हे कुत्ते से खेलने में व्यस्त हो चुके थे। हिंदुत्व सुरक्षित हाथों में था।

Published on March 20, 2018 04:06
March 9, 2018
लँगड का एमाराई
(Hindi Satire, inspired by immortal writing of late Shri Shrilal Shukl and his legendary Novel- Rag Darbari)
लंगडवा एम आर आई करवाने का सोच रहा था। फिर सोचा पता नहीं मशीन कहाँ कहाँ से जुड़ी होगी।
खन्ना मास्टर लंगडवा के उहापोह को बड़े ध्यान से देख रहे थे। ग़रीब का कष्ट अमीर को सदा ही ध्यानाकर्षक लगता है। उसी में उसकी आत्मा का उद्धार और राजनीति का चमत्कार छुपा होता है। खन्ना मास्टर जवान और जोशीले थे। चमकीली वास्केट पहनते थे, और गंजहा की जगह ख़ुद को गंजावाला कहलाना पसंद करते थे।
गंजावाला अपना चश्मा लहराते बालों में धकेल कर, मनुहार के लहजे में बोले - “जाओ हो, काहे घबराते हो? कब तक वैद जी के पीछे घूमते रहेगे? क़स्बा क्लीनिक जा कर एमाराई करा लो।”
“हमको थोड़ा डर लग रहा है।”
लंगडवा गंजावाला के उत्साह से भयभीत हो गया। अमीर आदमी ग़रीब के सुख में अचानक रुचि लेने लगे तो अक्सर ग़रीब के लिए भय और भ्रम का कारण होता है। एक राजकुमार पहले उत्साहित हुए थे तो जवाँ मर्द कंबल और ट्राजिस्टर प्राप्त कर के लौटे थे। उसके बाद उनके घर कभी किलकारियाँ नही सुनाई पड़ी , बस मुफ़्त के रेडियो में बिनाका गीत माला सुनाई पड़ती थी। ग़ज़ब का समय था जब जेल घर जैसा और घर जेल जैसा मालूम होता था। हाँ, रामाधीन जी कहते थे, ट्रेन समय से चलने लगी। लंगडवा पैदल ठीक न चला तो ट्रेन से कहाँ जाता। बहरहाल!
लंगडवा को सोच में डूबा देख कर गंजावाला खीझ गए। ऐसे विचारशील ग़रीबों के कारण ही देश में क्रांति नहीं आ पा रही है। इनका साथ वैदजी का हाथ और बद्री पहलवान की लात ही दे सकते हैं।
ऐसे नीरस निर्धनों के कारण ही गाँव में वैदजी की सत्ता और छंगामल विद्यालय में प्रिंसिपल साहब की सरकार अनवरत चले जा रही थी।खन्ना मास्टर लंगडवा को फिर से टहोके-
“अबे जाओ ना, डरते काहे हो? बेसी सोचते हो इसी से तुम्हारा घुटना टूटा है, सोचते भी तो घुटनवे से हो, और तिस पर इतना। गाँधी बाबा के चेले ऐसे सोचते बैठते तो आ चुकी थी आज़ादी। तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से विकास नहीं हो रहा है, सड़क नही बनती, ट्रेन समय से नहीं चलती- और तुम दोष देते हो चाचा को जो आज़ादी लाए, और चचा के नाती को, जो कम्प्यूटर लाए, और विदेश से विवाह करके एक देवी लाए जिन्होंने हमें डिम्पल कुमार दिया। और तुमने उनको सत्ता से बाहर कर दिया। क्यूटनेस का तो कोई भैलू ही नहीं है। ऐसे राष्ट्र का भला क्या होगा जिसे सौन्दर्य और सरकार दोनों का सम्मान ना हो। और डिम्पल बाबा ऐसे कृतध्न लोगों के लिए अमरीका से कृत्रिम बौद्धिकता ला रहे थे। वास्तविक बौद्धिकता तो वैसे ही पुरस्कार लौटा कर, वाईन पी कर कुंभकर्ण निद्रा में जा चुकी थी।
कुछ तो लज्जा करो, लँगड ।”- खन्ना मास्टर खिन्न हो कर बोले।
