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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती आशापूर्णा देवी की लेखनी से सृजित यह उपन्यास ‘सुवर्णलता’ अपनी कथा वस्तु को और शैली-शिल्प में इतना अद्भुत है कि पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद इसे छोड़ पाना कठिन है। जब तक सारा उपन्यास समाप्त नहीं कर लिया जाता तब तक प्रमुख पात्र, सुवर्णलता के जीवन तथा परिवेश से सम्बद्ध पात्रों- मुक्तकेशी (उसका सास), प्रबोध (उसका पति); सुबोध (उसका जेठ), प्रभास और प्रकाश (दोनों देवर), इनकी पत्नियाँ, सुवर्णलता की ननदें- सब मन पर छाए रहते हैं। क्योंकि ये सब इतने जीते-जागते पात्र हैं; इनके कार्य-कलाप, मनोभाव, रहन-सहन, बातचीत सब कुछ इतना सहज स्वाभाविक है, और मानव मन के घात-प्रतिघात इतने मनोवैज्ञनिक कि परत-दर-परत रहस्य खुलते चले जाते हैं। लेकिन कहीं कोई आकस्मिकता नहीं, रोमांच चाहे जितना हो। आकस्मिकता यदि है तो एक पूरे अचल, निष्ठुर, जड़ युग के अन्धकार में पग-पग को उजालते चलनेवाली सुवर्णलता के जीवन की दीप-ज्योति कितने झोके-झकोरे ! और अन्त में कितने आंधी तूफ़ान ! उपन्यास में एक पूरे-का पूरा युग बोलता है, आत्मकथा कहता है

First published March 1, 1966

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About the author

Ashapurna Devi

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Ashapurna Devi (Bengali: আশাপূর্ণা দেবী), also Ashapoorna Debi or Asha Purna Devi, is a prominent Bengali novelist and poet. She has been widely honoured with a number of prizes and awards. She was awarded 1976 Jnanpith Award and the Padma Shri by the Government of India in 1976; D.Litt by the Universities of Jabalpur, Rabindra Bharati, Burdwan and Jadavpur. Vishwa Bharati University honoured her with Deshikottama in 1989. For her contribution as a novelist and short story writer, the Sahitya Akademi conferred its highest honour, the Fellowship, in 1994.

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Profile Image for ~Rajeswari~.
152 reviews35 followers
April 22, 2021
আশাপূর্ণা দেবীর সত্যবতী ট্রিলজির 2য় বই সুবর্ণলতা আমাদের সত্যবতীর অমতে ছোটবেলায় বিয়ে হয়ে যাওয়া মুক্তিকামী মেয়ে সুবর্ণলতার জীবনে নিয়ে যায়।আশাপূর্ণা দেবী সেইসময়েও যেভাবে ফেমিনিজমের কথা বলেছেন তা সত্যিই সাহসী।মাঝে পড়তে পড়তে মনে হয়েছে যে এই অবস্থা কি আজকেও আমরা কাটিয়ে উঠতে পেরেছি?
• স্বামী কর্তৃক স্ত্রীকে শারীরিক নির্যাতন ও আরেকজন মেয়ে হয়েও শাশুড়ির নিজের ছেলেকে বাহবা দেওয়া
• একজন মেয়েমানুষের স্বপ্ন,আশা,ইচ্ছাকে উড়িয়ে দেওয়া
• নিজের স্বামী,পুত্র,কন্যা কর্তৃক তাচ্ছিল্য
• অবগুণ্ঠিতা নারীর সুইসাইডাল চিন্তা
• প্রাণান্ত ফ্রিডম ভিক্ষা
এই বইয়ের সাথে বেশ একটা ভালোবাসার সম্পর্ক হয়ে গেছে।শেষ করেও সুবর্ণের সাথে আষ্টেপৃষ্ঠে জড়িয়ে আছি আমি।
Profile Image for সারস্বত .
203 reviews94 followers
August 18, 2017
মানুষ হয়ে জন্মানো অনেক সহজ, একটা রক্ত মাংসের কাঠামোর সাথে চামড়ার জামা চড়িয়ে চলে এলাম পৃথিবী নামের এই ধামে। কিন্তু মানুষ হয়ে বেঁচে থাকাটা কি ততটা সহজ?

ঐ রক্ত মাংসের গঠনের প্রভেদে মানুষের করা হয় ভাগ। একভাগকে বলা পুরুষ আরএকভাগকে বলা হয় নারী। পুরুষ জোর করে স্রষ্টাকে নিজের দলে টেনেছে। স্রষ্টাও তাই ওদের দলের। আর পুরুষ তো শক্তিমান, সে রূপে জন্ম তাই স্বার্থক। পুরুষই তাই প্রকৃত মানুষ।

আর নারী ? সে দুর্বল এক মাংসে ঢেলা। হোক সে জননী, হোক সে মা। তাই বলে ওদের মানুষ বলে মেনে নিতে হবে? কখনো না। পরম ভাগ্য ওদের পুরুষেরা ওদের দাসীত্ব করার সুযোগ দিয়েছে। দুর্বল এই জীবগুলোকে তিনবেলা খাদ্য সংস্থানের, মাথার উপর ছাদের নিশ্চয়তা দিয়েছে। সারাটা জীবন ধরে দাসীত্ব করেও কি এই ঋণ ঘোচে? ঘোচে না।

কিন্তু এই হাজার বছর ধরে চলে আসা সত্যিটা মেনে নিতে এতো কেন আপত্তি কলকাতার এক গৃহস্থ বাড়ির বউ সুবর্ণলতার? নাকি সেও তার মায়ের মত হাজার বছর ধরে লক্ষ নারীর মানুষ না হতে পারার ঋণের বোঝা শোধ করতে চায়?

বইয়ের নামঃ সুবর্ণলতা ( সত্যবতী ট্রিলজি ২ )
লেখিকার নামঃ আশাপূর্ণা দেবী
প্রকাশনাঃ মিত্র ও ঘোষ
পৃষ্ঠাসংখ্যাঃ ৩৩৮
প্রথম প্রকাশঃ চৈত্র, ১৩৭৩

সুবর্ণলতা নয় বছর বয়সে যেদিন বিয়ে হয়ে কলকাতার দর্জিপাড়ার শ্বশুরবাড়িটিকে প্রবেশ করেছি সেদিন শৈশবের গন্ধ নিঙরে বের করে সুবর্ণলতাকে কয়েদের অন্ধকার কারাগারে বন্দী করা হয়েছিল। কথা ছিলো ঐ অন্ধকারে একটু একটু করে হারিয়ে যাবে সুবর্ণ। সে কথা তো মিললে না। সুর্বণ হারায়নি। আর নিজের স্বত্বাকে যেন প্রতিটি দিন আরও স্পষ্ট করেছিলো শ্বশুরবাড়ির নরকের প্রতিটি জল্লাদের হাতে।

জীবনের ৩৬ টি বছর স্বামী নামের যে পুরুষটির সাথে কাটিয়ে দিয়েছে। যে মানুষটি সময়ের প্রবাহে কোন সাধ অপূর্ণ রাখেনি সুবর্ণলতার। দক্ষিণ বারান্দা দেয়া নিজেদের ভিন্ন একটা ঝলমলে বাড়ি, সবুজ রঙের রেলিঙ। কি বাদ রেখেছে দিতে সুবর্ণকে? সেই মানুষটিকে বিনিময়ে ঘেন্নার বদলে একটু মমতা দিতে পারলো না সুবর্ণ?

প্রশ্ন কি এক পক্ষে শেষ হয়? হয় না। ৩৬ টি বছর ধরে এক ঘরে সুবর্ণ নামের এক নারীর শরীরের সাথে শরীর ঘেঁষে শুয়ে স্বামী প্রবোধ কি কখনো জানতে চেয়েছে এই দীর্ঘ বছরগুলোতে কেন সুবর্ণ বার বার বিদ্রোহী হয়েছে? কখনো গলায় দড়ি দিয়ে, কখনো বিষ খেয়ে মরার জন্য কেন এতো আকুতি ছিলো সুবর্ণর? কেন প্রবোধ সুর্বণকে বোঝার চেষ্টা করেনি? বুঝতে না পারার অক্ষমতা, ব্যর্থতা মেনে নিতে না পেরে কেন বার বার পাষন্ডের মত মেরেছে?

