Gurcharan Das's Blog, page 11
February 18, 2015
दिल्ली चुनाव को भूल जाएं मोदी
जिस दिन आम आदमी पार्टी दिल्ली में चौंकाने वाली जीत दर्ज कर रही थी, उसी दिन मैं पाकिस्तानी लेखक शाहिद नदीम के लाजवाब नाटक दारा का आनंद उठा रहा था। इसका मंचन हाल ही में लंदन के नेशनल थियेटर में किया गया था। तमाम स्कूली छात्र औरंगजेब और दारा शिकोह के बीच चल रही खूनी जंग के बारे में जानते हैं, लेकिन यह नाटक केवल उत्ताराधिकार की लड़ाई तक ही सीमित नहीं है। इसमें दिखाया गया है कि भारत क्या था, क्या बन गया और क्या होना चाहिए था। यह आज की जनता को संबोधित था और इसमें नाखुश पाकिस्तान और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंभीर नसीहत देता है। इसमें यह नसीहत भी है कि पिछले दिनों दिल्ली चुनाव में भाजपा को जो झटका लगा है भविष्य में वैसे झटकों से कैसे बचा जा सकता है। मानव इतिहास में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिले हैं। सबसे हृदयविदारक घटनाओं में से एक है जब मुगल बादशाह शाहजहां के बड़े बेटे और गद्दी के उत्ताराधिकारी दारा शिकोह का सिर कलम कर दिया गया था। तबसे भारतीयों को एक सवाल कचोटता रहता है कि अगर कट्टरपंथी और असहिष्णु औरंगजेब के बजाय दारा शिकोह भारत की गद्दी पर बैठता तो इतिहास की क्या दशा-दिशा होती। भारत के आखिरी वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन की कुख्यात गैरजिम्मेदारी के कारण 1947 में विभाजन का जो दंश झेलना पड़ा था, उसके बीज दारा शिकोह के जीवनकाल में ही रौप दिए गए थे।
दारा का संबंध अतीत से ही नहीं है। तमाम ऐतिहासिक नाटकों की यह भी आज के जमाने में प्रासंगिक है। जहां लंदनवासी सीरिया में आइएस के भयावह इस्लामिक उग्रवाद को लेकर भौचक थे, मैं मोहन भागवत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की परियोजना को लेकर चिंतित था। जहां दारा की तरह मोदी भारत पर तमाम भारतीयों के लिए शासन करना चाहते हैं, वहीं मोहन भागवत भारत को बदनसीब पाकिस्तान में बदल देना चाहते हैं। संपूर्ण संघ परिवार को यह नाटक देखना चाहिए। कोई भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सुनामी को नहीं समझ पा रहा है, और केजरीवाल तो सबसे कम। निश्चित तौर पर यह भारत के ढुलमुल लोकतंत्र की जीत है। किंतु असल मुद्दा यह है कि भारत के राजनेता इसकी किस तरह व्याख्या करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गलत सबक नहीं सीखने चाहिए। यह उनके विकास और सुधार एजेंडे के खिलाफ जनादेश नहीं है। उन्हें लोकलुभावन नीतियों से बचना होगा। असल में यह जनादेश संघ परिवार की विभाजनकारी नीतियों का खंडन है। आप की भारी-भरकम जीत बताती है कि दिल्ली के बहुत से मतदाता, जिन्होंने मई 2014 में मोदी के पक्ष में वोट दिया था, अब भाजपा से छिटक गए हैं। इनमें खासतौर पर अल्पसंख्यक मतदाता शामिल हैं। इसलिए मोदी को दारा पर ध्यान देने की जरूरत है।
दारा शिकोह एक अद्भुत और शानदार व्यक्तित्व थे। 1526 में मुगल शासन की शुरुआत से 1857 में इसके अंत तक जितने भी मुगल राजकुमार हुए, उनमें वह सबसे अलग और अनोखे थे। उनके अंदर दो महान पूर्वजों हुमायूं और अकबर के गुण थे। उनके जीवन का महान ध्येय था हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शांति और भाईचारा कायम करना। वह एक सूफी बुद्धिजीवी बने, जिसका मानना था कि हर किसी के लिए भगवान की तलाश समान है। उन्होंने अपना जीवन वेदांतिक और इस्लामिक अध्यात्म में समन्वय बैठाने में समर्पित कर दिया। वह मानते थे कि कुरान में अदृश्य किताब-किताब अल-मकनन, वास्तव में उपनिषद थे। उन्होंने संस्कृत सीखी और उपनिषद, भगवतगीता और योग वशिष्ठ का फारसी में अनुवाद किया। इसमें उन्होंने बनारस के पंडितों की मदद ली। अकबर और कबीर के पदचिह्नों पर चलते हुए उन्होंने सिख गुरु हर राय का अध्ययन किया। उन्हें अमृतसर में गोल्डन टेंपल की आधारशिला स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया गया। संभवत: वह भारतीय सांस्कृतिक समन्वय का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। वर्ह ंहदू और इस्लाम की रहस्य परंपराओं को एक दूसरे से जोड़ते रहे।
1657 में शाहजहां बीमार पड़ गए और औरंगजेब गद्दी के उत्ताराधिकारी अपने बड़े भाई दारा शिकोह के खिलाफ खड़ा हो गया। वह एक कट्टर मुसलमान था और दारा के विचारों को गलत मानता था। साथ ही वह अवसरवादी भी था। उसने सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए दारा को रास्ते से हटाने का फैसला किया। उसने इस्लामिक मौलवियों और उलेमाओं की उच्चस्तरीय परिषद की बैठक बुलाई। इस परिषद में उसने अपनी मित्रमंडली और समर्थकों को भरा हुआ था। इस परिषद ने दारा शिकोह को शांति भंग करने और इस्लाम के प्रति गद्दारी का दोषी पाया और 30 अगस्त, 1659 की रात को मौत के घाट उतार दिया। अगर दारा इस सत्ता संघर्ष में जीत जाते तो भारत का भविष्य कुछ और ही होता। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मुगल साम्राज्य इसलिए पतन के गर्त में गिरने लगा क्योंकि दारा शिकोह की मौत के समय औरंगजेब को महान सूफी संत और फारसी के प्रसिद्ध कवि सरमद ने श्राप दिया था।
सिंहासन पर बैठते ही औरंगजेब ने गैर-मुस्लिम भारत पर कड़ा शरिया शासन थोप दिया। विडंबना यह है कि अपने भाइयों, भतीजों और खुद के बच्चों के हत्यारे औरंगजेब को पाकिस्तान में मुसलमानों का नायक माना जाता है और दारा शिकोह को फुटनोट में ही जगह मिल पाई है। सौभाग्य से पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों में उदारवादी लेखकों ने दारा की अद्भुत विरासत को जिंदा रखा। कुछ वषरें के अंतराल पर उनके जीवन पर कोई न कोई किताब सामने आ जाती है। अगले सप्ताह 28 फरवरी को भारत सरकार बजट लाने जा रही है। हमें देखना होगा कि दिल्ली चुनावों में आप की जीत से मोदी ने क्या सबक लिए हैं। अगर वह इस जीत का कारण मुफ्त उपहार बांटना मानते हैं और सुधारों व ढांचागत विकास के कठिन रास्ते से हट जाते हैं तो यह शर्मनाक होगा। यही एकमात्र रास्ता है जिससे भारत में रोजगार पैदा होंगे और आर्थिक भविष्य सुनहरा होगा। अगर वह दिल्ली के चुनावों की पुनरावृत्तिनहीं चाहते तो उन्हे हिंदुओं के दक्षिणपंथी उभार पर अंकुश लगाना होगा। उन्हें औरंगजेब के कट्टरपंथ, असहिष्णु आचरण के बजाय दारा के विचारों से प्रेरणा लेनी होगी।
दिल्ली में गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में आज भी दारा शिकोह द्वारा स्थापित किया गया पुस्तकालय मौजूद है। आप समय निकाल कर इसमें जाएं। अब यह भारतीय पुरातत्विक सर्वे द्वारा संचालित एक संग्रहालय के रूप में है। आप अपने दिमाग को दारा के विचारों की लौ प्रेरणा लेने दें कि धर्म सत्य, सौंदर्य, प्रेम और न्याय की शांतिपूर्ण तलाश है। जो सत्ता की हवस के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं वे इतिहास के खलनायक हैं।
दारा का संबंध अतीत से ही नहीं है। तमाम ऐतिहासिक नाटकों की यह भी आज के जमाने में प्रासंगिक है। जहां लंदनवासी सीरिया में आइएस के भयावह इस्लामिक उग्रवाद को लेकर भौचक थे, मैं मोहन भागवत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की परियोजना को लेकर चिंतित था। जहां दारा की तरह मोदी भारत पर तमाम भारतीयों के लिए शासन करना चाहते हैं, वहीं मोहन भागवत भारत को बदनसीब पाकिस्तान में बदल देना चाहते हैं। संपूर्ण संघ परिवार को यह नाटक देखना चाहिए। कोई भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सुनामी को नहीं समझ पा रहा है, और केजरीवाल तो सबसे कम। निश्चित तौर पर यह भारत के ढुलमुल लोकतंत्र की जीत है। किंतु असल मुद्दा यह है कि भारत के राजनेता इसकी किस तरह व्याख्या करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गलत सबक नहीं सीखने चाहिए। यह उनके विकास और सुधार एजेंडे के खिलाफ जनादेश नहीं है। उन्हें लोकलुभावन नीतियों से बचना होगा। असल में यह जनादेश संघ परिवार की विभाजनकारी नीतियों का खंडन है। आप की भारी-भरकम जीत बताती है कि दिल्ली के बहुत से मतदाता, जिन्होंने मई 2014 में मोदी के पक्ष में वोट दिया था, अब भाजपा से छिटक गए हैं। इनमें खासतौर पर अल्पसंख्यक मतदाता शामिल हैं। इसलिए मोदी को दारा पर ध्यान देने की जरूरत है।
दारा शिकोह एक अद्भुत और शानदार व्यक्तित्व थे। 1526 में मुगल शासन की शुरुआत से 1857 में इसके अंत तक जितने भी मुगल राजकुमार हुए, उनमें वह सबसे अलग और अनोखे थे। उनके अंदर दो महान पूर्वजों हुमायूं और अकबर के गुण थे। उनके जीवन का महान ध्येय था हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शांति और भाईचारा कायम करना। वह एक सूफी बुद्धिजीवी बने, जिसका मानना था कि हर किसी के लिए भगवान की तलाश समान है। उन्होंने अपना जीवन वेदांतिक और इस्लामिक अध्यात्म में समन्वय बैठाने में समर्पित कर दिया। वह मानते थे कि कुरान में अदृश्य किताब-किताब अल-मकनन, वास्तव में उपनिषद थे। उन्होंने संस्कृत सीखी और उपनिषद, भगवतगीता और योग वशिष्ठ का फारसी में अनुवाद किया। इसमें उन्होंने बनारस के पंडितों की मदद ली। अकबर और कबीर के पदचिह्नों पर चलते हुए उन्होंने सिख गुरु हर राय का अध्ययन किया। उन्हें अमृतसर में गोल्डन टेंपल की आधारशिला स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया गया। संभवत: वह भारतीय सांस्कृतिक समन्वय का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। वर्ह ंहदू और इस्लाम की रहस्य परंपराओं को एक दूसरे से जोड़ते रहे।
1657 में शाहजहां बीमार पड़ गए और औरंगजेब गद्दी के उत्ताराधिकारी अपने बड़े भाई दारा शिकोह के खिलाफ खड़ा हो गया। वह एक कट्टर मुसलमान था और दारा के विचारों को गलत मानता था। साथ ही वह अवसरवादी भी था। उसने सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए दारा को रास्ते से हटाने का फैसला किया। उसने इस्लामिक मौलवियों और उलेमाओं की उच्चस्तरीय परिषद की बैठक बुलाई। इस परिषद में उसने अपनी मित्रमंडली और समर्थकों को भरा हुआ था। इस परिषद ने दारा शिकोह को शांति भंग करने और इस्लाम के प्रति गद्दारी का दोषी पाया और 30 अगस्त, 1659 की रात को मौत के घाट उतार दिया। अगर दारा इस सत्ता संघर्ष में जीत जाते तो भारत का भविष्य कुछ और ही होता। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मुगल साम्राज्य इसलिए पतन के गर्त में गिरने लगा क्योंकि दारा शिकोह की मौत के समय औरंगजेब को महान सूफी संत और फारसी के प्रसिद्ध कवि सरमद ने श्राप दिया था।
सिंहासन पर बैठते ही औरंगजेब ने गैर-मुस्लिम भारत पर कड़ा शरिया शासन थोप दिया। विडंबना यह है कि अपने भाइयों, भतीजों और खुद के बच्चों के हत्यारे औरंगजेब को पाकिस्तान में मुसलमानों का नायक माना जाता है और दारा शिकोह को फुटनोट में ही जगह मिल पाई है। सौभाग्य से पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों में उदारवादी लेखकों ने दारा की अद्भुत विरासत को जिंदा रखा। कुछ वषरें के अंतराल पर उनके जीवन पर कोई न कोई किताब सामने आ जाती है। अगले सप्ताह 28 फरवरी को भारत सरकार बजट लाने जा रही है। हमें देखना होगा कि दिल्ली चुनावों में आप की जीत से मोदी ने क्या सबक लिए हैं। अगर वह इस जीत का कारण मुफ्त उपहार बांटना मानते हैं और सुधारों व ढांचागत विकास के कठिन रास्ते से हट जाते हैं तो यह शर्मनाक होगा। यही एकमात्र रास्ता है जिससे भारत में रोजगार पैदा होंगे और आर्थिक भविष्य सुनहरा होगा। अगर वह दिल्ली के चुनावों की पुनरावृत्तिनहीं चाहते तो उन्हे हिंदुओं के दक्षिणपंथी उभार पर अंकुश लगाना होगा। उन्हें औरंगजेब के कट्टरपंथ, असहिष्णु आचरण के बजाय दारा के विचारों से प्रेरणा लेनी होगी।
दिल्ली में गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में आज भी दारा शिकोह द्वारा स्थापित किया गया पुस्तकालय मौजूद है। आप समय निकाल कर इसमें जाएं। अब यह भारतीय पुरातत्विक सर्वे द्वारा संचालित एक संग्रहालय के रूप में है। आप अपने दिमाग को दारा के विचारों की लौ प्रेरणा लेने दें कि धर्म सत्य, सौंदर्य, प्रेम और न्याय की शांतिपूर्ण तलाश है। जो सत्ता की हवस के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं वे इतिहास के खलनायक हैं।
Published on February 18, 2015 23:54
एक त्रासदी का मानवीय पहलू
पिछले छह हफ्तों से लेखक राजनेता शशि थरूर उस अजीब से चलन के शिकार हैं, जिसे मीडिया ट्रायल का नाम दिया जाता है। जब जिंदगी बुरा मोड़ लेती है तो मीडिया निष्ठुर भी हो सकता है। एक दिन तो यह सेलेब्रिटी को आसमान की बुलंदियों पर ले जाने में खुशी महसूस करता है और उतनी ही खुशी से यह अगले ही दिन उन्हें धड़ाम से नीचे लाकर पटक देता है। थरूर की पत्नी की त्रासदीपूर्ण मौत को एक साल से कुछ ज्यादा अरसा हो गया है। 1 जनवरी 2014 को सुनंदा ने अपने पति पर पाकिस्तानी पत्रकार के साथ अंतरंग संबंधों का आरोप लगाया था। जल्द ही दिल्ली के पांच सितारा होटल में उनकी मौत हो गई। कहा गया कि यह खुदकुशी थी। परंतु पिछले महीने पुलिस ने हत्या का मामला दायर किया और दिल्ली पुलिस के प्रमुख बीएस बस्सी ने कहा कि सुनंदा पुष्कर की मौत जहर से हुई।