लँगड ने घबरा कर फटी बनियान को नीचे को खींचा। पर तुरंत समझ में आया कि खन्ना मास्टर का तात्पर्य शारीरिक लज्जा से नहीं था। खन्ना मास्टर उद्वेलित थे। खड़े हो गए। दीवार पर लगे पोस्टर को इंगित कर के बोले- “देखो, इस क़स्बे के विकास के मार्ग में तुम्हारी पिछड़ी सोच है। तुम एमाराई कराओगे तो तुम्हारा क्या जाएगा? डिम्पल बाबा की नई चुनावी योजना की जयकार होगी, सुन्दर नेता राष्ट्र का नेतृत्व करेगा।”
खन्ना मास्टर जोश में यूँ बोल रहे थे मानो लाखों लँगड उनकी वाणी का प्रसाद पाने ऊँकडू बैठे हो।
खन्ना मास्टर ख़ुद को संभाल कर बड़बड़ाए -
“हम दलित होते तो हम ही एमाराई करा के फ़ोटो खिँचा लेते।”
किन्तु दिव्य देवी का साफ़ निर्देश था, पहला एमाराई दलित का ही होना था। लेकिन लंगडवा को पता नही कौन जुड़े हुए एमाराई का बता गया था। अब यही बात उनके भविष्य पर कुँडली मार बैठ गई थी।
पोस्टर दिखा कर फिर वाणी पर संयम धरते हुए खन्ना मास्टर बोले-
“देखो कितनी सुन्दर मशीन है।”
लँगड शंकित मन से बोला- “वो गुफानुमा चीज़ फ़ोटो में क्या है?”
मास्टर मुस्कुरा पड़े- “अरे मेरे भोले लँगड, वही तो एमाराई है। इसी में तुमको डालेंगे।”
“लेकिन रुप्पन बाबू कहते थे कि डिम्पल बाबा भाषण में कह रहे थे ये मशीन दूसरा मशीन से जुड़ा है, फ़ोटू में दुसरका मशीन नही दिख रहा है।”
खन्ना मास्टर का धैर्य रुप्पन बाबू का नाम सुन कर और टूट गया। ‘ज़रूर प्रिंसिपल साहब के कहे से रुप्पन बाबू लंगडवा का कान भरे हैं’ सोच कर खन्ना मास्टर क्रोधपूर्वक किनारे रजनीगंधा थूके और बोले-
“तुम ग़रीब लोग सबका बात मान लेते हो, यही समस्या है।अरे, ये मशीन कहाँ जुड़ा है, दूसरा मशीन तीसरे से कहाँ जुड़ा है, इससे तुमको क्या। डिम्पल बाबा ख़ानदानी आदमी हैं, तुम्हारा ही नुक़सान करने बैठे हैं?तुम्हारे लिए बाबा सत्ता त्याग कर भी देश विदेश भटक रहे हैं, फटी जेब वाला कुर्ता पहनते हैं, रात को दिन में उठते हैं, दिन को रात में सोते है। समझ में नहीं आता कब क्या करते हैं। राजपरिवार के व्यक्ति इतना कष्ट उठा रहे हैं, और तुम जैसे लोगों को भरोसा ही नहीं है।डिम्पल बाबा, उनका परिवार, उनके जीजाजी तक, सब ज़मीन से जुड़े हैं तभी तुम जैसे के लिए संघर्ष कर रहे हैं वरना उनको कौन कमी है?”
खन्ना साहब इमोशनल कार्ड खेले।
अब यही समय का खेल देखें, जोगनाथवा को तभी धमकना था। मुस्कुरा कर बोला- “
हाँ लँगड, खन्ना मास्टर ठीक कह रहे हैं, पूरा ख़ानदान ज़मीन से जुड़ा है, जहाँ ज़मीन देखता है, वहीं जुड़ जाता है।”
खन्ना मास्टर भान गए कि ये अब खेला बिगाड़ेगा । लँगड को कोहनी से थाम कर किनारे ले गए।बोले-
“देखो तुम उ सब का बात मत सुनो। बस देखो एमाराई कराओ, एक पत्रकार फ़ोटो खींचेगा, बतला देना कि तुम दलित हो, और कहना कि ज़िला अस्पताल से तुमको भगा दिए काहे कि तुम्हारे पास आधार नहीं था।”
“लेकिन हम तो वहाँ नही गए?”