শাশুড়ী মুক্তাকেশীর হাতে নয় বছরের সুবর্ণ যখন এসে পরে সবাই ভেবেছিলো ডাকাবুকো মুক্তাকেশী ঠিক তার শাসন নামের অত্যাচার আর নিপীড়ন দিয়ে ঠিকই মেজ সন্তানের এই বৌকে ভেঙ্গে গড়ে নিবেন। কিন্তু একটা দিনের জন্য কি মুক্তাকেশী সুবর্ণকে ভাঙ্গতে পেরেছিলেন? পারেন নি। সুবর্ণকে জীবনের পরের ৩৬ টা বছরের আগে যে নয়টি বছর মা সত্যবতীর কাছে কেটেছে সেই বছরগুলি বাকী জীবনের উপর রাজত্ব করে গেছে। একটা দিনের জন্যও জায়গা ছাড়েনি।

সোনার খাঁচায় সুবর্ণ নামের যে পাখিটিকে প্রবোধ বন্দী রাখতে চেয়েছিলো। শেষ পর্যন্ত সেই পাখিটিকে কি আর বন্দী রাখতে পারলো প্রবোধ। সংসারকে কানায় কানায় পূর্ণ করে দিয়েছিলো সুবর্ণ। শুধুটা ফাঁকিটা দিলো স্বামী প্রবোধকে। এ যেন প্রতিশোধ নয়, প্রতিকার। ৩৬ বছর আগে অবিশ্বাস, ঘেন্না আর অশ্রদ্ধার যে ব্যাধি বাসা বেঁধেছিল এই নবাগত বধুর হৃদয়ে। মৃত্যুর কালো অন্ধকারেই যেন সেই ব্যাধির প্রতিকার লেখা ছিল।

ব্যক্তিগত মতামতঃ

আমার ক্ষুদ্র বইপোকা জীবনে আমি অসাধারণ কিছু বই পড়েছি। সেই সময়, সাতকাহন, পার্থিব আর অনেক। কিন্তু কোন বই পড়ে আমার মনে হয়নি। বইটা আবারও পড়া প্রয়োজন।

আজ সুবর্ণলতা শেষ করার পর মনে হচ্ছে। আরেকবার বই পড়া প্রয়োজন। সুবর্ণলতাকে হয়তো জানা হলো না। কোথায় যেন অনুসন্ধান অসম্পূর্ণ রয়ে গেল এক তৃষিত হৃদয়ের বোবা হয়ে থাকা না পাওয়া সুখের স্তুপকৃত অনুভূতিগুলির।

ওরে প্রাণের বাসনা প্রাণের আবেগ রুধিয়া রাখিতে নারিদেহকে বন্দী রাখলেই স্বত্বাকে বন্দী করা যায়? যায় না। হাজার বছরের কোন পাহাড়ী গুহায় গুমরে থাকা অন্ধকার একদিন একদিন খুঁজে নেবেই রবির আলো। তাই তো কবিগুরু বলেছেন,

আজি এ প্রভাতে রবির কর
কেমনে পশিল প্রাণের পর,
কেমনে পশিল গুহার আঁধারে প্রভাতপাখির গান!
না জানি কেন রে এত দিন পরে জাগিয়া উঠিল প্রাণ।
জাগিয়া উঠেছে প্রাণ,
ওরে উথলি উঠেছে বারি,
ওরে প্রাণের বাসনা প্রাণের আবেগ রুধিয়া রাখিতে নারি।

Profile Image for Indian.
92 reviews28 followers
May 16, 2012
सुवर्णलता - हिंदी
अनुवादक - हंस कुमार तिवारी
मेरे माता-पिता बंगाली हैं, जाहिर हैं की फिर मैं भी तो बंगाली हुआ ना? दरअसल पापा की नौकरी भोपाल में लग गयी, BHEL में, और हम लोग वोही के हो गए| मेरा जनम भोपाल में ही हुआ और विधालय की पढाई भी यही भोपाल में ही हुयी 12th तक. MP Board में अंग्रेगी मीडियम में पढाई करी, लेकिन हिंदी का स्तर बहुत ऊँचा रहा हमेशा. हिंदी पाठ्य पुस्तक निगम भोपाल की ही हिंदी किताबें ही मेरे Convent स्कूल में चलती रही. हिंदी की शिक्षक भी बहुत अच्छी मिली. श्रीमती सरोज , PHD थो वोह. उनका हिंदी पराने का रोचक ढंग और भोपाली हिंदी का प्रभाव कहिये, हिंदी हमेशा से ही प्रिय रही.
बंगाली माता-पीता बंगाली साहित्य के बहुत प्रशंशक थे, लेकिन हम ठहरे बंगला में बिलकुल कोरे! टूटी-फूटी बंगाली बोल लेते थे घर में, लेकिन बंगाली पड़ना तो बहुत दूर की बात थी. बंगला के प्रति एक कौतुक हमेशा रही.
इसी से जब माता-पीता को जी-बंगला पर स्वर्णलता-बंगला सीरियल देखते देखा, तो कौतुहल्वस मन में इच्छा हुयी इस किताब को पड़ने की. यहीं landmark में यह किताब- हिंदी में दिख गयी और मैंने लपक लिया| इस किताब की स्तुति में जितना भी लिखा जायें कम होगा| मैंने इसे मात्र १ सप्ताह में पड डाली, पड़ते वक़्त मैं कलकत्ता भ्रमण में निकला हुआ था| एक दोस्त की शादी थी यहाँ|
आशापूर्णा देवी ने (1920 - 1950 का बंगाली भारतीय समाज) कोलकाता का बहुत सुन्दर चिंत्रण किया हैं, एक joint family में बालिका-बधू बनकर आयी ९ वर्षीया सुवर्ण की कहानी हैं यह| और उसकी पुराने ख्यालों वाली सास मुक्तकेशी | मानव मन को पकरना कोई इस लेखक से सीखे | कई भिन्न-भिन्��� पात्र , और हर एक की अपनी अलग मनोदशा (phychology) कितना सुन्दर, कितना प्राकृतिक| हर एक पात्र की कहानी पड़कर लगता हैं की हाँ यही तो हुआ होगा, यही तो होन�� चाहिए, ऐसे लोग ऐसा ही तो आचरण करते हैं, ऐसा ही तो सोचते हैं |
मनोरम लेकिन मन तो चीरते हुयी, अकेली सुवर्णलता की एकाकी संघर्ष-गाथा, सच्चाई के लिए, तर्क के लिए, जो उचित हैं उसके लिए, इस कुत्षित समाज के विरोध में | क्या सुवर्ण की आखिर जीत हुयी? क्या हमारे समाज में ऐसा होता हैं?
इसको फिर एक बार पड़ने की इच्छा हैं, अभी इस series का पहला अंक पढ़ रहा हू (प्रथम प्रतिश्रुति- हिंदी ), इसमें सुवर्ण की माँ सत्यवती की कहानी हैं (1850 - 1920 का बंगाली भारतीय समाज)
ऐसी मार्मिक कहानी का कोई युग-भाषा-स्थान-जाती नहीं होती. आशापूर्णा उन महान लेखको में से हैं (तोल्स्तोय, तागोरे, dicken ) जिनकी कहानी हर जगह, हर युग में सदैव सार्थक रहेंगी!
Profile Image for Shuvongkar Shitu.
43 reviews17 followers
January 11, 2021
৮০ বছর আগের সমাজব্যবস্থা একালে এসে নিজের ভিতরে লালন করা একটু কষ্টকর। তবে উপলব্ধি করতে পারি, অনুধাবন করতে পারি বেশ ভালভাবেই।
Profile Image for Shuk Pakhi.
324 reviews51 followers
October 12, 2021
অপ্রাপ্তি!
অপ্রাপ্তি!!
অপ্রাপ্তি!!!