2010 में विवाह के बाद से थरूर पति-पत्नी ‘ड्रीम कपल’ माने जाते थे। वे आक्रामक मीडिया के फोकस में अपनी ईर्ष्याजनक खुशनुमा जिंदगी जी रहे थे। सुनंदा आकर्षक थीं और शशि अच्छे वक्ता, करिश्माई अंदाज और बौद्धिक स्तर पर प्रेरक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति हैं। परंपरागत भारतीय राजनेता की छवि में यह स्वागतयोग्य परिवर्तन था। आज दिल्ली पुलिस हत्या के मामले में शशि थरूर से पूछताछ कर रही है।
मानव की प्रवृत्ति त्रासदी के गहरे कारणों को तलाश करने और उन्हें समझने की कोशिश करने की बजाय पक्ष लेने की होती है। ‘किसने किया’ इस बारे में अटकलें लगाना निरर्थक है। वह पुलिस का काम है। अारोप लगाने की बजाय मानवीय तृष्णा (काम) की प्रकृति, इसकी अस्पष्ट सीमाएं और क्यों यह हम सबको एेसे संकट में डाल देती है, इसे समझना शायद उपयोगी होगा। खुद को त्रासदी के शिकार व्यक्ति की जगह रखकर शुरुआत करना ठीक होगा। ईसाई धर्म वाले पश्चिम में सृष्टि निर्मिति प्रकाश से शुरू हुई। बाइबल के अनुसार ईश्वर ने कहा- ‘प्रकाश हो जाए।’ प्राचीन भारतीय परंपरा कहती है कि प्रारंभ में तृष्णा (काम) थी। ऋग्वेद के अनुसार उस ‘एक’ के मन में ‘काम’ वह पहला बीज था, जिसकी ‘विशाल तृष्णा’ संसार की उत्पत्ति का कारण बनी। इस तरह ब्रह्मांड का जन्म आदिम जैविक ऊर्जा से हुआ। परंतु वह ‘एक’ को अकेलापन महसूस हुआ और उसने अपने शरीर को दो में विभाजित किया, जिससे स्त्री-पुरुष अस्तित्व में आए। उपनिषद में वर्णित यह आदिम विभाजन इशारा करता है कि मानव की मूल स्थिति अकेलेपन की है। हम दुनिया में अकेले आए थे और अकेले ही जाएंगे। अकेलापन दूर करने के लिए आदिम पुरुष ने आदिम स्री से संयोग किया और मानव जाति का प्रादुर्भाव हुआ। ‘काम’ की शारिरिक अंतरंगता हमारी एकाकीपन की भावनाअों पर काबू पाने में मददगार होती है।
चूंकि काम ही सबकुछ है- जीवन का स्रोत, क्रिया का मूल और सारी गतिविधियों का कारण, हमारे प्राचीन ऋषियों ने इसे ‘त्रिवर्ग’ में प्रतिष्ठित किया। जीवन के तीन लक्ष्य। इसके बाद भी भारतीय काम को लेकर दुविधा में ही रहे। वजह यह थी कि तृष्णा अंधी, उन्मत्त और इतनी आवेशयुक्त होती है कि उसे काबू में करना कठिन होता है। धोखाधड़ी, विश्वासघात, ईर्ष्या और अपराधबोध इसके चारों तरफ मंडराते रहते हैं। इस मामले में सुनंदा पुष्कर की ईर्ष्या के कारण यह त्रासदी हुई।
अपने मिश्रित स्वभाव के कारण ‘काम’ के अपने आशावादी और निराशावादी रहे हैं। आशावादी काम के दूसरे अर्थ ‘सुख’ पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे मानते हैं कि हमारे अल्प और रूखे जीवन में किसी प्रकार के सुख की अपेक्षा करने में कुछ गलत नहीं है। इसी विचार ने ‘कामसूत्र’ जैसी रचना, उद्दीपक कलाओं और प्रेम-काव्य को जन्म दिया, जो गुप्त साम्राज्य के दरबारों में खूब फले-फूले। निराशावादी प्राथमिक रूप से तपस्वी संन्यासी थे, जिनके लिए तृष्णा उनके आध्यात्मिक लक्ष्य में बाधक थी। भ्रम में पड़े संसारी लोग इन दो अतियों में मंडराते रहते और इनके उत्तर धर्म ग्रंथों में खोजते हैं। धर्मशास्त्रों ने काम के सकारात्मक गुणों को स्वीकार किया, लेकिन साथ ही इसे एकल विवाह तक सीमित कर दिया, लेिकन स्त्री-पुरुषों ने एकल विवाह के अतिक्रमण करने के तरीके खोज लिए, जिससे अवैध प्रेम का उदय हुआ।
महाकाव्यों के कवियों ने काम और धर्म में अंतर्निहित विरोधाभास के कारण इसमें निहित त्रासदी की आशंका को देख लिया था। यदि धर्म दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य है तो काम स्वयं के प्रति कर्तव्य है। महाकाव्यों में अामतौर पर धर्म, काम को मात दे देता है, क्योंकि हम यह मानते हैं कि अपने आनंद के लिए दूसरों को आहत करना गलत है। पुरुष सत्ता और यौन संबंधों में असमानता के कारण (सुनंदा जैसी) महिला के लिए त्रासदी की ज्यादा संभावना है। महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण पुरुष सत्ता का सबसे जाना-पहचाना प्रदर्शन है।
पुष्कर-थरूर मामले के पीछे नैतिकता की कहानी है। केवल थरूर को ही अपनी अंतरात्मा में उनके विवाह में काम धर्म के अपरिहार्य संघर्ष और जिन सीमाओं का उल्लंघन हुआ उनका सच मालूम होगा। खुद के प्रति कर्तव्य और दूसरों के प्रति कर्तव्य के बीच राह निकालना आसान नहीं है। आप चाहे शारिरिक रूप से इसका उल्लंघन भी करें, हममें से कई दिल ही दिल में तो ऐसा करते हैं।
मशहूर शख्सियतों के ऐसे सेक्स स्कैंडल मीडिया के लिए बिन मांगी मुराद पूरी होने जैसा है, लेकिन यह घटना इससे कहीं आगे मनुष्य के गिरते नैतिक स्तर की ओर इशारा करती है। ‘काम’ केवल सृजन का कारक और परिणाम ही नहीं है, यह हर अच्छे आैर बुरे कर्म की जड़ में है। एक ओर यह प्रेम, प्रसन्नता और सृजन का कारण है तो ईर्ष्या, क्रोध और हिंसा के पीछे भी यही है। क्या इन दोनों पहलुअों को अलग नहीं किया जा सकता? क्या दर्द के बिना खुशी मिलना संभव है? क्या हिंसा के बिना सृजन हो सकता है? इस कहानी में हमारे युवाओं पर मध्यवर्गीय नैतिकताएं थोपने के लिए हमेशा तैयार हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए राजनीतिक संदेश भी है। वे 19वीं सदी में विक्टोरियाकालीन इंग्लैंड के ईसाई मिशनरियों जैसा बर्ताव करते हैं। वे कामेच्छा की अनुमति नहीं देते या इसे पाप बताते हैं। इससे आम इंसान खुद को दोषी समझने लगता है। वे याद रखें कि हमारी शास्त्रीय परंपराओं में काम के सृजनात्मक पहलुओं को मान्यता हासिल है। विक्टोरियाइयों ने काम संबंधी इच्छाओं के लिए पाखंड का सहारा लिया, जबकि प्राचीन भारतीय इसके बारे में सहज रहे। आज इसका उल्टा हो रहा है। पश्चिमी समाज जहां इसके प्रति सहज और आधुनिक रवैया अपना चुका है, दक्षिणपंथी हिंदू समाज वेलेंटाइन डे जैसे आयोजनों का विरोध कर ज्यादा पाखंडी और असहनशील बनता जा रहा है।
2010 में विवाह के बाद से थरूर पति-पत्नी ‘ड्रीम कपल’ माने जाते थे। वे आक्रामक मीडिया के फोकस में अपनी ईर्ष्याजनक खुशनुमा जिंदगी जी रहे थे। सुनंदा आकर्षक थीं और शशि अच्छे वक्ता, करिश्माई अंदाज और बौद्धिक स्तर पर प्रेरक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति हैं। परंपरागत भारतीय राजनेता की छवि में यह स्वागतयोग्य परिवर्तन था। आज दिल्ली पुलिस हत्या के मामले में शशि थरूर से पूछताछ कर रही है।
मानव की प्रवृत्ति त्रासदी के गहरे कारणों को तलाश करने और उन्हें समझने की कोशिश करने की बजाय पक्ष लेने की होती है। ‘किसने किया’ इस बारे में अटकलें लगाना निरर्थक है। वह पुलिस का काम है। अारोप लगाने की बजाय मानवीय तृष्णा (काम) की प्रकृति, इसकी अस्पष्ट सीमाएं और क्यों यह हम सबको एेसे संकट में डाल देती है, इसे समझना शायद उपयोगी होगा। खुद को त्रासदी के शिकार व्यक्ति की जगह रखकर शुरुआत करना ठीक होगा। ईसाई धर्म वाले पश्चिम में सृष्टि निर्मिति प्रकाश से शुरू हुई। बाइबल के अनुसार ईश्वर ने कहा- ‘प्रकाश हो जाए।’ प्राचीन भारतीय परंपरा कहती है कि प्रारंभ में तृष्णा (काम) थी। ऋग्वेद के अनुसार उस ‘एक’ के मन में ‘काम’ वह पहला बीज था, जिसकी ‘विशाल तृष्णा’ संसार की उत्पत्ति का कारण बनी। इस तरह ब्रह्मांड का जन्म आदिम जैविक ऊर्जा से हुआ। परंतु वह ‘एक’ को अकेलापन महसूस हुआ और उसने अपने शरीर को दो में विभाजित किया, जिससे स्त्री-पुरुष अस्तित्व में आए। उपनिषद में वर्णित यह आदिम विभाजन इशारा करता है कि मानव की मूल स्थिति अकेलेपन की है। हम दुनिया में अकेले आए थे और अकेले ही जाएंगे। अकेलापन दूर करने के लिए आदिम पुरुष ने आदिम स्री से संयोग किया और मानव जाति का प्रादुर्भाव हुआ। ‘काम’ की शारिरिक अंतरंगता हमारी एकाकीपन की भावनाअों पर काबू पाने में मददगार होती है।
चूंकि काम ही सबकुछ है- जीवन का स्रोत, क्रिया का मूल और सारी गतिविधियों का कारण, हमारे प्राचीन ऋषियों ने इसे ‘त्रिवर्ग’ में प्रतिष्ठित किया। जीवन के तीन लक्ष्य। इसके बाद भी भारतीय काम को लेकर दुविधा में ही रहे। वजह यह थी कि तृष्णा अंधी, उन्मत्त और इतनी आवेशयुक्त होती है कि उसे काबू में करना कठिन होता है। धोखाधड़ी, विश्वासघात, ईर्ष्या और अपराधबोध इसके चारों तरफ मंडराते रहते हैं। इस मामले में सुनंदा पुष्कर की ईर्ष्या के कारण यह त्रासदी हुई।
अपने मिश्रित स्वभाव के कारण ‘काम’ के अपने आशावादी और निराशावादी रहे हैं। आशावादी काम के दूसरे अर्थ ‘सुख’ पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे मानते हैं कि हमारे अल्प और रूखे जीवन में किसी प्रकार के सुख की अपेक्षा करने में कुछ गलत नहीं है। इसी विचार ने ‘कामसूत्र’ जैसी रचना, उद्दीपक कलाओं और प्रेम-काव्य को जन्म दिया, जो गुप्त साम्राज्य के दरबारों में खूब फले-फूले। निराशावादी प्राथमिक रूप से तपस्वी संन्यासी थे, जिनके लिए तृष्णा उनके आध्यात्मिक लक्ष्य में बाधक थी। भ्रम में पड़े संसारी लोग इन दो अतियों में मंडराते रहते और इनके उत्तर धर्म ग्रंथों में खोजते हैं। धर्मशास्त्रों ने काम के सकारात्मक गुणों को स्वीकार किया, लेकिन साथ ही इसे एकल विवाह तक सीमित कर दिया, लेिकन स्त्री-पुरुषों ने एकल विवाह के अतिक्रमण करने के तरीके खोज लिए, जिससे अवैध प्रेम का उदय हुआ।
महाकाव्यों के कवियों ने काम और धर्म में अंतर्निहित विरोधाभास के कारण इसमें निहित त्रासदी की आशंका को देख लिया था। यदि धर्म दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य है तो काम स्वयं के प्रति कर्तव्य है। महाकाव्यों में अामतौर पर धर्म, काम को मात दे देता है, क्योंकि हम यह मानते हैं कि अपने आनंद के लिए दूसरों को आहत करना गलत है। पुरुष सत्ता और यौन संबंधों में असमानता के कारण (सुनंदा जैसी) महिला के लिए त्रासदी की ज्यादा संभावना है। महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण पुरुष सत्ता का सबसे जाना-पहचाना प्रदर्शन है।
पुष्कर-थरूर मामले के पीछे नैतिकता की कहानी है। केवल थरूर को ही अपनी अंतरात्मा में उनके विवाह में काम धर्म के अपरिहार्य संघर्ष और जिन सीमाओं का उल्लंघन हुआ उनका सच मालूम होगा। खुद के प्रति कर्तव्य और दूसरों के प्रति कर्तव्य के बीच राह निकालना आसान नहीं है। आप चाहे शारिरिक रूप से इसका उल्लंघन भी करें, हममें से कई दिल ही दिल में तो ऐसा करते हैं।
मशहूर शख्सियतों के ऐसे सेक्स स्कैंडल मीडिया के लिए बिन मांगी मुराद पूरी होने जैसा है, लेकिन यह घटना इससे कहीं आगे मनुष्य के गिरते नैतिक स्तर की ओर इशारा करती है। ‘काम’ केवल सृजन का कारक और परिणाम ही नहीं है, यह हर अच्छे आैर बुरे कर्म की जड़ में है। एक ओर यह प्रेम, प्रसन्नता और सृजन का कारण है तो ईर्ष्या, क्रोध और हिंसा के पीछे भी यही है। क्या इन दोनों पहलुअों को अलग नहीं किया जा सकता? क्या दर्द के बिना खुशी मिलना संभव है? क्या हिंसा के बिना सृजन हो सकता है? इस कहानी में हमारे युवाओं पर मध्यवर्गीय नैतिकताएं थोपने के लिए हमेशा तैयार हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए राजनीतिक संदेश भी है। वे 19वीं सदी में विक्टोरियाकालीन इंग्लैंड के ईसाई मिशनरियों जैसा बर्ताव करते हैं। वे कामेच्छा की अनुमति नहीं देते या इसे पाप बताते हैं। इससे आम इंसान खुद को दोषी समझने लगता है। वे याद रखें कि हमारी शास्त्रीय परंपराओं में काम के सृजनात्मक पहलुओं को मान्यता हासिल है। विक्टोरियाइयों ने काम संबंधी इच्छाओं के लिए पाखंड का सहारा लिया, जबकि प्राचीन भारतीय इसके बारे में सहज रहे। आज इसका उल्टा हो रहा है। पश्चिमी समाज जहां इसके प्रति सहज और आधुनिक रवैया अपना चुका है, दक्षिणपंथी हिंदू समाज वेलेंटाइन डे जैसे आयोजनों का विरोध कर ज्यादा पाखंडी और असहनशील बनता जा रहा है।
Published on February 18, 2015 02:30
February 14, 2015
AAP staged PM must heed a Mughal prince
On the fateful day that the Aam Aadmi Party won a stunning victory in Delhi’s state election, I was captivated by the tragedy of ‘Dara’, a superb play by Pakistani writer Shaheed Nadeem, which opened recently at the National Theatre in London. Schoolchildren across India know all about the murderous rivalry between Aurangzeb and Dara Shikoh for the Mughal throne but this play is not only about a war of succession; it is about what India was, what it became, and what it might have been. It speaks to us today and offers some sobering advice both to unhappy Pakistan and to Prime Minister Modi, including how to avoid shocking reverses such as the one delivered by Delhi’s voters this week.