“हाँ, तो कौन धर्मराज तो तुम्हारी प्रतीक्षा में स्वर्ग मार्ग खोले खड़े है। जीवन में जैसे सदा सच ही बोले हो”
- खन्ना मास्टर कुढ़ कर बोले, और आख़िरी पत्ता खेले-
“एमाराई कराओ, दू सौ रूपया मिलेगा।"
डिम्पल बाबा के चचा दू सौ रुपया में नसबन्दी करा देते थे, क्या खन्ना मास्टर एमाराई ना करा सकेंगे? खन्ना मास्टर ने मन ही मन ख़ुद को लताड़ा।
लंगडवा मन में पत्थर रख के चलने को तैयार हो गया कि जोगनथवा पुकारा- “सुनो ना लँगड, एक मस्त वीडिओ है, देख जाओ।”लँगड मास्टर को देखे। मास्टर कहे - “जाओ, देख आओ।”
दोनों पेड़ के नीचे बैठ देखने लगे। खन्ना हैंडपंप पर कुल्ला कर के गुटखे के अवशेष निकालने लगे।
अचानक पीछे से लँगड की आवाज़ आई।
“मास्साब, एमाराई नहीं करा सकेंगे।”
खन्ना मास्टर पलटे। “काहे? समझाए तो, शिवपालगंज की मशीन से ना निकले तो हज़रतगंज की मशीन से निकलोगे। तुम्हारे तो आगे नाथ ना पीछे पगहा। रहोगे तो गंजहे ना, चिंता का क्या विषय है?”
बिना उनकी तरफ़ मुड़े लंगडवा चलता गया।
“डर जगह बदलने का नहीं है, मास्साब। मनुष्य जीवन बहुत कठिनाई से प्राप्त होता है, इसको नहीं छोड़ सकते। पता नहीं हज़रतगंज में कबूतर, बंदर, कुत्ता -क्या बन के निकलें।”
कह कर लँगड निकल गया। जोगनथवा लोट लोट हँस रहा था।
खन्ना मास्टर झपटे।
“दिखाओ तो क्या वीडिओ दिखा कर तुम लँगड के बरगलाए हो।”
जोगनथवा ने फ़ोन खन्ना मास्टर को थमा दिया। उसमें डिम्पल बाबा रैली में कह रहे थे - “हम ऐसी मशीन लाएँगे जिसमें एक तरफ़ से आलू डालो, दूसरी तरफ़ सोना निकलेगा।”
खन्ना मास्टर सिर पकड़ कर बैठ गए।

लंगडवा एम आर आई करवाने का सोच रहा था। फिर सोचा पता नहीं मशीन कहाँ कहाँ से जुड़ी होगी।
खन्ना मास्टर लंगडवा के उहापोह को बड़े ध्यान से देख रहे थे। ग़रीब का कष्ट अमीर को सदा ही ध्यानाकर्षक लगता है। उसी में उसकी आत्मा का उद्धार और राजनीति का चमत्कार छुपा होता है। खन्ना मास्टर जवान और जोशीले थे। चमकीली वास्केट पहनते थे, और गंजहा की जगह ख़ुद को गंजावाला कहलाना पसंद करते थे।
गंजावाला अपना चश्मा लहराते बालों में धकेल कर, मनुहार के लहजे में बोले - “जाओ हो, काहे घबराते हो? कब तक वैद जी के पीछे घूमते रहेगे? क़स्बा क्लीनिक जा कर एमाराई करा लो।”
“हमको थोड़ा डर लग रहा है।”
लंगडवा गंजावाला के उत्साह से भयभीत हो गया। अमीर आदमी ग़रीब के सुख में अचानक रुचि लेने लगे तो अक्सर ग़रीब के लिए भय और भ्रम का कारण होता है। एक राजकुमार पहले उत्साहित हुए थे तो जवाँ मर्द कंबल और ट्राजिस्टर प्राप्त कर के लौटे थे। उसके बाद उनके घर कभी किलकारियाँ नही सुनाई पड़ी , बस मुफ़्त के रेडियो में बिनाका गीत माला सुनाई पड़ती थी। ग़ज़ब का समय था जब जेल घर जैसा और घर जेल जैसा मालूम होता था। हाँ, रामाधीन जी कहते थे, ट्रेन समय से चलने लगी। लंगडवा पैदल ठीक न चला तो ट्रेन से कहाँ जाता। बहरहाल!