আহা একজন নারীর জীবনে এত এত না পাওয়া থাকতে পারে। তবুও মরতে মরতে বেঁচে থাকে সুবর্ণলতারা।
Profile Image for শুভঙ্কর শুভ.
Author 8 books41 followers
October 4, 2018
জাত, জায়গা, পরিবেশ বদলানো গেলেও রক্ত তো আর বদলানো যায় না। কথাটা সুবর্ণলতার। একটা মেয়ে কত আর পারবে? কত চেষ্টা করবে? নিজের বাবার সাথে, শ্বশুর বাড়ির সাথে, জামাইয়ের সাথে তাদের পরিবার পরিজনের সাথে, মোট কথা পুরো সমাজ আর দুনিয়ার সাথেই তাকে লড়তে হয়। শুধু মাত্র নিজের একটুকরো স্বাধীনতার জন্য। যখন এদের সাথে লড়াই করে হাঁপিয়ে ওঠে, তখন চায় নিজের ছেলে মেয়ে অন্তত যেন এমন স্বাধীনতার জন্য লড়াই করতে না হয়। সেভাবেই গড়তে চায়। হায় রাম, সেখানেও যে বিপত্তি। পুতুল খেলার বয়সে বিয়ের মতো একটা আদিম আর বাস্তব খেলায় মাতিয়ে দিয়ে বড়রা তো খুব বাচা বেঁচে যায়। পরের অধ্যায় গুলোর খেয়াল যে তাদের আর রাখার দায় নেই সেটাও সুন্দর ভাবেই বুঝিয়ে দেয়। এখনো এই রীতিটা রয়েই গেছে। আর যারা এই রীতির ধার ধারে না সমাজ তাদের এখনো ওই চোখেই দেখে।
আমি বলব সুবর্ণলতা একজন বীরাঙ্গনাই ছিলেন। নিজের মান সম্মান নিয়ে যে নিজের সংগ্রাম করে গেছেন আমরণ পর্যন্ত।

বইটা শুরু করেছিলাম অনেক আগেই। শেষ করার ইচ্ছে ছিল এই বছরের শেষ দিকে গিয়ে। এমন বই নিয়ে লেখার অন্ত না থাকাটাই স্বাভাবিক। কি লিখব? যা মনে আসে তা তো আর লিখা যায় না। আবার গুছিয়েও লিখা যায় না। সব কিছু এক সাথে হড়বড় করে চলে আসে বা উপন্যাসের একেক মূহুর্তে একেক রকমের মতবাদ চলে আসে। কিন্তু একদম শেষে গিয়ে যখন লিখতে বসি বা লিখা শুরু করি তখন মনে হয় আমার চিন্তা ভাবনা লেখিকার চেয়ে অনেকটাই ক্ষুদ্র, তাই না লেখাই ভালো।
লেখাটা বড় কথা না। আপনি কি বুঝলেন আর সেটা বুঝে কিভাবে তা বাস্তবে প্রতিফলিত করলেন সেটাই বড় কথা। এখানেই তো লেখিকার সার্থকতা। তাই না?
Profile Image for Jannatul Firdous.
67 reviews99 followers
August 11, 2022
'প্রথম প্রতিশ্রুতি' থেকে যাত্রা শুরু হয়েছিলো সুবর্ণর। 'সুবর্ণলতা' উপন্যাসটা সত্যবতীর একমাত্র মেয়ের সংসারজীবনের গল্প। মা-মেয়ে দুজনেই এক চরিত্রের মানুষ হলেও তাদের পারস্পার্শ্বিক পরিবেশ একরকম না। একরকম চরিত্রের না তাদের স্বামীরা,শ্বাশুড়িরাও। যেখানে মা নিজের চারপাশের পরিবেশটা পিটিয়ে পাটিয়ে নিজের উপযোগী করে নিয়েছিলো,যেখানে বাবা বোকাসোকা মানুষ হলেও অন্তত মায়ের সম্মান করতো,যেখানে শ্বাশুড়ি রাগী হলেও বৌয়ের ওপরে কথা বলতে সাহস পেতেন না সেখানে সুবর্ণ রাগী,অত্যাচারী,সন্দেহবাতিকগ্রস্ত এক স্বামী ও ভয়ানক মুখরা শ্বাশুড়ি,দেবর,ভাসুর পরিবেষ্টিত পরিবারে প্রতিবাদের নামে মার খেয়ে মরে। তার থেকে এক জেনারেশন আগের তার মা, মাত্র তিনটি সন্তান নিয়ে ছোট্ট গোছানো সংসার ছিলো তার। সে নিজেও ছিলো তার বাবা মায়ের একমাত্র সন্তান তার স্বামীও তাই। কিন্তু সুবর্ণ? ছয় সন্তানের জননী সে।

এমন নয় যে তার স্বামী প্রবোধ তাকে ভালোবাসে না। ভালো না বাসলে ঐ মুখরা বৌকে নিয়ে জ্বলেপুড়ে মরেও ত্যাগ করে না কেন? করে না কারণ সে যে তার বৌকে ভালোবাসে তা তার এই জলন্ত স্বভাবের জন্য‌ই। মুখরা এই মেয়ের‌ই আর সকলের চেয়ে মায়া মমতা বেশী। নিজের সন্তানের জন্য চকলেট,বিস্কুট কিনলে পরিবারের অন্য সবার সন্তানের জন্য‌ও কেনে। পরিবারে কারোর কিছু হলে সবার আগে সেবা করতে ছোটে। কারো টাকা লাগলে আর জায়েরা স্বামীদের দিতে বাঁধা দিলেও সুবর্ণ জোর করে টাকা বের ক���ে দেয়। শ্বাশুড়ি বলে, "এদিকটাই শুধু ওর ভালো।" কিন্তু দোষ হলো,বড্ড ন্যায্য কথা বলে। এত ন্যায্য কথা বললে সংসারে টিকে থাকা যায়?

দোষ তার আরো একটা আছে। সে পড়তে ভালোবাসে,সে চায় মাথার ওপর ছাদ আর ঘরের সাথে বারান্দা। সে চায় একটু আকাশ,সে চায় একটু ভালো পরিবেশ, মানুষের মতো করে বাঁচা! এটাই তার দোষ। অর্থ আছে,স্বামী আছে,সংসার আছে‌। এসব রেখে ওসব আবার কি ঢং? এমন মেমসাহেবীয়ানা জীবনে সুবর্ণের শ্বশুরবাড়ির লোক শুনেছে?

তারপর আছে গৃহত্যাগী মায়ের অপবাদ,যদি এই বাড়ির দরজা তার জন্য বন্ধ হয়ে যায় দাঁড়াবে এমন কোন জায়গা কি সুবর্ণের আছে? অবশ্য সে দেশের কাজ করবে এমন একটা বাসনা তার আছে, কিন্তু তারাও যে তাকে নিতে চায় না! বলে, "এতগুলো পিছুটান তোমার,এত সন্তান কাজেই তুমি পারবে না।"

আর স্বামী মানুষটি নিজেও জানে যে সুবর্ণের সে যোগ্য নয়। সুবর্ণের মনের ‌জায়গা যে তার মনের থেকে অনেক ওপরে একথা সে বোঝে বলেই চায় কোনোরকমে সুবর্ণকে টেনে নিচের দিকে নামিয়ে জাপটে ধরে আটকে রেখে সন্তান দিয়ে বেঁধে নিজের কাছে ধরে রেখে এই জীবনটা তো পার করে দেয়া যাক! সুবর্ণ কারো সাথে হেসে কথা বললেও তার রাগ হয়,তখন তাকে ঘরে এনে বেদম মারে। তবুও শিক্ষা হয় না সুবর্ণর। যে আনন্দ সে কুঁড়েঘরেও বড় মনের মানুষের পরিচয় পেলে পায় সে আনন্দ এই দালানে এত অর্থবিত্তের মধ্যে বাস করে কেন পায় না এটাই প্রবোধের রাগ। খুব রাগ।‌‌

সুবর্ণর সংসারে মেয়েদের আর ছেলেদের এক চোখে দেখা হয় না। তার শ্বাশুড়ি কথায় কথায় বলে,কিসের সঙ্গে কিসের তুলনা? পায়ের সঙ্গে মাথার? না পেরে কাজের মেয়েও মাঝেমধ্যে বলে ওঠে, মানুষের সঙ্গে মানুষের‌ই তুলনা। তা পা-ই বা মাথার থেকে কোন অংশে ছোট? মাথাটা তো পায়ের ওপর‌ই দাঁড়িয়ে?