There are turning points in human history. One of the most poignant in India’s history was the beheading of the Mughal emperor Shah Jahan’s eldest son and heir-apparent, Dara Shikoh. Ever since then Indians have been haunted by the tantalizing question: what would have been the course of our history had Dara become emperor instead of his orthodox and intolerant younger brother, Aurangzeb? The seeds of the violent partition of India in 1947 — carried out with disgraceful lack of responsibility by the last viceroy of India, Lord Mountbatten — were planted by events in Dara’s life, which led to the greatest mass migration in human history.
‘Dara’ is not only about the past. Like all great historical plays, it is about our present. While Londoners were drawing parallels with Islamic extremism of the IS in Syria, I was thinking about Mohan Bhagwat and the Rashtriya Swayamsevak Sangh’s project to convert India into a ‘Hindu rashtra’. Whereas Modi, like Dara, wants to rule India for all Indians, Bhagwat wants to change India into ill-fated Pakistan. All of the RSS, indeed the entire Sangh Parivar, should see this play.
No one quite understands the tsunami unleashed in Delhi by AAP, least of all Arvind Kejriwal. It is certainly a victory for India’s fickle democracy. But the nub is how will politicians interpret it. Prime Minister Modi should not learn the wrong lessons. It is not a negative verdict on his development and reform agenda — he should resist the temptation to turn populist. Instead, it is a rejection of the Sangh Parivar’s divisive politics. The magnitude of AAP’s victory suggests that many Delhi voters (especially the minorities), who had voted for Modi in May, deserted the BJP now. Hence, Modi needs to heed Dara.
Dara Shikoh (1615-1659) was a gentle Sufi intellectual, who believed that the search for God is the same for everyone and devoted his life to synthesizing Vedantic and Islamic spirituality. Thinking that the ‘hidden book’ in the Quran, ‘Kitab al-Maknun’, is in fact the Upanishads, he learned Sanskrit and translated the Upanishads, Bhagavad Gita, and Yoga Vasishtha into Persian with the help of the pundits of Banaras. Following in Akbar’s footsteps, he cultivated the Sikh guru, Har Rai, and was invited to lay the foundation stone of the Golden Temple in Amritsar. All this did not go well with the orthodox bigot Aurangzeb, who declared Dara a threat to public peace and a traitor to Islam. And so, Dara was put to death and Aurangzeb succeeded to the throne to establish a harsh Sharia rule over an overwhelmingly non-Muslim India. Ironically, today it is Aurangzeb — the killer of his brothers, nephews, and his own children — who is a Muslim hero in Pakistani history while Dara has been reduced to a footnote. Fortunately, liberal writers both in Pakistan and India keep his wonderful legacy alive by coming up with a new play or a book on his life every few years.
In a couple of weeks the government will announce its budget and we shall find out the sort of lessons that Modi has drawn from AAP’s victory. It would be a shame if he saw it as a victory for giveaways and handouts, and backs off from the difficult path of reforms and infrastructure building — the only sure way to create jobs and secure India’s economic future. If he does not want another repeat of what happened in Delhi, he must muzzle the Hindu right, teaching it not to emulate the intolerant, fanatical Aurangzeb but to be inspired by Dara’s idea of India.
There are turning points in human history. One of the most poignant in India’s history was the beheading of the Mughal emperor Shah Jahan’s eldest son and heir-apparent, Dara Shikoh. Ever since then Indians have been haunted by the tantalizing question: what would have been the course of our history had Dara become emperor instead of his orthodox and intolerant younger brother, Aurangzeb? The seeds of the violent partition of India in 1947 — carried out with disgraceful lack of responsibility by the last viceroy of India, Lord Mountbatten — were planted by events in Dara’s life, which led to the greatest mass migration in human history.
‘Dara’ is not only about the past. Like all great historical plays, it is about our present. While Londoners were drawing parallels with Islamic extremism of the IS in Syria, I was thinking about Mohan Bhagwat and the Rashtriya Swayamsevak Sangh’s project to convert India into a ‘Hindu rashtra’. Whereas Modi, like Dara, wants to rule India for all Indians, Bhagwat wants to change India into ill-fated Pakistan. All of the RSS, indeed the entire Sangh Parivar, should see this play.
No one quite understands the tsunami unleashed in Delhi by AAP, least of all Arvind Kejriwal. It is certainly a victory for India’s fickle democracy. But the nub is how will politicians interpret it. Prime Minister Modi should not learn the wrong lessons. It is not a negative verdict on his development and reform agenda — he should resist the temptation to turn populist. Instead, it is a rejection of the Sangh Parivar’s divisive politics. The magnitude of AAP’s victory suggests that many Delhi voters (especially the minorities), who had voted for Modi in May, deserted the BJP now. Hence, Modi needs to heed Dara.
Dara Shikoh (1615-1659) was a gentle Sufi intellectual, who believed that the search for God is the same for everyone and devoted his life to synthesizing Vedantic and Islamic spirituality. Thinking that the ‘hidden book’ in the Quran, ‘Kitab al-Maknun’, is in fact the Upanishads, he learned Sanskrit and translated the Upanishads, Bhagavad Gita, and Yoga Vasishtha into Persian with the help of the pundits of Banaras. Following in Akbar’s footsteps, he cultivated the Sikh guru, Har Rai, and was invited to lay the foundation stone of the Golden Temple in Amritsar. All this did not go well with the orthodox bigot Aurangzeb, who declared Dara a threat to public peace and a traitor to Islam. And so, Dara was put to death and Aurangzeb succeeded to the throne to establish a harsh Sharia rule over an overwhelmingly non-Muslim India. Ironically, today it is Aurangzeb — the killer of his brothers, nephews, and his own children — who is a Muslim hero in Pakistani history while Dara has been reduced to a footnote. Fortunately, liberal writers both in Pakistan and India keep his wonderful legacy alive by coming up with a new play or a book on his life every few years.
In a couple of weeks the government will announce its budget and we shall find out the sort of lessons that Modi has drawn from AAP’s victory. It would be a shame if he saw it as a victory for giveaways and handouts, and backs off from the difficult path of reforms and infrastructure building — the only sure way to create jobs and secure India’s economic future. If he does not want another repeat of what happened in Delhi, he must muzzle the Hindu right, teaching it not to emulate the intolerant, fanatical Aurangzeb but to be inspired by Dara’s idea of India.
Published on February 14, 2015 23:39
February 2, 2015
हिंदुत्व नहीं, नौकरियां लाएं मोदी
2014 का वर्ष भाजपा के लिए शानदार रहा! मोदी की बहुत बड़ी उपलब्धि ने उनकी पार्टी को सुसंगत आर्थिक नीति दी, जो रोजगार निर्मित करने और आर्थिक वृद्धि के लिए बाजार पर निर्भर होती है। ऐसा करके, मोदी बड़ी संख्या में ऐसे महत्वाकांक्षी भारतीयों को भाजपा के दायरे में लाए, जो दो दशकों से ज्यादा के आर्थिक सुधारों के दौर में अपने प्रयासों से आगे बढ़े हैं। यह समूह अब भाजपा का ‘आर्थिक दक्षिण पंथ’ बन गया है। अपने प्रयासों से ऊपर उठने के बाद वे कांग्रेस की रियायतें व तोहफे बांटने की वामपंथी कल्याणकारी नीतियों के कारण उत्तरोत्तर बेचैन होते जा रहे थे। इन लोगों में से कई भाजपा के हिंदुत्व को पसंद नहीं करते। मोदी ने आर्थिक दक्षिणपंथ के लिए स्थान बनाकर अपनी पार्टी के ‘आर्थिक दक्षिणपंथ’ और ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथ’ के बीच तनाव पैदा कर दिया है।
संकट कुछ माह पूर्व ‘लव जेहाद’ की बात के साथ शुरू हुआ, लेकिन भाजपा के उत्तरप्रदेश उपचुनाव हारते ही वह सब खत्म हो गया। फिर मुस्लिमों के खिलाफ संसद में योगी आदित्यनाथ की टिप्पणियां आईं। स्मृति ईरानी केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत लाने का प्रयास करने के मामले में मुश्किल में फंसीं। फिर साध्वी निरंजन ज्योति ने गैर-हिंदुओं की वैधता पर सवाल उठाया। भाजपा के एक अन्य सांसद महोदय ने महात्मा गांधी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ बता दिया। राज्यसभा जिस बात से ठप हुई वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक का थोक धर्मांतरण का कार्यक्रम ‘घर वापसी’ और मोहन भागवत का यह बयान की भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ है। साध्वी प्राची व अन्य नेताओं ने हिंदुओं के कितने बच्चे होने चाहिए, इस पर बयानबाजी शुरू कर दी।
अचानक भाजपा के आर्थिक एजेंडे के हिंदुत्व के सांस्कृतिक एजेंडे में डूब जाने का खतरा पैदा हो गया। हफ्तों तक राज्यसभा ठप रही और विपक्ष ने महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार रोककर सरकार को मुश्किल में डाल दिया। एक पल के लिए तो ‘शक्तिशाली’ मोदी, ‘कमजोर’ डॉ. मनमोहन सिंह जैसे दिखाई देने लगे। जिसे दुनियाभर में स्ट्रॉन्गमैन के रूप में स्वीकार किया गया हो उसका अचानक कमजोर दिखाई देना अजीब लगा। डॉ. सिंह इसी तरह तब कमजोर दिखाई दिए थे जब सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के ‘आंदोलनकारियों’ ने अजीब-सा और नुकसान पहुंचाने वाला भू-अधिग्रहण कानून बना डाला था। इससे भू-हस्तांतरण ठप हो गया और उद्योग, किसान व नौकरियों को बड़ा नुकसान हुआ। राजनीतिक दल तब चुनाव जीतते हैं जब वे उदारवादी मार्ग अपनाते हैं। चुनाव में मोदी की चमत्कारिक जीत का यही कारण है।
किंतु उनकी इस नीति ने पुराने अतिवादियों और वफादारों को असंतुष्ट कर दिया। सफल नेता जानता है कि उन्हें कैसे समायोजित किया जाए। रोनाल्ड रेगन ने अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के सांस्कृतिक गुट पर लगाम लगाकर रखी, क्योंकि वे अर्थव्यवस्था पर अनवरत फोकस बनाए रखना चाहते थे। रिपब्लिकन पार्टी के पिछले प्रत्याशी मिट रोमनी इसलिए नाकाम रहे, क्योंकि वे पार्टी के सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों को पुचकारते रहे। इंग्लैंड में कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता डेविड कैमरन इस वक्त इसीलिए नाकाम हो रहे हैं, क्योंकि वे अपनी पार्टी के ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथी’ और उनकी यूरोप विरोधी नीति को संभाल नहीं पा रहे हैं। इसके विपरीत टोनी ब्लेयर लेबर पार्टी के वामपंथी यूनियनों और अतिवादियों को हाशिये पर डालने में सफल हुए थे। भारत में सोनिया गांधी अपने अतिवादियों को काबू में लाने में नाकाम रहीं। उन्होंने यूपीए-1 में वामपंथी सहयोगियों और यूपीए-2 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के आंदोलनकारियों को सरकारी एजेंडा तय करने दिया।
मोदी को अच्छी तरह मालूम है कि लोगों ने उन्हें नौकरियां और आर्थिक तरक्की लाने के लिए वोट दिए हैं, इसीलिए उन्हें संघ परिवार के उच्छृंखल अतिवादियों को काबू करना ही होगा। यह आसान नहीं होगा, क्योंकि भविष्य के चुनावों के लिए उन्हें आरएसएस की पैदल सेना की जरूरत होगी। पर ऐसा वे पहले भी कर चुके हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में न सिर्फ उन्होंने आरएसएस बहुल मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया था बल्कि पूरे आरएसएस संगठन को हाशिये पर पहुंचा दिया था। संस्कृत में एक अद्भुत शब्द है ‘एकाग्रता’, जिसे पतंजलि ने अपने योग सूत्र में आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक बताया है। भौतिक प्रगति के लिए भी एक बिंदु पर एकाग्र होना जरूरी होता है।
आप सरकार में ‘िवकास’ की बात करके संगठन में ‘धर्मांतरण’ की चर्चा नहीं कर सकते। नौकरियां आएंगी यदि व्यवसाय करने के मामले में भारत मौजूदा 142वें स्थान से उठकर 50वें स्थान पर आ जाए, लेकिन इसके लिए सांस्थानिक परिवर्तन जरूरी होगा। भारत में कोई व्यवसाय शुरू करने के लिए 65 मंजूरियां जरूरी क्यों होनी चाहिए जब हमारे प्रतिस्पर्द्धियों के यहां 10 मंजूरियां ही काफी हैं? कर विभाग में हर दूसरा अधिकारी भ्रष्ट समझा जाता है। यह सब बदलने के लिए शीर्ष पर पूरी एकाग्रता जरूरी है।
आर्थिक सुधार शुरू होने के दो दशकों के बाद चुपके से सुधार लाना भारत के लिए अच्छा नहीं होगा। मोदी को अपने सुधार ‘गले उतारने’ होंगे खासतौर पर अपनी पार्टी के ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों’ के। उन्हें मनमोहन सिंह की गलती टालनी होगी, जो अपनी पार्टी यहां तक कि सोनिया गांधी तक का दृष्टिकोण बदलने में नाकाम रहे! अब जब सरकार ने अध्यादेश के जरिये बीमा व कोयला सुधारों की घोषणा कर ही दी है तो मोदी के सामने चुनौती उसके फायदों के बारे में लोगों को शिक्षित करने की है और फायदे काफी हैं। यदि वे राष्ट्रवादी दक्षिणपंथ की भाषा इस्तेमाल करते हैं तो उन्हें काफी मदद मिलेगी। उन्हें भारत के महान व्यापारिक भूतकाल की याद दिलानी चाहिए, जब रोज एक रोमन जहाज भारतीय बंदरगाह पर पहुंचता था। उन्हें अमूर्त शब्दों में बाजार की बात नहीं करनी चाहिए। उन्हें तो हम्पी के प्रसिद्ध बाजारों की बात करनी चाहिए। करों की निम्न दर को समझाने के लिए उन्हें ‘अर्थशास्त्र’ का सहारा लेना चाहिए, जहां राजधर्म ‘ शतभाग’ (या 15 फीसदी टैक्स दर) देने को कहता है।
‘आर्थिक दक्षिणपंथ’ अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकता, क्योंकि चुनाव में मुक्त बाजार को गले उतारना मुश्किल है। जब हर व्यक्ति अपने हित को साधने में लग जाता है तो परोक्ष रूप से पूरे समाज को ही इसका फायदा पहुंचता है। महान अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने कहा है कि ‘अदृश्य हाथों’ से हर किसी को फायदा पहुंचता है। मुश्किल यह है कि मतदाता को यह हाथ नजर नहीं आता और इसीलिए वह आमतौर पर ऐसे लोक-लुभावन प्रत्याशी के फेर में पड़ जाता है, जो मुफ्त की बिजली और भोजन के वादे करता है।
‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथी’ भी अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकते, क्योंकि उनके संदेश उदारवादी वोटर को अतिवादी लगते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के सामने काम स्पष्ट है- उन्हें सांस्कृतिक अतिवादियों की चिंताएं दूर करनी होगी और साथ ही उन्हें नौकरियां पैदा करने के एजेंडे पर पूरी एकाग्रता से लगे रहना होगा। हर पार्टी के अपने अतिवादी होते हैं और अच्छे नेता को उन पर काबू पाना होता है।
संकट कुछ माह पूर्व ‘लव जेहाद’ की बात के साथ शुरू हुआ, लेकिन भाजपा के उत्तरप्रदेश उपचुनाव हारते ही वह सब खत्म हो गया। फिर मुस्लिमों के खिलाफ संसद में योगी आदित्यनाथ की टिप्पणियां आईं। स्मृति ईरानी केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत लाने का प्रयास करने के मामले में मुश्किल में फंसीं। फिर साध्वी निरंजन ज्योति ने गैर-हिंदुओं की वैधता पर सवाल उठाया। भाजपा के एक अन्य सांसद महोदय ने महात्मा गांधी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ बता दिया। राज्यसभा जिस बात से ठप हुई वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक का थोक धर्मांतरण का कार्यक्रम ‘घर वापसी’ और मोहन भागवत का यह बयान की भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ है। साध्वी प्राची व अन्य नेताओं ने हिंदुओं के कितने बच्चे होने चाहिए, इस पर बयानबाजी शुरू कर दी।
अचानक भाजपा के आर्थिक एजेंडे के हिंदुत्व के सांस्कृतिक एजेंडे में डूब जाने का खतरा पैदा हो गया। हफ्तों तक राज्यसभा ठप रही और विपक्ष ने महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार रोककर सरकार को मुश्किल में डाल दिया। एक पल के लिए तो ‘शक्तिशाली’ मोदी, ‘कमजोर’ डॉ. मनमोहन सिंह जैसे दिखाई देने लगे। जिसे दुनियाभर में स्ट्रॉन्गमैन के रूप में स्वीकार किया गया हो उसका अचानक कमजोर दिखाई देना अजीब लगा। डॉ. सिंह इसी तरह तब कमजोर दिखाई दिए थे जब सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के ‘आंदोलनकारियों’ ने अजीब-सा और नुकसान पहुंचाने वाला भू-अधिग्रहण कानून बना डाला था। इससे भू-हस्तांतरण ठप हो गया और उद्योग, किसान व नौकरियों को बड़ा नुकसान हुआ। राजनीतिक दल तब चुनाव जीतते हैं जब वे उदारवादी मार्ग अपनाते हैं। चुनाव में मोदी की चमत्कारिक जीत का यही कारण है।
किंतु उनकी इस नीति ने पुराने अतिवादियों और वफादारों को असंतुष्ट कर दिया। सफल नेता जानता है कि उन्हें कैसे समायोजित किया जाए। रोनाल्ड रेगन ने अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के सांस्कृतिक गुट पर लगाम लगाकर रखी, क्योंकि वे अर्थव्यवस्था पर अनवरत फोकस बनाए रखना चाहते थे। रिपब्लिकन पार्टी के पिछले प्रत्याशी मिट रोमनी इसलिए नाकाम रहे, क्योंकि वे पार्टी के सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों को पुचकारते रहे। इंग्लैंड में कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता डेविड कैमरन इस वक्त इसीलिए नाकाम हो रहे हैं, क्योंकि वे अपनी पार्टी के ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथी’ और उनकी यूरोप विरोधी नीति को संभाल नहीं पा रहे हैं। इसके विपरीत टोनी ब्लेयर लेबर पार्टी के वामपंथी यूनियनों और अतिवादियों को हाशिये पर डालने में सफल हुए थे। भारत में सोनिया गांधी अपने अतिवादियों को काबू में लाने में नाकाम रहीं। उन्होंने यूपीए-1 में वामपंथी सहयोगियों और यूपीए-2 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के आंदोलनकारियों को सरकारी एजेंडा तय करने दिया।
मोदी को अच्छी तरह मालूम है कि लोगों ने उन्हें नौकरियां और आर्थिक तरक्की लाने के लिए वोट दिए हैं, इसीलिए उन्हें संघ परिवार के उच्छृंखल अतिवादियों को काबू करना ही होगा। यह आसान नहीं होगा, क्योंकि भविष्य के चुनावों के लिए उन्हें आरएसएस की पैदल सेना की जरूरत होगी। पर ऐसा वे पहले भी कर चुके हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में न सिर्फ उन्होंने आरएसएस बहुल मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया था बल्कि पूरे आरएसएस संगठन को हाशिये पर पहुंचा दिया था। संस्कृत में एक अद्भुत शब्द है ‘एकाग्रता’, जिसे पतंजलि ने अपने योग सूत्र में आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक बताया है। भौतिक प्रगति के लिए भी एक बिंदु पर एकाग्र होना जरूरी होता है।
आप सरकार में ‘िवकास’ की बात करके संगठन में ‘धर्मांतरण’ की चर्चा नहीं कर सकते। नौकरियां आएंगी यदि व्यवसाय करने के मामले में भारत मौजूदा 142वें स्थान से उठकर 50वें स्थान पर आ जाए, लेकिन इसके लिए सांस्थानिक परिवर्तन जरूरी होगा। भारत में कोई व्यवसाय शुरू करने के लिए 65 मंजूरियां जरूरी क्यों होनी चाहिए जब हमारे प्रतिस्पर्द्धियों के यहां 10 मंजूरियां ही काफी हैं? कर विभाग में हर दूसरा अधिकारी भ्रष्ट समझा जाता है। यह सब बदलने के लिए शीर्ष पर पूरी एकाग्रता जरूरी है।
आर्थिक सुधार शुरू होने के दो दशकों के बाद चुपके से सुधार लाना भारत के लिए अच्छा नहीं होगा। मोदी को अपने सुधार ‘गले उतारने’ होंगे खासतौर पर अपनी पार्टी के ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों’ के। उन्हें मनमोहन सिंह की गलती टालनी होगी, जो अपनी पार्टी यहां तक कि सोनिया गांधी तक का दृष्टिकोण बदलने में नाकाम रहे! अब जब सरकार ने अध्यादेश के जरिये बीमा व कोयला सुधारों की घोषणा कर ही दी है तो मोदी के सामने चुनौती उसके फायदों के बारे में लोगों को शिक्षित करने की है और फायदे काफी हैं। यदि वे राष्ट्रवादी दक्षिणपंथ की भाषा इस्तेमाल करते हैं तो उन्हें काफी मदद मिलेगी। उन्हें भारत के महान व्यापारिक भूतकाल की याद दिलानी चाहिए, जब रोज एक रोमन जहाज भारतीय बंदरगाह पर पहुंचता था। उन्हें अमूर्त शब्दों में बाजार की बात नहीं करनी चाहिए। उन्हें तो हम्पी के प्रसिद्ध बाजारों की बात करनी चाहिए। करों की निम्न दर को समझाने के लिए उन्हें ‘अर्थशास्त्र’ का सहारा लेना चाहिए, जहां राजधर्म ‘ शतभाग’ (या 15 फीसदी टैक्स दर) देने को कहता है।
‘आर्थिक दक्षिणपंथ’ अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकता, क्योंकि चुनाव में मुक्त बाजार को गले उतारना मुश्किल है। जब हर व्यक्ति अपने हित को साधने में लग जाता है तो परोक्ष रूप से पूरे समाज को ही इसका फायदा पहुंचता है। महान अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने कहा है कि ‘अदृश्य हाथों’ से हर किसी को फायदा पहुंचता है। मुश्किल यह है कि मतदाता को यह हाथ नजर नहीं आता और इसीलिए वह आमतौर पर ऐसे लोक-लुभावन प्रत्याशी के फेर में पड़ जाता है, जो मुफ्त की बिजली और भोजन के वादे करता है।
‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथी’ भी अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकते, क्योंकि उनके संदेश उदारवादी वोटर को अतिवादी लगते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के सामने काम स्पष्ट है- उन्हें सांस्कृतिक अतिवादियों की चिंताएं दूर करनी होगी और साथ ही उन्हें नौकरियां पैदा करने के एजेंडे पर पूरी एकाग्रता से लगे रहना होगा। हर पार्टी के अपने अतिवादी होते हैं और अच्छे नेता को उन पर काबू पाना होता है।
Published on February 02, 2015 22:22
January 25, 2015
Dharma vs desire, therein hangs a morality tale
For the past few weeks Shashi Tharoor, the celebrated writer and politician, has been the victim of a phenomenon called trial by media. The me dia can be unkind when life takes a bad turn. It delights in raising celebrities to the sky on one day, and with equal glee brings them crashing down the next. If you live your life under the glare of publicity, you must be pre pared to be tried by the public.
It has been just over a year It has been just over a year since the tragic death of Tharoor’s wife, Sunanda Pushkar. Earlier this month, the police filed a case of murder. Since their marriage in 2010, the Tharoors had been a ‘dream couple’. They fell in love and married equally publicly.They were the toast of the town, living their enviably happy life under the spotlight of a ravenous media. She was attractive and vivacious; he was eloquent, charismatic and intellectually stimulating -a welcome change from the traditional Indian politician.
Human beings prefer to take sides rather than try and understand the deeper causes understand the deeper causes of tragedy. There is no point speculating about the ‘whodunnit’ -that is a job for the police. Rather than apportion blame, it is more useful to focus on the nature of human desire, its am biguous boundaries, and why it gets us into such trouble. The correct place to begin is em pathy -it could have happened to you or me.
In the beginning was kama – desire. Unlike the Judaic-Christian tradition where creation began with light in Genesis, the ancient Indian cosmos is born from kama, the primal biological energy. Kama was the first seed in the mind of the One, whose ‘great desire’ led to the cre ation of the universe, according to the Rig Veda. But the One felt alone, and it split its body into two, giving rise to man and woman. This primordial division, described in the Up anishads, suggests that the fundamental hu man condition is loneliness. To overcome it, primordial man copulated with woman and from their union the human race was born. Physical intimacy helps to overcome some of our feelings of isolation.
Hindu nationalists should remember our civilization’s roots before their next prudish outburst. Because kama is everything – the source of life, the root of all activity – it was elevated to trivarga, one of the three goals of life. Despite that, Indians have remained ambivalent. The reason is that desire can be blind, insane and infuriatingly hard to manage. Deception, betrayal, jealousy and guilt hover around it.
Because of its ambivalent nature, kama has had its optimists and pessimists. The optimists focused on the other meaning of kama – pleasure – believing it not unreasonable to expect some sort of pleasure in our short, dreary lives.This led to the Kama Sutra, erotic arts and love poetry which flowered in the courts of the Gupta empire. The pessimists were primarily renouncers and sanyasis, for whom desire was an obstacle to their spiritual project. The confused householder oscillated between the extremes and sought answers in the dharma texts. The dharma shastras accepted kama’s positive qualities but decreed that it had to be confined to marriage and procreation. Although monogamy was integrated into the rules of dharma, men and women found ways to transgress, giving rise to illicit love.
The epic poets grasped kama’s three-fold nature – it is procreative; capable of ecstatic pleasure; and wildly uncontrollable. They saw its potential for lable. They saw its potential for tragedy because of an inherent conflict between kama and dharma. If dharma is our duty to others, kama is our duty to ourselves. Dharma usually trumps kama in the epics because we recognize that it is wrong to hurt another in pursuit of pleasure. A woman (like Pushkar) is generally more vulnerable to tragedy because of patriarchic inequality, as Draupadi would have testified at her disrobing in the Mahabharata.
Behind the Pushkar-Tharoor tragedy is a morality tale. Only Shashi Tharoor’s conscience knows the truth about the inevitable conflicts between kama and dharma in their marriage and the limits that were transgressed. It is not easy to navigate between one’s duty to oneself and the duty to another. Even if one doesn’t transgress physically, one does so in one’s heart. Desire is infuriating and this, alas, is the bewildering human condition.
It has been just over a year It has been just over a year since the tragic death of Tharoor’s wife, Sunanda Pushkar. Earlier this month, the police filed a case of murder. Since their marriage in 2010, the Tharoors had been a ‘dream couple’. They fell in love and married equally publicly.They were the toast of the town, living their enviably happy life under the spotlight of a ravenous media. She was attractive and vivacious; he was eloquent, charismatic and intellectually stimulating -a welcome change from the traditional Indian politician.
Human beings prefer to take sides rather than try and understand the deeper causes understand the deeper causes of tragedy. There is no point speculating about the ‘whodunnit’ -that is a job for the police. Rather than apportion blame, it is more useful to focus on the nature of human desire, its am biguous boundaries, and why it gets us into such trouble. The correct place to begin is em pathy -it could have happened to you or me.
In the beginning was kama – desire. Unlike the Judaic-Christian tradition where creation began with light in Genesis, the ancient Indian cosmos is born from kama, the primal biological energy. Kama was the first seed in the mind of the One, whose ‘great desire’ led to the cre ation of the universe, according to the Rig Veda. But the One felt alone, and it split its body into two, giving rise to man and woman. This primordial division, described in the Up anishads, suggests that the fundamental hu man condition is loneliness. To overcome it, primordial man copulated with woman and from their union the human race was born. Physical intimacy helps to overcome some of our feelings of isolation.
Hindu nationalists should remember our civilization’s roots before their next prudish outburst. Because kama is everything – the source of life, the root of all activity – it was elevated to trivarga, one of the three goals of life. Despite that, Indians have remained ambivalent. The reason is that desire can be blind, insane and infuriatingly hard to manage. Deception, betrayal, jealousy and guilt hover around it.
Because of its ambivalent nature, kama has had its optimists and pessimists. The optimists focused on the other meaning of kama – pleasure – believing it not unreasonable to expect some sort of pleasure in our short, dreary lives.This led to the Kama Sutra, erotic arts and love poetry which flowered in the courts of the Gupta empire. The pessimists were primarily renouncers and sanyasis, for whom desire was an obstacle to their spiritual project. The confused householder oscillated between the extremes and sought answers in the dharma texts. The dharma shastras accepted kama’s positive qualities but decreed that it had to be confined to marriage and procreation. Although monogamy was integrated into the rules of dharma, men and women found ways to transgress, giving rise to illicit love.