लंगडवा को सोच में डूबा देख कर गंजावाला खीझ गए। ऐसे विचारशील ग़रीबों के कारण ही देश में क्रांति नहीं आ पा रही है। इनका साथ वैदजी का हाथ और बद्री पहलवान की लात ही दे सकते हैं।
ऐसे नीरस निर्धनों के कारण ही गाँव में वैदजी की सत्ता और छंगामल विद्यालय में प्रिंसिपल साहब की सरकार अनवरत चले जा रही थी।खन्ना मास्टर लंगडवा को फिर से टहोके-
“अबे जाओ ना, डरते काहे हो? बेसी सोचते हो इसी से तुम्हारा घुटना टूटा है, सोचते भी तो घुटनवे से हो, और तिस पर इतना। गाँधी बाबा के चेले ऐसे सोचते बैठते तो आ चुकी थी आज़ादी। तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से विकास नहीं हो रहा है, सड़क नही बनती, ट्रेन समय से नहीं चलती- और तुम दोष देते हो चाचा को जो आज़ादी लाए, और चचा के नाती को, जो कम्प्यूटर लाए, और विदेश से विवाह करके एक देवी लाए जिन्होंने हमें डिम्पल कुमार दिया। और तुमने उनको सत्ता से बाहर कर दिया। क्यूटनेस का तो कोई भैलू ही नहीं है। ऐसे राष्ट्र का भला क्या होगा जिसे सौन्दर्य और सरकार दोनों का सम्मान ना हो। और डिम्पल बाबा ऐसे कृतध्न लोगों के लिए अमरीका से कृत्रिम बौद्धिकता ला रहे थे। वास्तविक बौद्धिकता तो वैसे ही पुरस्कार लौटा कर, वाईन पी कर कुंभकर्ण निद्रा में जा चुकी थी।
कुछ तो लज्जा करो, लँगड ।”- खन्ना मास्टर खिन्न हो कर बोले।
लँगड ने घबरा कर फटी बनियान को नीचे को खींचा। पर तुरंत समझ में आया कि खन्ना मास्टर का तात्पर्य शारीरिक लज्जा से नहीं था। खन्ना मास्टर उद्वेलित थे। खड़े हो गए। दीवार पर लगे पोस्टर को इंगित कर के बोले- “देखो, इस क़स्बे के विकास के मार्ग में तुम्हारी पिछड़ी सोच है। तुम एमाराई कराओगे तो तुम्हारा क्या जाएगा? डिम्पल बाबा की नई चुनावी योजना की जयकार होगी, सुन्दर नेता राष्ट्र का नेतृत्व करेगा।”
खन्ना मास्टर जोश में यूँ बोल रहे थे मानो लाखों लँगड उनकी वाणी का प्रसाद पाने ऊँकडू बैठे हो।
खन्ना मास्टर ख़ुद को संभाल कर बड़बड़ाए -
“हम दलित होते तो हम ही एमाराई करा के फ़ोटो खिँचा लेते।”
किन्तु दिव्य देवी का साफ़ निर्देश था, पहला एमाराई दलित का ही होना था। लेकिन लंगडवा को पता नही कौन जुड़े हुए एमाराई का बता गया था। अब यही बात उनके भविष्य पर कुँडली मार बैठ गई थी।
पोस्टर दिखा कर फिर वाणी पर संयम धरते हुए खन्ना मास्टर बोले-
“देखो कितनी सुन्दर मशीन है।”
लँगड शंकित मन से बोला- “वो गुफानुमा चीज़ फ़ोटो में क्या है?”