হয়তো এই মানসিকতা এখন পরিবর্তন হয়েছে। তারপর‌ও এতবড় বিশ্বসংসারের জীর্ণ দেয়ালের কোনো না কোনো ফাঁকে ফোঁকরে কি এখনো লেগে নেই সেই পুরাতনের ছোঁয়া? বিংশ শতাব্দীর চোখ ধাঁধানো আভিজাত্য আর আধুনিকতার মধ্যেও হয়তো কোথাও একটা মেয়েকে ধরা হয় পা, ছেলেকে ধরা হয় মাথা। এই বিষ কি এত সহজে যাবার?

সুবর্ণ ভাবে তার ইহকাল শেষ হয়ে গেছে। আবার ভাবে,তা কেন! আমার ছেলেমেয়েদের মধ্যে একটি কি মানুষের মতো মানুষ হবে না? হবে হয়তো,বকুল হয়তো মানুষ হবে,পড়বে লিখবে। হয়তো এই বিরাগ পরিবেশেও একজন তৈরি হবে,সেটাই হবে ঈশ্বরের সুবর্ণর কাছে ক্ষমাপ্রার্থনা। কিন্তু সুবর্ণ কি তা দেখে যেতে পারবে?

সিক্যুয়েল এত সুন্দর হয় আমার ধারনা ছিলো না। আজ অব্দি খুব কম ব‌ইয়ের‌ সিক্যুয়েল‌ই আমাকে সন���তুষ্ট করতে পেরেছে। বিভূতির পথের পাঁচালী-অপরাজিতের পর আশাপূর্ণা দেবীর প্রথম প্রতিশ্রুতি-সুবর্ণলতা যেন একে অন্যের সাথে ফাইট দিচ্ছে কে বেশী সেরা। এর একটা কারণ সম্ভবত,এখনকার লেখকরা সিক্যুয়েল লেখেন জনপ্রিয়তা,ব্যবসায়িক লাভ হিসেব করে। কিন্তু আগের লেখকরা লিখতেন প্রাণ থেকে অনুভব করেই।

আর লেখনী? একেবারে অভিনব এই চমৎকার লেখনী কোথা থেকে পেলেন অল্পবয়সে বিয়ে হয়ে যাওয়া সংসারের একরাশ বোঝা কাঁধের আশাপূর্ণা দেবী? শুনেছি সংসারের সব কাজ সেরে রাতের বেলা লিখতে বসতেন,এমন নয় যে মুড হলেই বসে পড়তে পারতেন। তাই এই? এত গভীর,এত হৃদয় জেতা? আপনি যদি সুবর্ণলতা উপন্যাসের একটা লাইন‌ও বুঝতে না পারেন ভাববেন না আশাপূর্ণা দেবী ভুল লিখেছেন,জানবেন আপনি লাইনটা স্পর্শ করতে পারেননি দুঃখটা না জানার কারণে। কিন্তু যারা দুঃখটা জানে তাদের কাছে এই ব‌ইটা সোনার চেয়েও খাঁটি,কারণ সোনায়‌ও খাদ থাকে।

তবে আশাপূর্ণা দেবী প্রথম প্রতিশ্রুতি দিয়েই আমাকে জিতে নিয়েছেন,তাই সুবর্ণলতার বেলায় আর অবাক হ‌ইনি। এনার পক্ষেই এমন লেখা সম্ভব।
Profile Image for Shotabdi Bhattacharjee.
463 reviews50 followers
August 24, 2020
আশাপূর্ণা দেবীর প্রথম প্রতিশ্রুতি, সুবর্ণলতা, বকুলকথা ট্রিলজির দ্বিতীয় খণ্ড এই সুবর্ণলতা।
সত্যবতীর সাথে বিশ্বাসঘাতকতা করে তার অজান্তে সুবর্ণলতাকে শৈশবেই বিয়ে দেওয়া হয়েছিলো। সুবর্ণলতা নাম থেকেই প্রতীয়মান যে এ একান্তই সুবর্ণলতার জীবনকাহিনী।
সুবর্ণলতা কেমন? সে ঠিক সত্যবতীর মতো না৷ সত্যবতীর ব্যক্তিত্ব ছিলো ইস্পাতকঠিন। শুরু থেকেই সত্যবতী তার নিজস্ব চাহিদাগুলো শান্তকণ্ঠে ঘোষণা করে কারো তোয়াক্কা না করে আদায় করে নিতো।
এর পেছনে বেশ কিছু কারণ আছে। সত্যবতীর ব্যক্তিত্বসম্পন্ন, শিক্ষিত বাবা একটা বড় কারণ। যাঁর থেকে সত্যবতীর অনেক কিছু নেওয়া। সত্যবতীর স্বামী ব্যক্তিত্বহীন হলেও ভালোমানুষ, অত্যাচারী নয়, সন্দেহবাতিক ও নয়। সত্যবতীর শ্বশুরবাড়িতে লোকজন ও ছিলো কম। কেবল শ্বশুর-শ্বাশুড়ি এবং এক ননদ।
কিন্তু সুবর্ণলতা? জীবনের শুরুতেই সে যে আঘাতের মুখোমুখি হয়েছিলো তা যে আসলে কত বড় আঘাত তা বুঝতেই তো অনেক দিন চলে গেলো তার।
জাঁদরেল শ্বাশুড়ি, একগাদা ভাসুর-দেওরদের ভীড়ে সুবর্ণর সংসারটাও অনেক বড়। যে মায়ের কাছ থেকে অসাধারণত্বের শিক্ষাটুকু পাওয়ার কথা ছিলো তার, তিনিও চলে গেলেন অনেক দূরে। তবে সুবর্ণ শিখবে কোথা থেকে?
সুবর্ণের স্বামী মাতৃভক্ত কিন্তু হিসেবী, সুবর্ণকে ভালোবাসে কিন্তু অসম্ভব পসেসিভ এবং সন্দেহপরায়ণ। সারা জীবনেও সুবর্ণকে যে বোঝেওনি, সম্মান ও দেয়নি। তবুও সুবর্ণের যা কিছু পাওয়া-না পাওয়া সমস্ত কিছুর আধার এই স্বামীই তার।
সুবর্ণর মন যে খোলা আকাশ চাইতো, দেশকে নিয়ে যেভাবে ভাবতো আশেপাশের মানুষ তার কিছুই বুঝতো না। সুবর্ণর সকল শিক্ষা অনেকটাই স্বশিক্ষা, আর কিছুটা উত্তরাধিকারসূত্রে মায়ের কাছ থেকে প্রাপ্ত। কিন্তু সুবর্ণের পায়ে সংসারের বেড়ীটা ছিলো শক্ত, তাই মা সত্যবতীর মতো সব ছেড়ে যেতে পারেনি সে।
ছেলেমেয়েরাও তেমন করে বোঝেনি তাকে, হয়েছে শ্বশুরকূলের মতোই স্থূল, স্বার্থপর। কেবল শেষের দুটি মেয়ে ছাড়া।
সত্যবতীর শ্বাশুড়ির নাম ছিলো এলোকেশী আর সুবর্ণর মুক্তকেশী। সমার্থক শব্দ, একই চরিত্র। কিন্তু মুক্তকেশীও মৃত্যুর আগে অনুভব করতে পেরেছিলেন তার মেজবৌ এর মহানুভবতা।
একমাত্র দখিনা হাওয়া হয়ে এসেছিল এই পরিবারেই জন্ম নেয়া অন্য ধাঁচে বেড়ে উঠা এক ননদ সুবর্ণের। সুবালা, যার সংসারে গিয়ে কিছুটা হলেও শান্তি পেয়েছিল সুবর্ণ।
তবু আমৃত্যু মুক্তির আকাঙ্ক্ষা করা সুবর্ণ মারা যাবার পর হয়তো তার ছোট মেয়ে বকুলের মধ্য দিয়ে সত্যিকারের মুক্তির স্বাদ পাবে সুবর্ণ৷ বকুল কথা আখ্যানটি সেই কথাই হয়তো বলবে।
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July 5, 2012
Its odd. This is one of the most difficult to read books, as well as being absolutely unputdownable one.