The epic poets grasped kama’s three-fold nature – it is procreative; capable of ecstatic pleasure; and wildly uncontrollable. They saw its potential for lable. They saw its potential for tragedy because of an inherent conflict between kama and dharma. If dharma is our duty to others, kama is our duty to ourselves. Dharma usually trumps kama in the epics because we recognize that it is wrong to hurt another in pursuit of pleasure. A woman (like Pushkar) is generally more vulnerable to tragedy because of patriarchic inequality, as Draupadi would have testified at her disrobing in the Mahabharata.
Behind the Pushkar-Tharoor tragedy is a morality tale. Only Shashi Tharoor’s conscience knows the truth about the inevitable conflicts between kama and dharma in their marriage and the limits that were transgressed. It is not easy to navigate between one’s duty to oneself and the duty to another. Even if one doesn’t transgress physically, one does so in one’s heart. Desire is infuriating and this, alas, is the bewildering human condition.
Published on January 25, 2015 02:17
December 29, 2014
संस्कृत पर अधूरी बहस
एक समय था जब मैं विश्वास करता था कि मैं एक वैश्विक नागरिक हूं और इस पर गर्व अनुभव करता था कि घास की एक पत्ती बहुत कुछ दूसरी पत्ती की तरह ही होती है। लेकिन अब मैं पाता हूं कि इस धरती पर घास की प्रत्येक पत्ती का अपना एक विशिष्ट स्थान है, जहां से वह अपना जीवन और ताकत पाती है। ऐसे ही किसी भी व्यक्ति की जड़ उस जमीन में होती है जहां से वह अपने जीवन और उससे संबंधित धारणा-विश्वास को अर्जित करता है। जब कोई अपने अतीत की तलाश करता है तो उन जड़ों को मजबूत करने में मदद मिलती है और खुद में आत्मविश्वास आता है। इतिहास को भूलने का मतलब है खुद अपने आपको भुलाने का खतरा। अपनी इस धारणा के तहत ही मैंने कुछ वषरें पूर्व संस्कृत को पढ़ना आरंभ किया था। अपने कॉलेज के दिनों से थोड़ी बहुत संस्कृत की जानकारी मुझे थी, लेकिन अब मैं महाभारत को पढ़ना चाहता था। इसके पीछे मेरा कोई धार्मिक अथवा राजनीतिक उद्देश्य नहीं था, बल्कि यह एक साहित्यिक लगाव था। इस पुस्तक को पूरी सजगता के साथ मैं अपने वर्तमान के लिए पढ़ना चाहता था जो हमारे जीवन को अधिक अर्थपूर्ण बनाता है। मैंने एक पंडित अथवा शास्त्री की तलाश की, लेकिन कोई भी मेरी इस जिज्ञासा को साझा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। इस प्रकार मुझे इसके लिए शिकागो यूनिवर्सिटी की ओर रुख करना पड़ा। मुझे संस्कृत पढ़ने के लिए इसलिए विदेश का रुख करना पड़ा, क्योंकि भारत में प्राय: यह एक कटु अनुभव साबित होता है। हालांकि हमारे यहां दर्जनों की संख्या में संस्कृत विश्वविद्यालय हैं, बावजूद इसके हमारे प्रतिभाशाली छात्र संस्कृत अध्यापक अथवा विद्वान नहीं बनना चाहते हैं।
दरअसल मध्य वर्ग इस विषय की पढ़ाई करके नौकरी को लेकर खुद को असुरक्षित महसूस करता है। इसका एक कारण यह भी है कि संस्कृत विषय को खुले तौर पर, जिज्ञासु रूप में और विश्लेषणात्मक मानसिकता से नहीं पढ़ाया जाता। आज संस्कृत के विद्वानों में आजादी के पूर्व की पीढ़ी का कोई ऐसा उत्ताराधिकारी नहीं है जो इस विषय का विशिष्ट ज्ञान रखता हो और वह अंतरराष्ट्रीय जिज्ञासुओं के लिए कुछ लिखने-बताने की क्षमता रखता हो। प्राचीन ज्ञान की महान परंपरा भी अब खतरे में पड़ती दिख रही है।
वर्तमान विवाद में हमारे स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा को लेकर कोई बहस नहीं हो रही है, जो अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य यह नहीं है कि किसी भाषा को पढ़ाया जाए अथवा कुछ तथ्यों को रटाया जाए, बल्कि इसका उद्देश्य विचार की क्षमता को बढ़ाना, प्रश्न करना, विषयों की व्याख्या करना और हमारी बोध क्षमताओं को विकसित करना है। इसका दूसरा उद्देश्य प्रेरणा भरना और युवाओं में मूल्यों का विकास है। केवल एक लगनशील व्यक्ति ही कुछ भी हासिल करने की क्षमता रखता है। ऐसा व्यक्ति ही अपनी पूर्ण मानवीय क्षमताओं को समझ सकता है और उन्हें हासिल कर सकता है। इन दोनों ही लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें लगनशील अध्यापकों की जरूरत है और यही कमी भारतीय शिक्षा की समस्याओं की मूल जड़ है। तमाम अभिभावकों और छात्रों का मानना है कि शिक्षा केवल जीने का एक जरिया है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह हमारे जीवन को बनाती है अथवा उसे आकार देती है। निश्चित ही बाद में शिक्षा हमारे कॅरियर को भी बनाती है, लेकिन शुरुआती शिक्षा हममें खुद अपने बारे में विचार करने, कल्पना करने और सपने देखने का आत्मविश्वास भरती है। संस्कृत की उपयुक्त शिक्षा हममें आत्मबोध और मानवीयता की भावना का विकास करती है, जैसा कि लैटिन और ग्रीक की पढ़ाई ने पीढ़ी दर पीढ़ी यूरोपीय लोगों के लिए किया है। वे अपनी जड़ों को पुराने रोम और यूनान में पाते हैं। यह उन लोगों के लिए एक उत्तर है जो पूछते हैं कि आखिर क्यों हम संस्कृत जैसी एक कठिन भाषा की पढ़ाई पर खर्च करें, जबकि हम इकोनामिक्स और कॉमर्स जैसे विषयों की पढ़ाई से अपने जीवन की संभावनाओं को बेहतर बना सकते हैं? वास्तव में संस्कृत भी यह काम कर सकती है और किसी के लिए भी अवसरों को बढ़ा सकती है। इस भाषा के व्याकरण नियमों को सीखने के लिए की गई कठिन मेहनत हमें अपने विचारों को गढ़ने और उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता दे सकती है। स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूले के तहत संस्कृत का अध्ययन विफल रहा। बेहतर अध्यापकों की कमी और खराब पाठ्यक्रम के कारण यह युवाओं का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई। पौराणिक कामिक बुक्स जैसे कि अमर चित्रकथा और संस्कृत में टीवी कार्टूनों के माध्यम से बच्चों में संस्कृत के प्रति रुचि जगाई जा सकती है। संस्कृत को लेकर मीडिया में चल रही बहस के मुताबिक स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा अनिवार्य करना गलत है। संस्कृत को रटाने और इसे अनिवार्य बनाने के बजाय इसकी बेहतर शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए।
वर्तमान बहस में दोनों ही पक्षों में गंभीरता का अभाव दिखता है, जो केवल अज्ञानता और उन्माद पर आधारित हैं। हिंदुत्ववादियों और सेक्युलरवादियों दोनों को ही समझना चाहिए कि आखिर क्यों आधुनिक युवा संस्कृत से दूर हैं? प्राचीन भारत में हवाई जहाज, स्टेम सेल शोध और प्लास्टिक सर्जरी के आडंबरपूर्ण दावों के कारण संस्कृत की वास्तविक उपलब्धियों और इसकी विश्वसनीयता की उपेक्षा हुई है। उदाहरण के लिए गणितीय दशमलव पद्धति को लिया जा सकता है। हिंदुत्ववादी पक्ष में खुलेपन का अभाव है, जबकि हमारे पूर्वज साहित्य, दर्शन, नाट्य रचना, विज्ञान और गणित को लेकर बहुत ही रचनात्मक और खुले विचारों वाले थे। राष्ट्रवादियों के इन नारों कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है अथवा भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए, ने लोगों को निराश किया है, क्योंकि ऐसा करके भारत को पाकिस्तान के साथ खड़ा किया जा रहा है। दूसरी तरफ वामपंथी चाहे वे मार्क्सवादी हों, नारीवादी हों या पर्यावरणवादी, भी इतिहास को वर्ग, जाति और लैंगिक संघर्ष के संदर्भ में देखने के दोषी हैं। वे उत्तर उपनिवेशवादी इतिहास को औपनिवेशिक दमन के नजरिये से देखते हैं। 18वीं और 19वीं शताब्दी में संस्कृत के प्रति पश्चिमी विद्वानों का योगदान अमूल्य है। उन्होंने ही प्राचीन पांडुलिपियों के गूढ़ रहस्यों को बताया और अतीत के दरवाजों को खोला।
हमें भारत में संस्कृत के भविष्य की परवाह इसलिए करनी चाहिए ताकि हमारे बच्चे अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें। इससे कुछ सर्वाधिक आधारभूत प्रश्नों का जवाब हासिल किया जा सकता है जैसे कि जीवन का क्या अर्थ है? इतिहास के ज्ञान से हम अधिक परिपक्व और आत्मविश्वासी व्यक्ति बनते हैं। यदि हम पिछले 3000 वर्षों के ब्यौरों को पढ़ने की योग्यता खो देंगे तो मानव जीवन के लिए जरूरी कुछ अनिवार्य और आधारभूत चीजों को भी खो देंगे। संस्कृत को पुनर्जीवित करते समय हमें अनिवार्य रूप से इसे धर्म से अलग करना चाहिए। यह राजनीतिक कार्यक्रम न होकर, सभी चिंतनशील भारतीयों की चिंता होनी चाहिए। संस्कृत को पुनर्जीवित करने को लेकर ताजा विवाद अच्छी बात होगी यदि भारत में संस्कृत को पढ़ाने और इसे सीखने की गुणवत्ता में इजाफा हो।
दरअसल मध्य वर्ग इस विषय की पढ़ाई करके नौकरी को लेकर खुद को असुरक्षित महसूस करता है। इसका एक कारण यह भी है कि संस्कृत विषय को खुले तौर पर, जिज्ञासु रूप में और विश्लेषणात्मक मानसिकता से नहीं पढ़ाया जाता। आज संस्कृत के विद्वानों में आजादी के पूर्व की पीढ़ी का कोई ऐसा उत्ताराधिकारी नहीं है जो इस विषय का विशिष्ट ज्ञान रखता हो और वह अंतरराष्ट्रीय जिज्ञासुओं के लिए कुछ लिखने-बताने की क्षमता रखता हो। प्राचीन ज्ञान की महान परंपरा भी अब खतरे में पड़ती दिख रही है।
वर्तमान विवाद में हमारे स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा को लेकर कोई बहस नहीं हो रही है, जो अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य यह नहीं है कि किसी भाषा को पढ़ाया जाए अथवा कुछ तथ्यों को रटाया जाए, बल्कि इसका उद्देश्य विचार की क्षमता को बढ़ाना, प्रश्न करना, विषयों की व्याख्या करना और हमारी बोध क्षमताओं को विकसित करना है। इसका दूसरा उद्देश्य प्रेरणा भरना और युवाओं में मूल्यों का विकास है। केवल एक लगनशील व्यक्ति ही कुछ भी हासिल करने की क्षमता रखता है। ऐसा व्यक्ति ही अपनी पूर्ण मानवीय क्षमताओं को समझ सकता है और उन्हें हासिल कर सकता है। इन दोनों ही लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें लगनशील अध्यापकों की जरूरत है और यही कमी भारतीय शिक्षा की समस्याओं की मूल जड़ है। तमाम अभिभावकों और छात्रों का मानना है कि शिक्षा केवल जीने का एक जरिया है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह हमारे जीवन को बनाती है अथवा उसे आकार देती है। निश्चित ही बाद में शिक्षा हमारे कॅरियर को भी बनाती है, लेकिन शुरुआती शिक्षा हममें खुद अपने बारे में विचार करने, कल्पना करने और सपने देखने का आत्मविश्वास भरती है। संस्कृत की उपयुक्त शिक्षा हममें आत्मबोध और मानवीयता की भावना का विकास करती है, जैसा कि लैटिन और ग्रीक की पढ़ाई ने पीढ़ी दर पीढ़ी यूरोपीय लोगों के लिए किया है। वे अपनी जड़ों को पुराने रोम और यूनान में पाते हैं। यह उन लोगों के लिए एक उत्तर है जो पूछते हैं कि आखिर क्यों हम संस्कृत जैसी एक कठिन भाषा की पढ़ाई पर खर्च करें, जबकि हम इकोनामिक्स और कॉमर्स जैसे विषयों की पढ़ाई से अपने जीवन की संभावनाओं को बेहतर बना सकते हैं? वास्तव में संस्कृत भी यह काम कर सकती है और किसी के लिए भी अवसरों को बढ़ा सकती है। इस भाषा के व्याकरण नियमों को सीखने के लिए की गई कठिन मेहनत हमें अपने विचारों को गढ़ने और उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता दे सकती है। स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूले के तहत संस्कृत का अध्ययन विफल रहा। बेहतर अध्यापकों की कमी और खराब पाठ्यक्रम के कारण यह युवाओं का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई। पौराणिक कामिक बुक्स जैसे कि अमर चित्रकथा और संस्कृत में टीवी कार्टूनों के माध्यम से बच्चों में संस्कृत के प्रति रुचि जगाई जा सकती है। संस्कृत को लेकर मीडिया में चल रही बहस के मुताबिक स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा अनिवार्य करना गलत है। संस्कृत को रटाने और इसे अनिवार्य बनाने के बजाय इसकी बेहतर शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए।
वर्तमान बहस में दोनों ही पक्षों में गंभीरता का अभाव दिखता है, जो केवल अज्ञानता और उन्माद पर आधारित हैं। हिंदुत्ववादियों और सेक्युलरवादियों दोनों को ही समझना चाहिए कि आखिर क्यों आधुनिक युवा संस्कृत से दूर हैं? प्राचीन भारत में हवाई जहाज, स्टेम सेल शोध और प्लास्टिक सर्जरी के आडंबरपूर्ण दावों के कारण संस्कृत की वास्तविक उपलब्धियों और इसकी विश्वसनीयता की उपेक्षा हुई है। उदाहरण के लिए गणितीय दशमलव पद्धति को लिया जा सकता है। हिंदुत्ववादी पक्ष में खुलेपन का अभाव है, जबकि हमारे पूर्वज साहित्य, दर्शन, नाट्य रचना, विज्ञान और गणित को लेकर बहुत ही रचनात्मक और खुले विचारों वाले थे। राष्ट्रवादियों के इन नारों कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है अथवा भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए, ने लोगों को निराश किया है, क्योंकि ऐसा करके भारत को पाकिस्तान के साथ खड़ा किया जा रहा है। दूसरी तरफ वामपंथी चाहे वे मार्क्सवादी हों, नारीवादी हों या पर्यावरणवादी, भी इतिहास को वर्ग, जाति और लैंगिक संघर्ष के संदर्भ में देखने के दोषी हैं। वे उत्तर उपनिवेशवादी इतिहास को औपनिवेशिक दमन के नजरिये से देखते हैं। 18वीं और 19वीं शताब्दी में संस्कृत के प्रति पश्चिमी विद्वानों का योगदान अमूल्य है। उन्होंने ही प्राचीन पांडुलिपियों के गूढ़ रहस्यों को बताया और अतीत के दरवाजों को खोला।