मास्टर मुस्कुरा पड़े- “अरे मेरे भोले लँगड, वही तो एमाराई है। इसी में तुमको डालेंगे।”
“लेकिन रुप्पन बाबू कहते थे कि डिम्पल बाबा भाषण में कह रहे थे ये मशीन दूसरा मशीन से जुड़ा है, फ़ोटू में दुसरका मशीन नही दिख रहा है।”
खन्ना मास्टर का धैर्य रुप्पन बाबू का नाम सुन कर और टूट गया। ‘ज़रूर प्रिंसिपल साहब के कहे से रुप्पन बाबू लंगडवा का कान भरे हैं’ सोच कर खन्ना मास्टर क्रोधपूर्वक किनारे रजनीगंधा थूके और बोले-
“तुम ग़रीब लोग सबका बात मान लेते हो, यही समस्या है।अरे, ये मशीन कहाँ जुड़ा है, दूसरा मशीन तीसरे से कहाँ जुड़ा है, इससे तुमको क्या। डिम्पल बाबा ख़ानदानी आदमी हैं, तुम्हारा ही नुक़सान करने बैठे हैं?तुम्हारे लिए बाबा सत्ता त्याग कर भी देश विदेश भटक रहे हैं, फटी जेब वाला कुर्ता पहनते हैं, रात को दिन में उठते हैं, दिन को रात में सोते है। समझ में नहीं आता कब क्या करते हैं। राजपरिवार के व्यक्ति इतना कष्ट उठा रहे हैं, और तुम जैसे लोगों को भरोसा ही नहीं है।डिम्पल बाबा, उनका परिवार, उनके जीजाजी तक, सब ज़मीन से जुड़े हैं तभी तुम जैसे के लिए संघर्ष कर रहे हैं वरना उनको कौन कमी है?”
खन्ना साहब इमोशनल कार्ड खेले।
अब यही समय का खेल देखें, जोगनाथवा को तभी धमकना था। मुस्कुरा कर बोला- “
हाँ लँगड, खन्ना मास्टर ठीक कह रहे हैं, पूरा ख़ानदान ज़मीन से जुड़ा है, जहाँ ज़मीन देखता है, वहीं जुड़ जाता है।”
खन्ना मास्टर भान गए कि ये अब खेला बिगाड़ेगा । लँगड को कोहनी से थाम कर किनारे ले गए।बोले-
“देखो तुम उ सब का बात मत सुनो। बस देखो एमाराई कराओ, एक पत्रकार फ़ोटो खींचेगा, बतला देना कि तुम दलित हो, और कहना कि ज़िला अस्पताल से तुमको भगा दिए काहे कि तुम्हारे पास आधार नहीं था।”
“लेकिन हम तो वहाँ नही गए?”
“हाँ, तो कौन धर्मराज तो तुम्हारी प्रतीक्षा में स्वर्ग मार्ग खोले खड़े है। जीवन में जैसे सदा सच ही बोले हो”
- खन्ना मास्टर कुढ़ कर बोले, और आख़िरी पत्ता खेले-
“एमाराई कराओ, दू सौ रूपया मिलेगा।"
डिम्पल बाबा के चचा दू सौ रुपया में नसबन्दी करा देते थे, क्या खन्ना मास्टर एमाराई ना करा सकेंगे? खन्ना मास्टर ने मन ही मन ख़ुद को लताड़ा।
लंगडवा मन में पत्थर रख के चलने को तैयार हो गया कि जोगनथवा पुकारा- “सुनो ना लँगड, एक मस्त वीडिओ है, देख जाओ।”लँगड मास्टर को देखे। मास्टर कहे - “जाओ, देख आओ।”
दोनों पेड़ के नीचे बैठ देखने लगे। खन्ना हैंडपंप पर कुल्ला कर के गुटखे के अवशेष निकालने लगे।
अचानक पीछे से लँगड की आवाज़ आई।
“मास्साब, एमाराई नहीं करा सकेंगे।”
खन्ना मास्टर पलटे। “काहे? समझाए तो, शिवपालगंज की मशीन से ना निकले तो हज़रतगंज की मशीन से निकलोगे। तुम्हारे तो आगे नाथ ना पीछे पगहा। रहोगे तो गंजहे ना, चिंता का क्या विषय है?”