Both Pratham Pratishruti and Subarnalata portrays stories of undefeatable feminists, people who just cannot go through life shrugging and saying "what can we do, that's life, that's society."
But where Satyabati's story have somewhat hopeful tone, Subarnalatas struggle starts from her marriage as a child, and never ends.

Interestingly enough, I think the difference of these two protagonists lives are due to the men in their life. I am saying interesting, because, in most of Ashapoorna Devis novels, seldom have strong heroic male characters. There is usually one male side character, but has strong persona (namely Satyabatis father in Pratishruti). But rest are weak willed people with not much moral sense or strength of character.

Subarnalatas story was not much different, her father, husband, even sons are weak people. But the difference between Subarnalata and Satyabati is that the power equation never EVER goes to a strong person, who can somewhat help, support or nurture Subarnalata. She always fights alone, and is beaten alone.

Even the weak male characters in Satyabatis life are big hearted enough to accept that Satyabati is a superior human being, who can be allowed be in charge. Subarnalata unfortunately is perpetually cheated by men, who are afraid of the spark she bears.

Reading her story, makes you want to grab your hair in despair and scream. And so she does. Wonder of Subarnalata is she never gives up. She dies alone, beaten, never getting anything she wanted. But she still is somehow undefeated.

Its not a nice read. but its a must read.
Profile Image for Neela.
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March 10, 2016
আশাপূর্না দেবীর বিখ্যাত একটি ত্রিলজী হচ্ছে,প্রথম প্রতিশ্রুতি,সূবর্নলতা আর বকুলকথা।এর মধ্যে সূবর্নলতাই জনপ্রিয় বেশী।এই উপন্যাসটি আমি যখন পড়েছি, এর মধ্যে হারিয়ে গেছি।কয়েকদিন মাথায় শুধু সূবর্নই ঘুরতো।সূবর্নর স্থানে নিজেকে কল্পনা করতে বেশ লাগতো তখন।
সূবর্নলতা শুধু সূবর্ন’র জীবনের গল্পই নয়।এটা একটা সময়ের গল্প,যে সময়টা চলে গেছে কিন্তু তার ছায়া আমাদের উপর, আমাদের মনে প্রানে,আমাদের সমাজে রয়ে গেছে।সূবর্নলতা এক অসহায় বন্দী আত্মার কান্নার গল্প।সময়ের সাথে এক অসহায় একাকী নারীর সংগ্রামের গল্প।এই উপন্যাসের কেন্দ্রীয় নারী চরিত্রই হচ্ছে সূবর্ন,মাত্র নয় বছর বয়সে মায়ের ইচ্ছার বিরুদ্ধে বিয়ে করে শ্বশুর বাড়ীতে এসেছিলো সূবর্ন।ছোটবেলা থেকেই সূবর্ন খোলা মনের মুক্ত চিন্তাধারার মেয়ে,যে সবসময় নিজেকে সবরকমের কুসংস্কার আর অর্থোডক্স মনমানসিকতা থেকে মুক্ত রাখতে চেয়েছিলো।কিন্তু রক্ষনশীল শ্বশুরবাড়িতে এসে সুবর্নর সেই সব ইচ্ছা প্রতিনিয়ত ভেঙ্গে চূর্ন-বিচূর্ন হয়।শ্বশুরবাড়ীর রীতি-নীতি আর নিয়ম কানুনের যাতাকলে সূবর্নর আত্মপরিচয়ই চাপা পরে যায়।একটুখানি খোলা বারান্দার জন্য তাকে প্রায় যুদ্ধ করতে হয় পরিবারের সাথে।তাই নিজের আত্মমর্যাদা আর আত্মপরিচয়ের জন্য সূবর্ন একাই পুরুষ শাসিত সমাজের বিরুদ্ধে সংগ্রামে নামে।মানুষ হিসেবে নিজের অধিকার আদায়ের এই সংগ্রামের আত্মকথনেরই আরেক নাম সূবর্নলতা।
Profile Image for Mahbuba Sinthia.
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November 22, 2020
"শুধু আশা করিতে ইচ্ছা হয়, ভবিষ্যৎ কালের সেই আলােকোজ্জ্বল দিনের মেয়েরা আজকের এই অন্ধকার দিনের মেয়েদের অবস্থা চিন্তা করিয়া একটি দীর্ঘশ্বাস ফেলিতেছে, আজকের দিনের মেয়েদের অবস্থা চিন্তা করিয়া একবিন্দু অশ্রুবিসর্জন করিতেছে, আজ যাহারা যুদ্ধ করিতে করিতে প্রাণপাত করিল, তাহাদের দিকে একটু
সশ্রদ্ধ দৃষ্টিপাত করিতেছে।"

তোমাদের দীর্ঘ সংগ্রামের মাধ্যমেই তো আজ বর্তমান কালের দিনগুলো আলোকোজ্জ্বল হয়েছে। তোমাদের জন্যে এটুকু না করে কি পারি?
Profile Image for Nishat Monsur.
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March 1, 2021
প্রথম প্রতিশ্রুতি পড়া ছিলো বছর দুই তিন আগে। সেই হার্ডকপি খুঁজে বেড়ানোর ঝোঁকে দ্বিতীয় অংশ সুবর্ণলতা পড়তে পড়তে এতদিন। তা, এবারেও সফট কপিই, পুথিকার ই-বুক।

প্রথম প্রতিশ্রুতি ছিলো অন্য ধাতুতে গড়া সত্যবতীর গল্প। সুবর্ণ সেই সত্যবতীরই মেয়ে। তার যুদ্ধের গল্পটাই "সুবর্ণলতা" জুড়ে। মা সত্যবতীর চিন্তার জগৎটা অনেক অগ্রসর ছিলো বলেই তাকে না জানিয়ে গরমের ছুটিতে গ্রামের বাড়িতে যাওয়া নয় বছরের সুবর্ণকে তার ঠাকুমা বলে বসেন, "ওঠ ছুঁড়ি, তোর বিয়ে"। ভালো-মন্দ বুঝে ওঠার আগেই ছাঁদনাতলায়। পড়াশুনা বন্ধ, অভিমানে মা সত্যবতীর সংসারত্যাগ, সেই উপলক্ষ্য করে জীবনভর গঞ্জনা, বাপের বাড়ি বলে কিছুই না থাকা সুবর্ণের জীবনটা যে মসৃণ যাবে না তা বইয়ের শুরুতেই অনুমান করা চলে।

পড়তে ভালোবাসা সুবর্ণ, কবিতা ভালোবাসা সুবর্ণ, অন্যায় কথার বিপরীতে সত্য কথাটি বলতে সাহসী সুবর্ণ- পুরো উপন্যাসে এতো বহুবিধ মহিমায় সুবর্ণ উঠে এসেছে, যে তাকে মাঝেমধ্যে রক্তে-মাংসে গড়া মানুষ বলে মনে হয় না। এই গল্পটা সুবর্ণের গল্প, গল্প হয়তো বিংশ শতাব্দীতে একটু একটু করে অন্ধকার ছিঁড়ে বেরিয়ে আসা নারীদেরও।

এক তারা কেটে রাখলাম কেন তা স্পষ্ট জানি না নিজেও। তবে পাঁচ তারা বসিয়ে দেই যেসব বইয়ের জন্য, তাদের পাশে বসাতেও কই যেন একটু দ্বিধা। দু'টো দিন অসাধারণ সময় কাটানোর সঙ্গী হয়েও তাই চার তারা নিয়ে রইলো "সুবর্ণলতা"।
Profile Image for Ayan Tarafder.
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October 9, 2020
বড় বিমর্ষ এই পাঠ ... প্রায় ১০০ বছর আগেকার এক বাঙ্গালী পরিবারে নারীর প্রতি যে অবহেলা, অসম্মান আর অকথ্য নির্যাতনের বর্ননা এই বইয়ের পাতায় পাতায় তা হৃদয় বিদারক । অসহনীয়, অকল্পনীয় সেই সমাজ ব্যাবস্থায় নারীর বিরুদ্ধে শুধু পুরুষ নয়, নারীর বিরুদ্ধে খোদ নারীরাও একই রকম ভয়ংকর। আশঙ্কা এবং আতংকের কথা এই যে, এতো বছর পরেও আমাদের এই নীচু মনোভাবের পরিবর্তন ঘটে নি খুব একটা... যদিও মোটা দাগে, ঠাটে বাটে বাহ্যিক কিছু উন্নতি চোখে পড়ে ।
Profile Image for Divya Dugar.
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January 26, 2018
I read the Hindi translation of Suvarnalata.