हमें भारत में संस्कृत के भविष्य की परवाह इसलिए करनी चाहिए ताकि हमारे बच्चे अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें। इससे कुछ सर्वाधिक आधारभूत प्रश्नों का जवाब हासिल किया जा सकता है जैसे कि जीवन का क्या अर्थ है? इतिहास के ज्ञान से हम अधिक परिपक्व और आत्मविश्वासी व्यक्ति बनते हैं। यदि हम पिछले 3000 वर्षों के ब्यौरों को पढ़ने की योग्यता खो देंगे तो मानव जीवन के लिए जरूरी कुछ अनिवार्य और आधारभूत चीजों को भी खो देंगे। संस्कृत को पुनर्जीवित करते समय हमें अनिवार्य रूप से इसे धर्म से अलग करना चाहिए। यह राजनीतिक कार्यक्रम न होकर, सभी चिंतनशील भारतीयों की चिंता होनी चाहिए। संस्कृत को पुनर्जीवित करने को लेकर ताजा विवाद अच्छी बात होगी यदि भारत में संस्कृत को पढ़ाने और इसे सीखने की गुणवत्ता में इजाफा हो।
Published on December 29, 2014 00:14
December 16, 2014
धारावी से प्रेरणा लेकर शहर बनाएं
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जल्द ही हमारे शहरों को पुनर्जीवित करने वाले महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की शुरुआत ‘स्मार्ट सिटी’ के बैनर तले करने वाले हैं। हालांकि, भारतीय शहर स्मार्ट तब बनेंगे जब इन्हें उन वास्तविक परिस्थितियों को केंद्र में रखकर बनाया जाएगा, जिनमें भारतीय काम करते हैं और उन्हें लालची राज्य सरकारों के चंगुल से छुड़ाकर स्वायत्तता दी जाएगी। जब तक शहरों में सीधे चुने गए ऐसे मेयर नहीं होंगे, जिन्हें शहर के लिए पैसा जुटाने की आज़ादी हो और म्यूनिसिपल कमिश्नर जिनके मातहत हों, तब तक शहरी भारत स्मार्ट होने वाला नहीं।‘स्मार्ट सिटी’ जुमला हमारी कल्पना को आकर्षित करता है और महत्वाकांक्षी भारत के सामने टेक्नोलॉजी पर आधारित टिकाऊ शहरी भारत का विज़न रखता है। आज़ादी के बाद मोदी पहले ऐसे राजनेता हैं, जो शहरों के बारे में सकारात्मक ढंग से बोल रहे हैं। अब तक नेताओं ने पैसे के लिए शहरों का दोहन तो किया है पर उसमें निवेश कुछ नहीं किया। सरल-सा कारण था, वोट तो गांवों में ही थे। मोदी को अहसास है कि भारत का भविष्य शहरों में लिखा जाएगा। एक-तिहाई भारत तो पहले से ही वहां रह रहा है और देश का दो-तिहाई रोजगार व संपदा वहां पैदा हो रही है। 2030 तक हमारे शहर देश की प्रति व्यक्ति आय में चार गुना इजाफा करेंगे।
आज भारतीय शहर संकट में है। भीड़भरे, शोर-गुल, प्रदूषण और हिंसा। शहरों की भद्दी वास्तविकता के कारण हम गांवों के रूमानी सपनों में खो जाते हैं। शहर से ही आए महात्मा गांधी ऐसे ही आत्म-निर्भर गांवों की कल्पना करते थे, जब तक कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने उनके दृष्टिकोण को नहीं सुधारा। उन्होंने कहा, ‘गांव स्थानीयवाद के कूड़ेदान, अज्ञान के अड्डे, संकुचित मानसिकता और सांप्रदायिकता के सिवाय है क्या? ’ नेहरू भी गांवों को लेकर दुविधापूर्ण मनस्थिति में थे। उनका संदेह इस समाजवादी विचार से उपजा था कि शहर, गांवों से आने वाले गरीब कामगारों का शोषण करते हैं। 1940 और 1950 के दशक की हिंदी फिल्मों ने भी ‘गुणवान’ गांवों और ‘अनैतिक’ शहरों की यह छवि पुष्ट की थी।
नेहरू के समय से ही शहरों के लिए कुलीनवादी मास्टर प्लान बनाने का फैशन था। इसमें जमीन, पूंजी और पानी की भारी बर्बादी होती और इसमें भारतीय हजारों वर्षों से जिस तरह रह रहे हैं, उसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। ये सख्त मास्टर प्लान कामकाजी और रहने की जगहों को अलग करने के उच्च वर्ग के विचार पर आधारित होते हैं। यह बहुत विनाशक तरीके से कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में व्यक्त हुआ, जिसने दिल्ली के लाखों गरीबों की आजीविका खत्म कर दी।
इसी मानसिकता ने नेहरू को पंजाब व हरियाणा की राजधानी के रूप में चंडीगढ़ स्थापित करने को प्रेरित किया, जिसमें कई एकड़ आकर्षक ग्रीन बेल्ट मौजूद है। चंडीगढ़ मुख्यत: नौकरशाहों के लिए हैं और आम आदमी की आजीविका के विरुद्ध है। अब मोदी ने हमारी शब्दावली में ‘स्मार्ट सिटी’ जुमला और ला दिया है। मैं समझता हूं कि यह पर्यावरण के अनुकूल, टेक्नोलॉजी से एकीकृत और समझदारी से नियोजित शहर है, जिसका जोर सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये शहरी मुश्किलें दूर करने पर है।
किंतु शहर तब तक ‘स्मार्ट’ नहीं हो सकता जब तक यह आम आदमी की आजीविका को केंद्र में रखकर डिजाइन नहीं किया जाता। इसके लिए मानवीय दृष्टिकोण से हमारे शहरी गरीबों और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखकर सोचना चाहिए। हमें हरे-भरे चंडीगढ़ से नहीं, मुंबई की कुख्यात झुग्गी बस्ती धारावी से प्रेरणा लेनी चाहिए। यह हमें बताती है कि जब गांवों के लोग आजीविका की तलाश में शहरों में आते हैं और काम की जगह के पास ही रहने की जगह खोज लेते हैं तो किस प्रकार शहर का संगठित रूप से विकास होता है।
उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए किराना, हेयर कटिंग सैलून, साइकिल रिपेयर और मोबाइल फोन रिचार्जिंग की दुकानें पैदा हो जाती हैं। धारावी की ताकत सड़कों पर दिखाई देने वाली सामाजिकता है, जहां अजनबियों के साथ परस्पर निर्भरता के रिश्ते बन जाते हैं। सड़कों की यह जिंदगी हर भारतीय शहर के लिए महत्वूपूर्ण है। यह अमेरिका में 1950 के बाद से गायब हो गई, जब ऑटोमोबाइल के विकास के साथ लोग उपनगरों में रहने चले गए। दुर्भाग्य से बड़ी संख्या में भारतीय इस अमेरिकी उपनगरीय जीवन-शैली से अभिभूत हैं। नतीजा यह है कि कई शहरी नियामक संस्थाएं जमीन के मिश्रित उपयोग की अनुमति नहीं देतीं कि एक ही कॉलोनी में कामकाजी और रहवासी दोनों क्षेत्रों का साथ में अस्तित्व हो।
कई बहुमंजिला इमारतों को इजाजत नहीं देते। ऐसे देश में यह बेतुका है, जहां जमीन की कमी हो। जिस देश में लोग पैदल चलते हों और साइकिल की सवारी करते हों, वहां सड़क बनाते समय सबसे पहले फुटपाथ और साइकिल पथ के बारे में सोचा जाना चाहिए। इसकी बजाय हमारी कुलीनवादी मानसिकता हजार छात्रों के लिए सैकड़ों एकड़ क्षेत्र वाली यूनिवर्सिटी बनाने की अनुमति देती है, जबकि समझदारी तो इसके लिए शहर के मध्य में बहुमंजिला इमारत बनाने में होती। वहां छात्र जनता का हिस्सा होते और रोज लोगों से उनका संपर्क रहता।
स्मार्ट सिटी को शासन और आर्थिक मामलों में स्वायत्त होना जरूरी है। आज भारतीय शहर राज्य सरकारों की दया पर निर्भर हैं। इसके लिए 74वां संविधान संशोधन लाया गया था, लेकिन राज्यों ने इसमें अड़ंगा डाल दिया। जब तक लोगों के प्रति जवाबदेह मेयर नहीं होगा, सेवाओं में सुधार भी नहीं होगा। म्यूनिसिपल कमिश्नर मुख्यमंत्री के नहीं, मेयर के मातहत होना चाहिए। पैसा जुटाने के इसके अपने संसाधन होने चाहिए। वह टैक्स के अलावा दी जा रही सेवाओं के बदले तर्कसंगत शुल्क वसूल करे। राजस्व बंटवारे के तहत राज्य के साथ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि पहले से ही पता हो कि कितना पैसा मिलने वाला है। दुनिया के कई शहरों की तरह इसे म्यूनिसिपल बांड जारी करने की अनुमति होनी चाहिए। मोदी को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे शहरों को पुनर्जीवित करने को केंद्र के एजेंडे में ले आए।
उन्हें जल्दबाजी न कर, सावधानी से कार्यक्रम विकसित करना चाहिए। जब वे स्मार्ट सिटी का कार्यक्रम लाएंगे तो लोग उन पर शोशेबाजी या नई बोतल में पुरानी शराब का आरोप लगाएंगे। एक अर्थ में यह सही भी है, क्योंकि यह विचार पुरानी सरकार के जेएनएनयूआरएम का हिस्सा रहा है। किंतु 20 साल बाद आप क्या याद रखेंगे, जेएनएनयूआरएम या स्मार्ट सिटी? बेशक, यह ऐसा नाम है, जो लोगों को इसके लिए एकजुट करेगा। कामना है कि यह वाकई ऐसा कार्यक्रम साबित हो, जो भारत के भविष्य को रूपांतरित कर दे।
आज भारतीय शहर संकट में है। भीड़भरे, शोर-गुल, प्रदूषण और हिंसा। शहरों की भद्दी वास्तविकता के कारण हम गांवों के रूमानी सपनों में खो जाते हैं। शहर से ही आए महात्मा गांधी ऐसे ही आत्म-निर्भर गांवों की कल्पना करते थे, जब तक कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने उनके दृष्टिकोण को नहीं सुधारा। उन्होंने कहा, ‘गांव स्थानीयवाद के कूड़ेदान, अज्ञान के अड्डे, संकुचित मानसिकता और सांप्रदायिकता के सिवाय है क्या? ’ नेहरू भी गांवों को लेकर दुविधापूर्ण मनस्थिति में थे। उनका संदेह इस समाजवादी विचार से उपजा था कि शहर, गांवों से आने वाले गरीब कामगारों का शोषण करते हैं। 1940 और 1950 के दशक की हिंदी फिल्मों ने भी ‘गुणवान’ गांवों और ‘अनैतिक’ शहरों की यह छवि पुष्ट की थी।
नेहरू के समय से ही शहरों के लिए कुलीनवादी मास्टर प्लान बनाने का फैशन था। इसमें जमीन, पूंजी और पानी की भारी बर्बादी होती और इसमें भारतीय हजारों वर्षों से जिस तरह रह रहे हैं, उसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। ये सख्त मास्टर प्लान कामकाजी और रहने की जगहों को अलग करने के उच्च वर्ग के विचार पर आधारित होते हैं। यह बहुत विनाशक तरीके से कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में व्यक्त हुआ, जिसने दिल्ली के लाखों गरीबों की आजीविका खत्म कर दी।
इसी मानसिकता ने नेहरू को पंजाब व हरियाणा की राजधानी के रूप में चंडीगढ़ स्थापित करने को प्रेरित किया, जिसमें कई एकड़ आकर्षक ग्रीन बेल्ट मौजूद है। चंडीगढ़ मुख्यत: नौकरशाहों के लिए हैं और आम आदमी की आजीविका के विरुद्ध है। अब मोदी ने हमारी शब्दावली में ‘स्मार्ट सिटी’ जुमला और ला दिया है। मैं समझता हूं कि यह पर्यावरण के अनुकूल, टेक्नोलॉजी से एकीकृत और समझदारी से नियोजित शहर है, जिसका जोर सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये शहरी मुश्किलें दूर करने पर है।
किंतु शहर तब तक ‘स्मार्ट’ नहीं हो सकता जब तक यह आम आदमी की आजीविका को केंद्र में रखकर डिजाइन नहीं किया जाता। इसके लिए मानवीय दृष्टिकोण से हमारे शहरी गरीबों और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखकर सोचना चाहिए। हमें हरे-भरे चंडीगढ़ से नहीं, मुंबई की कुख्यात झुग्गी बस्ती धारावी से प्रेरणा लेनी चाहिए। यह हमें बताती है कि जब गांवों के लोग आजीविका की तलाश में शहरों में आते हैं और काम की जगह के पास ही रहने की जगह खोज लेते हैं तो किस प्रकार शहर का संगठित रूप से विकास होता है।
उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए किराना, हेयर कटिंग सैलून, साइकिल रिपेयर और मोबाइल फोन रिचार्जिंग की दुकानें पैदा हो जाती हैं। धारावी की ताकत सड़कों पर दिखाई देने वाली सामाजिकता है, जहां अजनबियों के साथ परस्पर निर्भरता के रिश्ते बन जाते हैं। सड़कों की यह जिंदगी हर भारतीय शहर के लिए महत्वूपूर्ण है। यह अमेरिका में 1950 के बाद से गायब हो गई, जब ऑटोमोबाइल के विकास के साथ लोग उपनगरों में रहने चले गए। दुर्भाग्य से बड़ी संख्या में भारतीय इस अमेरिकी उपनगरीय जीवन-शैली से अभिभूत हैं। नतीजा यह है कि कई शहरी नियामक संस्थाएं जमीन के मिश्रित उपयोग की अनुमति नहीं देतीं कि एक ही कॉलोनी में कामकाजी और रहवासी दोनों क्षेत्रों का साथ में अस्तित्व हो।
कई बहुमंजिला इमारतों को इजाजत नहीं देते। ऐसे देश में यह बेतुका है, जहां जमीन की कमी हो। जिस देश में लोग पैदल चलते हों और साइकिल की सवारी करते हों, वहां सड़क बनाते समय सबसे पहले फुटपाथ और साइकिल पथ के बारे में सोचा जाना चाहिए। इसकी बजाय हमारी कुलीनवादी मानसिकता हजार छात्रों के लिए सैकड़ों एकड़ क्षेत्र वाली यूनिवर्सिटी बनाने की अनुमति देती है, जबकि समझदारी तो इसके लिए शहर के मध्य में बहुमंजिला इमारत बनाने में होती। वहां छात्र जनता का हिस्सा होते और रोज लोगों से उनका संपर्क रहता।
स्मार्ट सिटी को शासन और आर्थिक मामलों में स्वायत्त होना जरूरी है। आज भारतीय शहर राज्य सरकारों की दया पर निर्भर हैं। इसके लिए 74वां संविधान संशोधन लाया गया था, लेकिन राज्यों ने इसमें अड़ंगा डाल दिया। जब तक लोगों के प्रति जवाबदेह मेयर नहीं होगा, सेवाओं में सुधार भी नहीं होगा। म्यूनिसिपल कमिश्नर मुख्यमंत्री के नहीं, मेयर के मातहत होना चाहिए। पैसा जुटाने के इसके अपने संसाधन होने चाहिए। वह टैक्स के अलावा दी जा रही सेवाओं के बदले तर्कसंगत शुल्क वसूल करे। राजस्व बंटवारे के तहत राज्य के साथ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि पहले से ही पता हो कि कितना पैसा मिलने वाला है। दुनिया के कई शहरों की तरह इसे म्यूनिसिपल बांड जारी करने की अनुमति होनी चाहिए। मोदी को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे शहरों को पुनर्जीवित करने को केंद्र के एजेंडे में ले आए।
उन्हें जल्दबाजी न कर, सावधानी से कार्यक्रम विकसित करना चाहिए। जब वे स्मार्ट सिटी का कार्यक्रम लाएंगे तो लोग उन पर शोशेबाजी या नई बोतल में पुरानी शराब का आरोप लगाएंगे। एक अर्थ में यह सही भी है, क्योंकि यह विचार पुरानी सरकार के जेएनएनयूआरएम का हिस्सा रहा है। किंतु 20 साल बाद आप क्या याद रखेंगे, जेएनएनयूआरएम या स्मार्ट सिटी? बेशक, यह ऐसा नाम है, जो लोगों को इसके लिए एकजुट करेगा। कामना है कि यह वाकई ऐसा कार्यक्रम साबित हो, जो भारत के भविष्य को रूपांतरित कर दे।
Published on December 16, 2014 06:10
December 14, 2014
Sanskrit, taught well, can be as rewarding as economics
There was a time when I used to believe like Diogenes the Cynic that I was a citizen of the world, and I used to strut about feeling that one blade of grass is much like another.