बिना उनकी तरफ़ मुड़े लंगडवा चलता गया।
“डर जगह बदलने का नहीं है, मास्साब। मनुष्य जीवन बहुत कठिनाई से प्राप्त होता है, इसको नहीं छोड़ सकते। पता नहीं हज़रतगंज में कबूतर, बंदर, कुत्ता -क्या बन के निकलें।”
कह कर लँगड निकल गया। जोगनथवा लोट लोट हँस रहा था।
खन्ना मास्टर झपटे।
“दिखाओ तो क्या वीडिओ दिखा कर तुम लँगड के बरगलाए हो।”
जोगनथवा ने फ़ोन खन्ना मास्टर को थमा दिया। उसमें डिम्पल बाबा रैली में कह रहे थे - “हम ऐसी मशीन लाएँगे जिसमें एक तरफ़ से आलू डालो, दूसरी तरफ़ सोना निकलेगा।”
खन्ना मास्टर सिर पकड़ कर बैठ गए।

Published on March 09, 2018 23:27
March 3, 2018
Decoding the Eastern Sunrise- The Modi Phenomenon

Why do we fall in love? I would posit that we do not fall in love because the object of our love is captivating, Charming and exceptionally brilliant. We fall in love because we are ready to fall in love. The theory is quite unromantic but I have a feeling that it is quiet true. It is represented in another as a drier postulate, the age-old saying- Nothing can stop an idea whose time has come.
The protagonist is no longer important. The actors of the play become incidental once the time is ripe, the idea they represent becomes critical. That is what has happened to Narendra Modi in the North-East.
Narendra Modi is not a person any longer. Narendra Modi is now a thought, an idea and an ideology. Every election of Narendra Modi is now an existential struggle for civilizational continuity of India. With his foolhardy approach to the national polity, where Rahul Ghandy keeps shifting from Topidhari to Janeudhari to Chogadhari , Congress has demonstrated a thorough lack of respect for the intelligence of the people and exasperated the people beyond the boundaries of their patience.
The North-East has always faced abject apathy from the various dispensations which ruled from Delhi. The North-East, the Seven Sisters, as they are fondly called, were made into Victorian-era kids who should not speak unless they were spoken to. Rather then pushing the nation into positive action after the pathetic political debacle of 1962; we, as a nation, rather retired into a royal sulk which extended for decades. We were fine with signing cheques and tolerated the discontent and violence in the North-east as it rarely touched the mainland, in the way Punjab or Kashmir violence did. As we went over-board trying to win the hearts and minds of the Kashmiris, which danced on the international dance-floor, backed by middle-eastern and Pakistani funding; we ignored the East. The demography changed, the region suffered and we sat fiddling our fingers.
We ignored the North-East even when there were pressing Military and diplomatic reasons not to do so. China had poked its wily fingers into our sleepy eyes in 1962 but we continued to sleep. Even to get Tawang into our fold, back from Lhasa administration, we waited for sly, swift action of non- Army (then) Assam Rifles, an act done without the knowledge of Nehru inviting his infamous wrath. North-East, irrespective of all the well-meaning noises meant nothing but a minor annoyance, and remained a mythical place which the rest of India read about in Geography books, and where most of the Bengalis retreated for vacations. This made the North-East an open playground of secessionists and the Church which wanted to create some sort of Vatican Colony out of disenchanted tribal-folks of the North-East.
Unloved and ignored by the mainland, the North-East fell out of the psychological map of India. To think that the area which shares the most hostile borders did not have a broad-guage train line until last year, is enough to illustrate the story of apathy. As the tribes surrendered their distinct identities to the dead white uniformity of Church and resigned their eclectic existence to the overwhelming Red of the communism; one can truly imagine how their hearts must have bled and how they would have longed to be a part of the nation with which they shared their roots and history and respected their diversity. Sadly, as the Eastern India looked West to Delhi, Delhi continued looking West, under the overdrive of nostalgic Kashmiri and Punjabi bureaucrats and politicians stuck in pre-47 era. We as a nation offered them nothing but a royal ignore for years and decades. The region which became a part of Indraprastha by Arjun during Mahabharat, where a saddened Shiv wandered saddened by the loss of Sati, thousands of years, was left ignored by an independent India as if it was never our own.