Amazing is an understatement for this book. As the second book in the trilogy - Pratham Pratishuti, Suvarnalata and Bakulkatha - this book certainly is the winner.

The sheer grit and resilience that Suvarnalata has is infectious. While, as a reader, one is jealous of her spirit, she also invokes a feeling of pity. Though as a character she does not demand or expect or like pity, because of this one feels angry at all the other characters.

The men, while appreciating Suvarnalata who is taunted constantly for her mother's actions, have very little voice in the book. They are secretly jealous of Suvarnalata, but are unable to say a word in front of Satyavati.

The book does offer redemption in the end, but that Suvarnalata spent her whole life struggling for respect, the redemption does not seem enough. But, such is life!

Had this text been written in English, it would have certainly gained a place in the best books of Gender Studies.

An absolute must read for every woman!
Profile Image for Tasnima Oishee.
117 reviews19 followers
September 6, 2020
সত্যবতী ট্রিলজির মধ্যে আমার প্রথম পছন্দ অবশ্যই প্রথম প্রতিশ্রুতি৷ সত্যবতীকে নিয়ে সেই উপন্যাসে আমার আশা ছিলো আকাশছোঁয়া। ভেবেছিলাম, সত্যবতীর জীবনের সব চাওয়া পাওয়া পূরণ হবে সুবর্নলতার মাধ্যমে। সত্যবতীও তাই চেয়েছিলো। শেষমেশ বাধা পড়তে হলো সুবর্ণকেও। মায়ের চেয়েও বড়ো বেড়ি পড়েছিলো ছোট্ট সুবর্ণর পায়ে। সমাজ, সংস্কারের এই বেড়ি কি কখনো খুলতে পারবে সুবর্ণ? সত্যবতীর শিক্ষায় নিজেকে আলোকিত করতে পারবে? এই প্রশ্নের উত্তর খুজে খুজে একটানে উপন্যাসটা পড়ে ফেলেছিলাম। আর উত্তর? সেটা পেয়েছি কিনা জানি না। তবে এই উপমহাদেশে মেয়েমানুষ হয়ে জন্মানোর একসময় বড্ড জ্বালার ছিলো, তা বুঝেছি।