Now I feel that each blade has its unique spot on the earth from where it draws its life and strength. So is a man rooted to a land from where he derives his life and his faith. Discovering one’s past helps to nourish those roots, instilling a quiet self-confidence as one travels through life. Losing that memory risks losing a sense of the self.
With this conviction I decided to read Sanskrit a few years ago. I knew a little from college but now I wanted to read the Mahabharata. Mine was not a religious or political project but a literary one. But I did not want to escape to ‘the wonder that was India’. I wanted to approach the text with full consciousness of the present, making it relevant to my life. I searched for a pundit or a shastri but none shared my desire to ‘interrogate’ the text so that it would speak to me. Thus, I ended up at the University of Chicago.
I had to go abroad to study Sanskrit because it is too often a soul-killing experience in India. Although we have dozens of Sanskrit university departments, our better students do not become Sanskrit teachers. Partly it is middle-class insecurities over jobs, but Sanskrit is not taught with an open, enquiring, analytical mind. According to the renowned Sanskritist, Sheldon Pollock, India had at Independence a wealth of world-class scholars such as Hiriyanna, Kane, Radhakrishnan, Sukthankar, and more. Today we have none.
The current controversy about teaching Sanskrit in our schools is not the debate we should be having. The primary purpose of education is not to teach a language or pump facts into us but to foster our ability to think — to question, interpret and develop our cognitive capabilities. A second reason is to inspire and instill passion. Only a passionate person achieves anything in life and realizes the full human potential. And this needs passionate teachers, which is at the heart of the problem.
Too many believe that education is only about ‘making a living’ when, in fact, it is also about ‘making a life.’ Yes, later education should prepare one for a career, but early education should instill the self-confidence to think for ourselves, to imagine and dream about something we absolutely must do in life. A proper teaching of Sanskrit can help in fostering a sense of self-assuredness and humanity, much in the way that reading Latin and Greek did for generations of Europeans when they searched for their roots in classical Rome and Greece.
This is the answer to the bright young person who asks, ‘Why should I invest in learning a difficult language like Sanskrit when I could enhance my life chances by studying economics or commerce?’ Sanskrit can, in fact, boost one’s life chances. A rigorous training in Panini’s grammar rules can reward us with the ability to formulate and express ideas that are uncommon in our languages of everyday life. Its literature opens up ‘another human consciousness and another way to be human’, according to Pollock.
Teaching Sanskrit under the ‘three-language formula’ has failed because of poor teachers and curriculum. Mythological comic books such as Amar Chitra Katha and TV cartoons in Sanskrit with captions might at least catch the imagination of children. But the debate is also about choice. Those who would make teaching Sanskrit compulsory in school are wrong. We should foster excellence in Sanskrit teaching rather than shove it down children’s throats.
The lack of civility in the present debate is only matched by ignorance and zealotry on both sides. The Hindu right makes grandiose claims about airplanes and stem cell research in ancient India and this undermines the real achievements of Sanskrit. The anti-brahmin, Marxist, post-colonial attack reduces the genuine achievements of Orientalist scholars to ‘false consciousness’. Those who defend Sanskrit lack the open-mindedness that led, ironically, to the great burst of creative works by their ancestors. In the end, the present controversy might be a good thing if it helps to foster excellence in teaching Sanskrit in India.
Now I feel that each blade has its unique spot on the earth from where it draws its life and strength. So is a man rooted to a land from where he derives his life and his faith. Discovering one’s past helps to nourish those roots, instilling a quiet self-confidence as one travels through life. Losing that memory risks losing a sense of the self.
With this conviction I decided to read Sanskrit a few years ago. I knew a little from college but now I wanted to read the Mahabharata. Mine was not a religious or political project but a literary one. But I did not want to escape to ‘the wonder that was India’. I wanted to approach the text with full consciousness of the present, making it relevant to my life. I searched for a pundit or a shastri but none shared my desire to ‘interrogate’ the text so that it would speak to me. Thus, I ended up at the University of Chicago.
I had to go abroad to study Sanskrit because it is too often a soul-killing experience in India. Although we have dozens of Sanskrit university departments, our better students do not become Sanskrit teachers. Partly it is middle-class insecurities over jobs, but Sanskrit is not taught with an open, enquiring, analytical mind. According to the renowned Sanskritist, Sheldon Pollock, India had at Independence a wealth of world-class scholars such as Hiriyanna, Kane, Radhakrishnan, Sukthankar, and more. Today we have none.
The current controversy about teaching Sanskrit in our schools is not the debate we should be having. The primary purpose of education is not to teach a language or pump facts into us but to foster our ability to think — to question, interpret and develop our cognitive capabilities. A second reason is to inspire and instill passion. Only a passionate person achieves anything in life and realizes the full human potential. And this needs passionate teachers, which is at the heart of the problem.
Too many believe that education is only about ‘making a living’ when, in fact, it is also about ‘making a life.’ Yes, later education should prepare one for a career, but early education should instill the self-confidence to think for ourselves, to imagine and dream about something we absolutely must do in life. A proper teaching of Sanskrit can help in fostering a sense of self-assuredness and humanity, much in the way that reading Latin and Greek did for generations of Europeans when they searched for their roots in classical Rome and Greece.
This is the answer to the bright young person who asks, ‘Why should I invest in learning a difficult language like Sanskrit when I could enhance my life chances by studying economics or commerce?’ Sanskrit can, in fact, boost one’s life chances. A rigorous training in Panini’s grammar rules can reward us with the ability to formulate and express ideas that are uncommon in our languages of everyday life. Its literature opens up ‘another human consciousness and another way to be human’, according to Pollock.
Teaching Sanskrit under the ‘three-language formula’ has failed because of poor teachers and curriculum. Mythological comic books such as Amar Chitra Katha and TV cartoons in Sanskrit with captions might at least catch the imagination of children. But the debate is also about choice. Those who would make teaching Sanskrit compulsory in school are wrong. We should foster excellence in Sanskrit teaching rather than shove it down children’s throats.
The lack of civility in the present debate is only matched by ignorance and zealotry on both sides. The Hindu right makes grandiose claims about airplanes and stem cell research in ancient India and this undermines the real achievements of Sanskrit. The anti-brahmin, Marxist, post-colonial attack reduces the genuine achievements of Orientalist scholars to ‘false consciousness’. Those who defend Sanskrit lack the open-mindedness that led, ironically, to the great burst of creative works by their ancestors. In the end, the present controversy might be a good thing if it helps to foster excellence in teaching Sanskrit in India.
Published on December 14, 2014 03:30
November 21, 2014
मुक्त बाजार का मंत्र
बहुत से भारतीयों की धारणा अभी भी यही है कि बाजार धनी लोगों को और अधिक धनी तथा गरीबों को और अधिक गरीब बनाता है तथा यह भ्रष्टाचार एवं क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा देता है। वास्तव में यह एक गलत धारणा है। वास्तविकता यही है कि पिछले दो दशकों में व्यापक तौर पर समृद्धि बढ़ी है और तकरीबन 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं। बावजूद इसके लोग अभी भी बाजार पर अविश्वास करते हैं। आंशिक तौर पर इसके लिए आर्थिक सुधारकों को दोष दिया जा सकता है, जो प्रतिस्पर्धी बाजार की विशेषताओं अथवा धारणा को ब्रिटेन की मार्गरेट थैचर की तरह आम लोगों को नहीं बता सके। सौभाग्य से हमारे पास अब नरेंद्र मोदी जैसा श्रेष्ठ सेल्समैन उपलब्ध है जो हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बदलने में समर्थ है। कुछ सप्ताह पूर्व जब सरकार ने डीजल के दामों को विनियंत्रित किया तो मोदी ने यह बताने का मौका खो दिया कि क्यों प्रतिस्पर्धी बाजार अधिक बेहतर है जो कि राजनेताओं के बजाय बाजार द्वारा निर्धारित होता है। उन्हें लोगों को याद दिलाना चाहिए कि 1955 से 1991 के बीच समाजवादी अर्थव्यवस्था वाले अंधकारपूर्ण वर्षों, जिसे हम लाइसेंस राज के रूप में याद करते हैं, के समय हमारा जीवन नियंत्रित कीमतों द्वारा प्रभावित होता था।
राजनीतिक तौर पर निर्धारित की गई कीमतें उत्पादकों को उनकी लागत निकालने की अनुमति नहीं देती थीं, जिससे अभाव की स्थिति बनी रहती थी और कालाबाजारी को बढ़ावा मिलता था। मुझे अभी भी याद है कि मेरा पारिवारिक घर वर्षों तक अधूरा रहा, क्योंकि मेरे पिता सीमेंट की कुछ अतिरिक्त बोरियों के लिए रिश्वत देने को तैयार नहीं हुए। इस राजनीतिक मूल्य व्यवस्था के कारण 1989 में शक्तिशाली सोवियत संघ भी ढह गया। कम्युनिस्ट सरकार का सभी फैक्टियों और उत्पादन के अन्य साधनों पर स्वामित्व था। क्या उत्पादन किया जाना है, कितना उत्पादन होना है और कीमतें क्या होंगी, यह सभी कुछ सोवियत संघ के नौकरशाह तय करते थे, न कि बाजार। इसने लोगों को बर्बाद करने का काम किया। रूस की दुर्गति को देखते हुए दुनिया ने यही सीखा कि सरकार का काम बिजनेस नहीं है और उसे वृहद आर्थिक नीतियों के मामले में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए। भ्रष्टाचार कीमतों में हेरफेर का अनिवार्य परिणाम है। इसके कारण डीजल में केरोसिन की मिलावट को बढ़ावा मिला। इस बारे में पूर्व सरकारी तेल समन्वय समिति ने एक चौंकाने वाला आंकड़े पेश करते हुए तकरीबन 40,000 करोड़ रुपये के घोटाले का अनुमान व्यक्त किया। जांच में यह बात भी सामने आई कि इस रैकेट का खुलासा करने वाले तमाम मुखबिरों को मौत के घाट उतार दिया गया। खाद्य कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से लोगों को एक रुपये प्रति किलो अनाज मुहैया कराने के लिए राष्ट्र को वास्तव में 3.65 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आधा अनाज खराब हो जाता है, जिससे राष्ट्र को प्रति वर्ष 50,000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है।
बिजली के मामले में भी चोरी कीमत नियंत्रण का स्वाभाविक परिणाम है। इससे राज्य बिजली बोर्डों को वित्तीय नुकसान होता है। रेलवे को दूसरी श्रेणी के प्रति टिकट पर हर किलोमीटर के हिसाब से 24 पैसे का नुकसान होता है। यह तब है जबकि कुछ महीने पहले ही रेल किरायों में 15 फीसद की बढ़ोतरी की गई है। रेलवे को यात्री किराये से 26000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है। यात्री किराये में होने वाले घाटे की भरपाई मॉल भाड़े में बढ़ोतरी से की जाती है। यही मुख्य वजह है जिस कारण भारतीय रेल अपना आधुनिकीकरण नहीं कर पा रही है और शेष दुनिया की तुलना में भारत पीछे है। मोदी लोगों को समझाएं कि एक दक्ष और भ्रष्टाचारमुक्त अर्थव्यवस्था राजनेताओं को कीमतें निर्धारित करने की अनुमति नहीं देती। इससे उन्हें लोगों को यह समझाने में भी मदद मिलेगी कि जन धन योजना वाले खातों में नकदी धन हस्तांतरण बेहतर है और इस तरह गैस सिलेंडरों पर मिलने वाली सब्सिडी, पीडीएस खाद्यान्न और बिजली आदि के लिए चलाई जा रही योजनाओं में भ्रष्टाचार घटेगा।
भ्रष्टाचार रोकने के मामले में लोकपाल के बजाय बाजार अधिक बेहतर काम कर सकता है। इस बात को अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे नहीं समझ सके। डीजल की कीमतों को विनियंत्रित करने के कुछ सप्ताह बाद ही सरकार ने कोयला खनन के लिए प्रतिस्पर्धी निविदा की घोषणा की। यह एक अच्छा निर्णय है। यह खुली निविदा उन्हीं तक सीमित है जो कोयले का उपयोग करते हैं, जैसे कि बिजली कंपनियां। इससे राज्यों को कई गुना अधिक राजस्व अर्जित होगा और कोयला बाजार अधिक प्रतिस्पर्धी होगा। इससे कोल इंडिया का एकाधिकार खत्म होगा, जो कि एक प्रमुख समस्या बन चुका है। एयरलाइंस, टेलीफोन और टेलीविजन में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने की जरूरत है ताकि विकल्पों की उपलब्धता बढ़े और अधिक स्वतंत्रता कायम हो। एक अन्य हास्यास्पद बात यह है कि भारतीय सोचते हैं कि वे अपने गौरवमयी लोकतंत्र के कारण आजाद हैं, लेकिन आर्थिक तौर पर वे अभी भी पराधीन हैं। मोदी बार-बार कहते हैं कि सरकार का काम बिजनेस नहीं शासन संचालन है, लेकिन वह अपने कड़े निर्णयों का प्रचार नहीं कर सकते, जो आगामी कुछ महीनों में अवश्यंभावी हैं। उन्हें समझना होगा कि सब्सिडी, मूल्य नियंत्रण और सरकारी एकाधिकार से विकृति पैदा हो रही है और इससे जरूरतमंद आम लोगों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। बाजार प्रतिस्पर्धा से कीमतें नियंत्रित होंगी, उत्पादों की गुणवत्ता बेहतर होगी और आम आदमी की आजादी बढ़ेगी। दुनिया भर में उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि बिजनेस करने की स्वतंत्रता का उल्टा संबंध भ्रष्टाचार सूचकांक से है। इसका आशय यही है कि सर्वाधिक भ्रष्ट देश वह हैं जहां सरकारें बिजनेस पर नियंत्रण रखती हैं अथवा बाजार पर उनका बहुत अधिक हस्तक्षेप है। 2011 में दुनिया के 10 में से 7 सबसे कम भ्रष्ट देश बिजनेस फ्रीडम वाले देशों की सूची में शीर्ष 10 में शामिल थे। इनमें न्यूजीलैंड, सिंगापुर, डेनमार्क, कनाडा, स्वीडन और फिनलैंड शामिल हैं। 10 सर्वाधिक भ्रष्ट देश इस सूची में सबसे निचले पायदान पर हैं। भारत को इसमें बहुत ही खराब 167वां स्थान मिला और भ्रष्टाचार सूचकांक में भी भारत 95वें स्थान पर है।