The connectivity with the North-East was always sketchy. It took a NDA government of Vajpayee to start the process of integration. Take the case of longest in-land bridge. Project approved by NDA government of Vajpayee and completed by the NDA Government of Narendra Modi in Twenty years, even when the previous PM ran the country as a proxy of Sonia Ghandy with fake residential address of Assam . Media left the NE ignored and isolated under the excuse of tyranny of distance, since it remained tucked under the rule of Church and Communism, both loved by the Lutyen's media. After this debacle, the myopic media has set about now to find the caste-combinations and resorting to the routine punditry of theirs to explain the expulsion of left from Tripura and the failure of Church to ward of the evil Modi from the North-East. They are so blinded by their hatred for Modi that they will not be able to see the truth which stares in their eyes even if it was to slap them on their powdered cheeks.
They never reported that Narendra Modi was the first Prime Minister to visit Shilong in last Forty years, a first after Morarji Desai. The church was the East India Company for the Sonia-led Congress and the left ran their stinky citadel of mis-governance in Tripura as media hid the stories of ugly violence in the region under the pretext of tyranny of distance.
As Modi reached out to the North-East, for the first time they found both affection and attention. This win is the Ghar-waapsi of North-East. In this whole scheme of things, Modi-the man is incidental; Modi-the movement is critical.
Congress cannot understand this and I do not mind it much. At least with current leadership, I would rather they never understand where they went wrong. Having lost the East, Rahul Ghandy has gone to Italy, ostensibly to see his 94 years old grandmother. As the Darbari anchors go Aww.. they do not explain as to why Rahul could not have waited a week or so to re-energize the desperate cadres who have just lost another election before proceeding for vacations. It is as if the Mussolini-lover family was waiting with freshly-made Ghujia for the illustrious grand-son this Holi. This sudden departure to foreign lands can only be about absolute apathy or some nefarious mechanization in the face of humiliating defeat from out of country which is secret to us. Their is something viciously conspiratorial about the current Congress leadership and their routine foreign travels, always under the garb of secrecy. The workaholic zeal of PM Narendra Modi against the stupidly stop-gap approach of a jobless prince is a study in contrast. This itself leaves nothing much to be analyzed and explains wisdom in the choices made by the North East India in the recent election where Congress is decimated in two states. The only state where it is still largest party with 21 seats, it is down 7 seats from the tally it had in the last election.
Narendra Modi has transcended his physical being and represents more than the man he is. He is a concept and an idea. He connects us to our pasts which unites us as a nation. You can keep on attacking him as a person, nothing sticks and nothing matters. He for most Indians, is an idea whose time has come. An idea can only be countered by another idea, more robust, more vivid idea and Congress' slavish, muddled vision is no match for it. After North-East's Ghar-waapsi, I am only hoping that the South too throws back the sack of rice at the divisive play of Vatican and come back into the fold of Bharat. As for Communism, the idea is dead and it lives off the deads. Communism, as an ideology is so dead that they have to borrow foot-soldiers from the Jihadists. Once glorious idea has long since became a committee-run system, which created new set of absolutist elites and offered to the masses, nothing but lofty slogans. That is why Venezuela is exploding and the CM of the leftist government gets himself admitted in the a Capitalist's Corporate Hospital. When arguments are weak, violence is the only argument. That is what we saw in West Bengal, in Tripura and in Kerala. This is not a localized phenomenon. The same was observed in Russia and in China where Millions died for having a view different from the Government. It is funny that Indian leftists with ample support of conniving Press gets to project themselves as liberal guardians of free voice. China, their mother ship, has in the meantime taken steps to appoint the Communist party chief as the new Emperor. As it turns out from Mao, Stalin, XI Jinping- all dictatorial, absolutist leaders who came to power talking of power to the lowest rung, Communism is nothing but a scam. That leaves us with Modi, who is an idea whose time has come and when he beckons, you walk.

Published on March 03, 2018 20:10