Happy Reading!❤
Profile Image for Pranti.
7 reviews2 followers
September 21, 2020
এই যে সুবর্ণলতা, চিরটাকাল শুধু কথাই বলেছে। "আর বলবো না" প্রতিজ্ঞা করেও না বলে পারেনি। শুধু সংসারটি নিয়ে নয়, দেশ নিয়ে দশ নিয়ে, সমাজ নিয়ে সভ্যতা নিয়ে- রাজনীতি ধর্ম নীতি পুরাণ সবকিছু নিয়ে কথা বলেছে, আর কেউ বিপরীতে কথা বললে তাল ঠুকে তর্ক করেছে। সেই মানুষটার মৃত্যুকালে কথায় বিতৃষ্ণা এসেছে, তার কাছে আর আশা করার কিছু নেই। সারাটাজীবন স্বাধীনতার জন্য সংগ্রাম করে সুবর্ণলতা এবার সকল হাহাকার মেনে নিয়েছে।
শেষটায় মৃত্যু যেন আশেপাশের সকলকেও উদার করে দেয়, সভ্য করে দেয়..
Profile Image for Sheikh Marzia Amin.
45 reviews1 follower
March 3, 2021
সত্যবতীর মতো নিজেকে নিয়ে মুক্তিকামী হতে না পারলেও সুবর্ণলতা কোন না কোন ভাবে নিজেকে তীব্র প্রমাণ করার অল্প হলেও চেষ্টা করেছিল কিন্তু তার চেষ্টাটা সত্যবতী এর মত তীব্র হতে পারেনি
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July 4, 2020
এই উপন্যাস বিশের দশকের এক বাঙালী গৃহবধূর জীবনযন্ত্রনার চিত্রপট। তবে এ চিত্র শুধুমাত্র একটি পরিবার আর একজন গৃহবধূর নয়, সমগ্র সমাজের । উপন্যাসের কেন্দ্রীয় চরিত্র সুবর্ণলতার আর পাঁচটা গৃহবধূর মতোই শ্বশুরঘরে পরিচয় ওই মেজোবউ তেই সীমাবদ্ব, কারন 'মেয়েমানুষের' আবার আলাদা পরিচয়ের কি আছে ! তবে সুবর্ণলতা যে অন্য যে কোনো গৃহবধূর থেকে আলাদা তা সে শ্বশুরবাড়ি পা দেওয়া থেকেই সকলকে বুঝিয়ে দিয়েছিল। শান্ত শিষ্ট একভাবে চিরাচরিত প্রবাহিত ধারার ওপর প্রবল বেগে আছড়ে পড়া এক ঝড়, যে চেয়েছিল এই চিরাচরিত প্রবাহের দিক পরিবর্তন করতে। অবশ্য এর জন্য কম মূল্য তাকে চোকাতে হয়নি। বিয়ের আগে বাপের ঘরে সে ছিল তার মা এর বড় আশার বড় আদরের সূবর্ণ। যে মা তাকে শিক্ষার আলো দিতে চেয়েছিল, যে মা সবসময় কন্যাসন্তান আর পুত্রসন্তানকে সমমর্যাদার মনে করে এসেছিলেন, তাকে ফাঁকি দিয়ে যখন তার স্বামী ও শ্বাশুড়ি তার সুবর্নের মাত্র নয় বছর বয়সেই বিয়ে দিয়ে দিলেন তখন তার মাতৃসত্ত্বার এ হেন অপমান তিনি মেনে নেন নি। স্বামীঘর তিনি ত্যাগ করেছিলেন। এই আত্মাভিমানী মা এর জন্য সুবর্নলতাকে সারাটা জীবন কম গঞ্জনা সইতে হয়নি। যত সে অপমানিত হয়েছে তার অভিমান ততোই গাঢ়ো হয়েছে। মা এর নাগাল না পাওয়া মেয়ের মন মাথা কুটে ওই চার দেওয়ালের মধ্যেই শেষ হয়ে গেছে।
সুবর্ণলতা সারাজীবন লড়াই করেছে 'মেয়েমানুষ' থেকে মানুষ হবার আশায় "মেয়েমানুষ জাতটাকে যতদিন না 'মানুষ' বলে স্বীকার করতে পারবে ততদিন তোমাদের মুক্তি নেই,মুক্তির আশা নেই"। জগৎ সংসারে যেখানে মেয়েদের প্রানটুকুও অতি সস্তা সেখানে সে চেয়েছিল সম্মান, নিজের মতো করে বাঁচা, শিক্ষার অধিকার, স্কুলে যাবার অধিকার। কিন্তু যে সমাজে বাবারা কন্যাসন্তানকে দায় মনে করে অতিসত্বর দায়মুক্ত হতে চাই সেখানে সুবর্ন বড়ো আহাম্মকের মতো অধিকার চেয়ে বসলে অশান্তি তো হবেই। মেয়েমানুষের চাইতে নেই " চাই-ই-চাই ! মেয়েমানুষের মুখে এমন বাক্যি বাবার জন্মে শুনিনি"! মেয়েমানুষ কেবল চিরটাকাল মুখ বুজে ভাত রান্না করে যাবে, সন্তানের জন্ম দিয়ে যাবে, স্বামীর পদসেবা করে যাবে। নাহ্ স্বামীর পদসেবা করতে চাইনি সে "ফুল চন্দন নিয়ে স্বামীর পদসেবা করতে বসেছি, একথা ভাবতে গিয়েই যে আমার হাসি উথলে উঠছে"। সে স্বামীকে ভালোবাসতে চেয়েছিল, ভরসা করতে চেয়েছিল, এক পরম নির্ভরতার জায়গা খুঁজতে চেয়েছিল তার বুকে, কিন্তু সারাদিন পর ওই ঘরের চার দেওয়ালের মধ্যে স্বামীকে শুধু পুরুষ মানুষ ছাড়া আর কিছুই ভাবতে পারে নি, ভরসা বিশ্বাস তো দূরের কথা। বারবার সে প্রশ্ন করেছে নারীদের দেওয়া সমাজের বিধানগুলোর, তুল্যমুল্য করে জানতে চেয়েছে স্বামী-স্ত্রীর সম্পর্ককে" এই বন্ধনের দৃঢ়তা পুরুষ ও নারীর পক্ষে সমান নয় কেন? পুরুষের পক্ষে বিবাহ একটি ঘটনামাত্র, নারীর পক্ষে চির অলঙ্ঘ্য কেন?" সংসারে সে কেবল দেখেছে নারীর আশা থাকতে নেই স্বপ্ন থাকতে নেই মান সম্মান বোধ থাকতে নেই, রান্নাঘরের বাইরের জগতে প্রবেশাধিকার থাকতে নেই। সে কেবল এসব দেখে গেছে, মেনে নিতে পারেনি কখনও। সে শুধু একের পর এক বিপ্লব করে গেছে,সে লুকিয়ে নাটক নভেল পড়া হোক, নিজের স্মৃতিকথা লেখা হোক, ছোটো মেয়ে বকুলকে ইস্কুলে ভর্তি করানো হোক আর একফালি বারান্দার মালিকানা চাওয়া হোক। এসব চাওয়া শ্বশুরঘরে পুরন না হলেও ভিন্ন বাড়িতে জীবনের শেষ কটা বছর সে কিছুটা হলেও পেরেছিল। তবে নিজের সন্তানদের নিজের আদর্শে মানুষ সে করতে পারেনি আপ্রান চেষ্টার পর সে বুঝেছিল " আমড়া গাছে আম ফলেনা "। সারাজীবন একটা গুমোট,দমবন্ধ,এঁদো জীবন থেকে সে মুক্তি চেয়েছিল, তার মনের আকাশে ঝড় কখনও থামেনি।বারবার পুরুষতান্ত্রিক সমাজের সমস্ত স্থবিরতার মূলে কুঠারাঘাত করে গেছে সে সজোরে। নিষ্ফল চেষ্টায় বারবার অভিমান হয়েছ�� কিন্তু তার মর্ম বোঝার সাধ্য বা ইচ্ছা কারোরই হয়ে ওঠেনি কখনও। তবে তার চারিত্রিক দৃঢ়তা ও ব্যক্তিত্বের সমালোচনা বাইরে করলেও মনের অন্তঃস্থলে তাকে ভয় আর সমীহ সবাই করত,তাই জগৎ তাকে ত্যাগ করবে এমন ধৃষ্টতা বোধহয় জগতেরও ছিলনা।সে নিজেই জগত ত্যাগ করে সবাইকে একা করে সিঁথির সিঁদুর নিয়ে যখন চোখ বুজল তখন তার স্বামী,তার বাড়ি লক্ষ্মী ছাড়া হল। বেঁচে থাকতে যে একদম একা ছিল সে যেন সত্যিই কিছু হারালো না। বরং সমস্ত অবহেলা দ্বিগুন ফিরিয়ে দিয়ে সে মুক্তির পথে চলল। উপন্যাসের অন্যান্য চরিত্র যেমন সুবর্ণলতার স্বামী প্রবোধ, ভাশুর, ননদ, জা সর্বোপরি তার শ্বাশুড়ি মুক্তাকেশী সকলেই ভীষনভাবে প্রানোজ্জ্বল ও সেই সময়ের সমাজকে সুন্দরভাবে তুলে ধরতে সমর্থ।
উপন্যাসের ভাষা ভীষন সাবলীল ও সহজ। সমস্ত বই জুড়ে একটা হাহাকার,যন্ত্রনা, না পাবার অভিব্যক্তি বিরাজমান। লেখিকা তাঁর আকুতি, সমাজে নারীদের স্থান সম্পর্কে বার বার পাঠককুলের দিকে প্রশ্ন ছুড়ে দিয়েছেন সত্যিই কি কোনোদিন 'মেয়েমানুষ' থেকে 'মানুষ' হয়ে ওঠা হবে? সবমিলিয়ে ভীষন সুন্দর হৃদয়গ্রাহী একটি উপন্যাস। পাঠককূলের ভালো লাগতে বাধ্য।
Profile Image for Saima Taher  Shovon.
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July 29, 2020
প্রথম দিকে মনে হয়েছিলো -সুবর্ণ সত্যিই সত্যবতীর মেয়ে তো!না সুবর্ণ তাঁর বাবার মতো হলো!কোনো আত্মসম্মান বলে কী কিছুই নেই! এই সুবর্ণলতার মা-ই কিনা ভাবিনীকে বলেছিলো ওনার বোন মেরে ফেলার বিষয়ে ''নোড়া কি শুধু তাদেরই ছিলো?তোমাদের ঘরে ছিলো না?ছুঁড়ে মেরে মাথা দু-চির করে দেয়া যেতো না সেই মা-ছেলের?''সেই মায়ের মেয়ে স্বামীর ঠেঙানি খাচ্ছে। বাহ!মায়ের তেজের কণাটুকুও কিনা পেলে না!
পড়ছিলাম আর এসব কথাই ভাবছিলাম প্রথম দিকে।হয়তো সত্যের সাথে একটু বেশিই তুলনা করছিলাম ওর।তাই বোধহয় সুবর্ণের আগুন যে আলাদা তা বুঝতে সময় লেগেছে।ওর প্রতিবাদ যে আলাদা তা বুঝতে সময় লেগেছে। যতই এগিয়েছি -সত্যের উপর একটু একটু রাগ হচ্ছিলো!মেয়েকে কীভাবে এই নরকে ছেড়ে তুমি-সাহস যখন করেছিলে মেয়েকেও নিতে সাথে। যা হওয়ার হতো।এই একটি কারণেরই জবাব চাইতাম সত্যের কাছে।সত্য আর সুবর্ণ দুই আলাদা জগতের মানুষ। দুজনেই পায়ের শেকল ভাঙতে চেয়েছিলো-বা ভাঙতে না পারুক অন্তত পায়ে যাতে ক্ষত হয়ে না যায় ওই শেকলের দরুন, সেটাই চেয়েছিলো।
কিন্তু বালাই ষাট! এও কী সম্ভব! শেকল দিয়ে যদি শক্ত করে বাধতে না পারে মন বাঁধবে কী করে সমাজ!ধর্মকে পুঁজি করে সব নিজেদের মতো করে ফেলে!আর পুরুষের মাতৃভক্তির কথা না বলা-ই উত্তম।
সত্যবতী ছেলেমেয়েগুলোকে মানুষ করতে চেয়েছিল -চেষ্টাও করেছে খুব। কিন্তু হয়ে উঠেনি। সুবর্ণলতার বেলাতেও সেই ফল। মায়ের মতো সংসার ঠেলতে পারেনি,কিন্তু নিজেকে শেষ করেই বিদায় নিয়েছে সুবর্ণলতা। তা থাক-ওইটুকুই হয়তো তার স্বাধীনতা!
Profile Image for Anindita Halder.
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December 3, 2021
এক বৃহৎ শতক পরেও, পড়ে যেন মনে হয়,কি অস্বাভাবিক বর্ননা, যেন এক জলন্ত উপলব্ধি! শুধু একটাই কথা বলবো কি অবলীলায়,কি অনমনীয় ভাবে নারী হৃদয়ের বর্ননা করেছেন আশাপূর্ণা দেবী "সত্যই চোখের জল বাঁধ মানলো না"। আসলে যে মিল বহু শতাব্দী আগেই ছিল তার নয় , এখনো আছে, এই সুবর্নলতাদের দল , শুধু তফাৎ এটুকুই আগেকার সুবর্নলতারা অন্দরমহলটাকেই গোটা বিশ্ব ভেবে সারাটা জীবন কাটিয়ে দিত, এখনকার টা একটু বিপরীত তারা মাথার উপর খোলা আকাশটাকে সচক্ষে দেখতে পায়। চাইলেই চিৎকার করে বলতে পারে "মেয়েরাও চাইলে সব পারে" । হ্যাঁ অনেকটাই স্বাধীনতা আছে আগের অন্দরমহল পরিবেষ্টিত সুবর্নলতাদের চেয়ে। তবে মিল তো গোড়ায়, 'মনের কোঠোরে',এখনো সেই ছেলেমানুষীরা মাথায় চারা দিয়ে ওঠে, এখনো যে ছেলেভুলানো কথায় বিশ্বাস করে ফেলে 'এইতো স্বপ্ন বোধয় সত্যি হলো' , এখনো নিঃসংশৃতদের হাতে পরে জীবনটাকেই বলিদান দেয়।
তবে অমিলটাই বা কোথায়! কে জানে সয়ং ভগবান বোধয়। কেইবা জানে তাদের সেই ছেলেমানুষী মনটার কথা,কি চায় তারা। কেইবা জানে!
হয়তো তারা জানাতে চায়না বলেই, কেউ জানতে পারে না। তাই বোধহয় প্রচলিত বাক্যটি বুঝি এতোই জনপ্রিয় "মেয়েদের মন বোঝা বরই কঠিন" । হায়রে অভাগা।
যাগ্ গে সেসব কথা। তবে লেখা প্রসঙ্গে বলবো "সত্যিই মন ছুঁয়ে যাওয়ার মতো"।
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Profile Image for Kazi Shorna.
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June 2, 2021
"আসন্ন সন্ধ্যার মুখে সুবর্ণলতার শেষ চিহ্নটুকুও পৃথিবী থেকে লুপ্ত হয়ে গেল৷ চিতার আগুনের লাল আভা আকাশের লাল আভায় মিশলো, ধোঁয়া আর আগুনের লুকোচুরির মাঝখান থেকে সুবর্ণলতা যে কোন ফাঁকে পরলোকে পৌঁছে গেল, কেউ টের পেল না।"