स्कैंडिनेवियाई देशों जहां से भारत ने लोकपाल की धारणा ली है, में सर्वाधिक बिजनेस स्वतंत्रता है और वे सबसे कम भ्रष्ट हैं। बावजूद इसके भारतीय सोचते हैं कि वे अपने गौरवपूर्ण लोकतंत्र के कारण आजाद हैं। अंत में प्रधानमंत्री मोदी का आकलन रोजगार निर्माण, महंगाई पर नियंत्रण और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने से होगा। बाजार व्यवस्था पूर्ण नहीं है, लेकिन किसी भी अन्य विकल्प से बेहतर है। यदि मोदी हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को बदलने में कामयाब हुए तो अभिलाषी भारत समाजवादी पाखंड की छाया से अंतत: मुक्त हो सकेगा और बाजारवादी व्यवस्था पर भरोसे की शुरुआत होगी।
राजनीतिक तौर पर निर्धारित की गई कीमतें उत्पादकों को उनकी लागत निकालने की अनुमति नहीं देती थीं, जिससे अभाव की स्थिति बनी रहती थी और कालाबाजारी को बढ़ावा मिलता था। मुझे अभी भी याद है कि मेरा पारिवारिक घर वर्षों तक अधूरा रहा, क्योंकि मेरे पिता सीमेंट की कुछ अतिरिक्त बोरियों के लिए रिश्वत देने को तैयार नहीं हुए। इस राजनीतिक मूल्य व्यवस्था के कारण 1989 में शक्तिशाली सोवियत संघ भी ढह गया। कम्युनिस्ट सरकार का सभी फैक्टियों और उत्पादन के अन्य साधनों पर स्वामित्व था। क्या उत्पादन किया जाना है, कितना उत्पादन होना है और कीमतें क्या होंगी, यह सभी कुछ सोवियत संघ के नौकरशाह तय करते थे, न कि बाजार। इसने लोगों को बर्बाद करने का काम किया। रूस की दुर्गति को देखते हुए दुनिया ने यही सीखा कि सरकार का काम बिजनेस नहीं है और उसे वृहद आर्थिक नीतियों के मामले में न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए। भ्रष्टाचार कीमतों में हेरफेर का अनिवार्य परिणाम है। इसके कारण डीजल में केरोसिन की मिलावट को बढ़ावा मिला। इस बारे में पूर्व सरकारी तेल समन्वय समिति ने एक चौंकाने वाला आंकड़े पेश करते हुए तकरीबन 40,000 करोड़ रुपये के घोटाले का अनुमान व्यक्त किया। जांच में यह बात भी सामने आई कि इस रैकेट का खुलासा करने वाले तमाम मुखबिरों को मौत के घाट उतार दिया गया। खाद्य कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से लोगों को एक रुपये प्रति किलो अनाज मुहैया कराने के लिए राष्ट्र को वास्तव में 3.65 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि आधा अनाज खराब हो जाता है, जिससे राष्ट्र को प्रति वर्ष 50,000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है।
बिजली के मामले में भी चोरी कीमत नियंत्रण का स्वाभाविक परिणाम है। इससे राज्य बिजली बोर्डों को वित्तीय नुकसान होता है। रेलवे को दूसरी श्रेणी के प्रति टिकट पर हर किलोमीटर के हिसाब से 24 पैसे का नुकसान होता है। यह तब है जबकि कुछ महीने पहले ही रेल किरायों में 15 फीसद की बढ़ोतरी की गई है। रेलवे को यात्री किराये से 26000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है। यात्री किराये में होने वाले घाटे की भरपाई मॉल भाड़े में बढ़ोतरी से की जाती है। यही मुख्य वजह है जिस कारण भारतीय रेल अपना आधुनिकीकरण नहीं कर पा रही है और शेष दुनिया की तुलना में भारत पीछे है। मोदी लोगों को समझाएं कि एक दक्ष और भ्रष्टाचारमुक्त अर्थव्यवस्था राजनेताओं को कीमतें निर्धारित करने की अनुमति नहीं देती। इससे उन्हें लोगों को यह समझाने में भी मदद मिलेगी कि जन धन योजना वाले खातों में नकदी धन हस्तांतरण बेहतर है और इस तरह गैस सिलेंडरों पर मिलने वाली सब्सिडी, पीडीएस खाद्यान्न और बिजली आदि के लिए चलाई जा रही योजनाओं में भ्रष्टाचार घटेगा।
भ्रष्टाचार रोकने के मामले में लोकपाल के बजाय बाजार अधिक बेहतर काम कर सकता है। इस बात को अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे नहीं समझ सके। डीजल की कीमतों को विनियंत्रित करने के कुछ सप्ताह बाद ही सरकार ने कोयला खनन के लिए प्रतिस्पर्धी निविदा की घोषणा की। यह एक अच्छा निर्णय है। यह खुली निविदा उन्हीं तक सीमित है जो कोयले का उपयोग करते हैं, जैसे कि बिजली कंपनियां। इससे राज्यों को कई गुना अधिक राजस्व अर्जित होगा और कोयला बाजार अधिक प्रतिस्पर्धी होगा। इससे कोल इंडिया का एकाधिकार खत्म होगा, जो कि एक प्रमुख समस्या बन चुका है। एयरलाइंस, टेलीफोन और टेलीविजन में प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने की जरूरत है ताकि विकल्पों की उपलब्धता बढ़े और अधिक स्वतंत्रता कायम हो। एक अन्य हास्यास्पद बात यह है कि भारतीय सोचते हैं कि वे अपने गौरवमयी लोकतंत्र के कारण आजाद हैं, लेकिन आर्थिक तौर पर वे अभी भी पराधीन हैं। मोदी बार-बार कहते हैं कि सरकार का काम बिजनेस नहीं शासन संचालन है, लेकिन वह अपने कड़े निर्णयों का प्रचार नहीं कर सकते, जो आगामी कुछ महीनों में अवश्यंभावी हैं। उन्हें समझना होगा कि सब्सिडी, मूल्य नियंत्रण और सरकारी एकाधिकार से विकृति पैदा हो रही है और इससे जरूरतमंद आम लोगों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। बाजार प्रतिस्पर्धा से कीमतें नियंत्रित होंगी, उत्पादों की गुणवत्ता बेहतर होगी और आम आदमी की आजादी बढ़ेगी। दुनिया भर में उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि बिजनेस करने की स्वतंत्रता का उल्टा संबंध भ्रष्टाचार सूचकांक से है। इसका आशय यही है कि सर्वाधिक भ्रष्ट देश वह हैं जहां सरकारें बिजनेस पर नियंत्रण रखती हैं अथवा बाजार पर उनका बहुत अधिक हस्तक्षेप है। 2011 में दुनिया के 10 में से 7 सबसे कम भ्रष्ट देश बिजनेस फ्रीडम वाले देशों की सूची में शीर्ष 10 में शामिल थे। इनमें न्यूजीलैंड, सिंगापुर, डेनमार्क, कनाडा, स्वीडन और फिनलैंड शामिल हैं। 10 सर्वाधिक भ्रष्ट देश इस सूची में सबसे निचले पायदान पर हैं। भारत को इसमें बहुत ही खराब 167वां स्थान मिला और भ्रष्टाचार सूचकांक में भी भारत 95वें स्थान पर है।
स्कैंडिनेवियाई देशों जहां से भारत ने लोकपाल की धारणा ली है, में सर्वाधिक बिजनेस स्वतंत्रता है और वे सबसे कम भ्रष्ट हैं। बावजूद इसके भारतीय सोचते हैं कि वे अपने गौरवपूर्ण लोकतंत्र के कारण आजाद हैं। अंत में प्रधानमंत्री मोदी का आकलन रोजगार निर्माण, महंगाई पर नियंत्रण और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने से होगा। बाजार व्यवस्था पूर्ण नहीं है, लेकिन किसी भी अन्य विकल्प से बेहतर है। यदि मोदी हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को बदलने में कामयाब हुए तो अभिलाषी भारत समाजवादी पाखंड की छाया से अंतत: मुक्त हो सकेगा और बाजारवादी व्यवस्था पर भरोसे की शुरुआत होगी।
Published on November 21, 2014 23:55
November 2, 2014
Can our best salesman sell us the free market?
Too many Indians still believe that the market makes “the rich richer and the poor poorer” and leads to corruption and crony capitalism. This is false, of course. Despite the market having generated broad-spread prosperity over two decades — lifting 250 million poor above the poverty line — people still distrust the market and the nation continues to reform by stealth. The blame lies partly with our reformers who have not ‘sold’ the competitive market as Margaret Thatcher did in Britain. But fortunately, we now have in Narendra Modi an outstanding salesman of ideas who could transform the master narrative of our political economy.
When the government decontrolled the price of diesel two weeks ago, Modi lost the opportunity to explain why the competitive market is far better at discovering prices than politicians. He could have reminded people that during our socialist licence raj, price controls pervaded our lives. Political prices did not allow producers to recover costs and this led to scarcities, black markets, and controllers. Our family home, I recall, remained half complete for years because my father was unwilling to bribe the cement controller for a few extra bags of cement. The mighty Soviet Union also collapsed partly because of political pricing.
Corruption is the inevitable result of tampering with prices. It has led to adulterating diesel with kerosene, a scam estimated at a shocking Rs 40,000 crore per year by KLN Shastri, formerly of the government’s Oil Coordinating Committee, plus the murder of whistleblowers who tried to expose the racket. In controlling food prices, the nation actually spends Rs 3.65 to deliver a rupee worth of grain through the PDS system — no wonder, half the grain ‘leaks’ out. In the case of power, theft is the natural outcome of price control. The Indian Railways actually loses 24 paisa per kilometre on every second-class ticket, which prevents it from from modernizing.
Modi must employ his considerable rhetorical skills to persuade Indians that an efficient, corruption-free economy does not allow politicians to set prices. It will also help him to convince people that direct cash transfers into Jan Dhan Yojana bank accounts is a more efficient, less corrupt way to deliver welfare. The market does a far better job of preventing corruption than even the Lokpal, a lesson that has escaped Arvind Kejriwal and Anna Hazare.
A few days after decontrolling diesel prices, the government announced competitive bidding in coal mining. It was a good decision as marketbased auctions are the right way to discover the price of natural resources. But it did not go far enough — it restricted open bidding only to users of coal, such as power companies. Had it opened coal mining for free sale, it would have brought much higher revenues to the state and led to a competitive coal market, breaking Coal India’s monopoly that is the root cause of the nation’s coal troubles. Allowing competition in airlines, telephones, and television has greatly increased choice and freedom in India. There is an irony here: Indians think they are free because of their proud democracy, but economically they are still quite unfree.
Modi has repeatedly said that the government’s job is not to run business but to govern. But such general statements will not help him to sell the tough decisions that are coming in the next few months. He needs to go the extra mile to persuade Indians that subsidies, price controls, and government monopolies create distortions and harm the very people they are meant to serve. Market competition keeps prices low, raises the quality of products, and increases the aam aadmi’s freedom. It is when politicians are allowed to make economic decisions that crony capitalism enters the system.
In the end, Prime Minister Modi will be judged for creating jobs, controlling inflation, and stopping corruption. All three of these happy outcomes depend on moving decisions that are still in the discretionary hands of politicians to the impersonal market. Like democracy, the market is imperfect but it is better than any other alternative. If Modi succeeds in changing the narrative, an aspiring India may finally shed its socialist hypocrisy and begin to trust the market.
When the government decontrolled the price of diesel two weeks ago, Modi lost the opportunity to explain why the competitive market is far better at discovering prices than politicians. He could have reminded people that during our socialist licence raj, price controls pervaded our lives. Political prices did not allow producers to recover costs and this led to scarcities, black markets, and controllers. Our family home, I recall, remained half complete for years because my father was unwilling to bribe the cement controller for a few extra bags of cement. The mighty Soviet Union also collapsed partly because of political pricing.
Corruption is the inevitable result of tampering with prices. It has led to adulterating diesel with kerosene, a scam estimated at a shocking Rs 40,000 crore per year by KLN Shastri, formerly of the government’s Oil Coordinating Committee, plus the murder of whistleblowers who tried to expose the racket. In controlling food prices, the nation actually spends Rs 3.65 to deliver a rupee worth of grain through the PDS system — no wonder, half the grain ‘leaks’ out. In the case of power, theft is the natural outcome of price control. The Indian Railways actually loses 24 paisa per kilometre on every second-class ticket, which prevents it from from modernizing.
Modi must employ his considerable rhetorical skills to persuade Indians that an efficient, corruption-free economy does not allow politicians to set prices. It will also help him to convince people that direct cash transfers into Jan Dhan Yojana bank accounts is a more efficient, less corrupt way to deliver welfare. The market does a far better job of preventing corruption than even the Lokpal, a lesson that has escaped Arvind Kejriwal and Anna Hazare.
A few days after decontrolling diesel prices, the government announced competitive bidding in coal mining. It was a good decision as marketbased auctions are the right way to discover the price of natural resources. But it did not go far enough — it restricted open bidding only to users of coal, such as power companies. Had it opened coal mining for free sale, it would have brought much higher revenues to the state and led to a competitive coal market, breaking Coal India’s monopoly that is the root cause of the nation’s coal troubles. Allowing competition in airlines, telephones, and television has greatly increased choice and freedom in India. There is an irony here: Indians think they are free because of their proud democracy, but economically they are still quite unfree.
Modi has repeatedly said that the government’s job is not to run business but to govern. But such general statements will not help him to sell the tough decisions that are coming in the next few months. He needs to go the extra mile to persuade Indians that subsidies, price controls, and government monopolies create distortions and harm the very people they are meant to serve. Market competition keeps prices low, raises the quality of products, and increases the aam aadmi’s freedom. It is when politicians are allowed to make economic decisions that crony capitalism enters the system.
In the end, Prime Minister Modi will be judged for creating jobs, controlling inflation, and stopping corruption. All three of these happy outcomes depend on moving decisions that are still in the discretionary hands of politicians to the impersonal market. Like democracy, the market is imperfect but it is better than any other alternative. If Modi succeeds in changing the narrative, an aspiring India may finally shed its socialist hypocrisy and begin to trust the market.
Published on November 02, 2014 02:56
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