সুবর্ণলতার মৃত্যুর ক্ষণ দিয়ে বইয়ের সূচনা, সেই মৃত্যু দিয়েই তার সমাপ্তি হল। সকলের চোখে চরম সৌভাগ্যবতী সুবর্ণ, অথচ ভেতরে ভেতরে মানুষটি আজন্ম অভাগা। চারদেয়ালে বন্দী সুবর্ণ'র আত্মা হয়তো মৃত্যুর মধ্য দিয়েই অবশেষে মুক্তি খুঁজে পেল।

সত্যবতী ট্রিলজির দ্বিতীয় বই 'সুবর্ণলতা' প্রথমটির মতই অসাধারণ ও উপভোগ্য ছিল। যদিও শ্রেষ্ঠত্বের দিক দিয়ে প্রথমটিকেই এগিয়ে রাখবো আমি।
Profile Image for ♡ Diyasha ♡.
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September 25, 2022
"প্রথম প্রতিশ্রুতি" এবং "সুবর্ণলতা" এবং "বকুল কথা" এই তিন উপন্যাস আশাপূর্ণা দেবীর এক অন্যান্য সৃষ্টি ♡
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🍃 বহুদিন এই দুই বই আমার বইয়ের তাকে বসে আমার জন্য অপেক্ষা করছিল.. শেষমেশ এই দুই সৃষ্টি আমি শেষ করতে পেরেছি 🍃. "বকুল কথা" এখনো আমার হাতের নাগালের মধ্যে আসেনি! নইলে হয়তো একসাথে এই গোটা সিরিজটি শেষ করা যেতো. যদিও বলাই বাহুল্য সত্যবতি আমার পছন্দের চরিত্র 🍂.. বলিষ্ঠ, সাহসী, আধুনিক এবং অন্যান্য. সুবর্ণলতা এর চোখের জল যেনো অনেকটা কাছের আর নিজের. যদিও এক দিক দিয়ে এই বইটি আমার এই যুগে সিরিয়াল এর গল্পকথন লেগেছে.. তবুও আশাপূর্ণা দেবীর লেখনীর সাথে কোনো কিছুর তুলনা করা পাগলামি. 😅
Profile Image for Partha Nandi.
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July 4, 2017
It is not a story of a woman who wanted to do something with her life, it is not a story of a woman who was trapped in a society of false ego, It is a story of those millions who are stuggling to get freedom even though as a nation we are independent. I was surprised to see the brilliance of legendary Ashapurna Devi who could tell such as story ,which was forbidden at that time, when it was written...
Profile Image for Jannat E Jahan.
23 reviews4 followers
December 1, 2022
প্রথম প্রতিশ্রুতি যতটা ভালো লেগেছিল, সুবর্ণলতার চরিত্র টা সত্যবতীর মত করে ভালো লাগেনি। সুবর্ণ ৯ বছর বয়সে বিয়ের পরও তার মায়ের বৈশিষ্ট্য গুলোকে আঁকড়ে রাখবে সেটার খুব একটা বিশ্বাসযোগ্য বলে মনে হয়নি। আবার সত্যবতী যতটা যৌক্তিক, সুবর্ণ যেন ততটাই আবেগী। ঠিক মেলেনি। তারপরও শেষে এসে মনে হয়েছে, ঈশ্বরকে ধন্যবাদ, এমন কটু সময়ে জন্মাইনি।
157 reviews
October 18, 2018
I would rate this book a bit lower than "Prathama prati sruti". I felt the translation not upto the mark in some places. That affected the reading experience too. Overall it is a worthy second part.
September 1, 2020
ঠাকুমার কাছে আসা তাই কাল হলো তার। ন বছরে সংসার। বাবা সাথে সম্পর্ক ছিন্ন, মা তো বিয়ের দিনই সংসার ত্যাগকরেছিলেন। এক নতুন আশ্রয় পেলো বটে, তবে প্রত্যেক মুহূর্তে অতৃপ্ততা। পালাতে পারিনি তবু, ছেলেমেয়ে মনপ���ত হলনা, দেখা হলোনা মার সাথে, যাওয়া হলনা তীর্থে, নিজের লেখা বইখানি হয়েও হলনা... জীবন হয়ত এরকমই।
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Profile Image for Navid Kaisar Rayan.
33 reviews40 followers
February 16, 2021
মোটামুটি। সত্যবতীর চারিত্রিক দৃঢ়তা আর আদর্শের সামনে সুবর্ণলতাকে মনে হল কপি ক্যাট। ছেলে মেয়েদের মধ্যে নিজের বা মায়ের আদর্শকে বিলিয়ে দিতে পারেন নি, অথচ নিজের সেই ব্যার্থতায় নিজেই অবাক হয়েছে বলে খানিকটা বিরক্ত হয়েছি। অবশ্য এটা নিয়ে তর্ক হতে পারে। আমি আমার রিভিউ দিলাম।
Profile Image for Mithun Mohaimin.
7 reviews11 followers
January 22, 2018
সাহিত্যবিচারে অসাধারণ নাহলেও অনন্য।
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