হিন্দি সাহিত্যের বিখ্যাত উপন্যাস "সারা আকাশ"। একাধারে সৃজনশীল উৎকর্ষ এবং জনপ্রিয়তার এমন সমন্বয় খুব কম উপন্যাসে দেখা যায়। সদ্য স্বাধীন ভারতবর্ষে যখন মূল্যবোধের পরিবর্তন ঘটছে দ্রুত, সেই সময়ের কাহিনি এটি। যদিও মূলত এটি একটি প্রেমের গল্প।
ভালো সাহিত্যের একটি লক্ষণ হলো, তা একই সঙ্গে সমকালীন এবং চিরন্তন। ১৯৫২ সালে লেখা এই বিখ্যাত হিন্দি উপন্যাসটির দেশকাল এবং প্রেক্ষাপটের সঙ্গে আজকের দিনদুনিয়ার ভিনগ্রহসম পার্থক্য। তবু মানুষ যেহেতু আজও মানুষ রয়ে গেছে, তাই উপন্যাসের মূল বার্তাটি আজকের দিনেও আমার কাছে প্রাসঙ্গিক বলে মনে হয়েছে।
ভারতীয় উপমহাদেশের সমাজব্যবস্থায়, একজন মানুষের ব্যক্তিগত জীবনে তার নিজের পরিবারের চেয়ে বেশি গুরুত্বপূর্ণ আর কিছু নেই। ছোট থেকে আমরা বড় হই আমাদের পরিবারের প্রত্যক্ষ নজরদারিতে। বড় হওয়ার পরে সেই পরিবারের প্রতি ঋণ শোধ করি আমরা। ধর্ম ত্যাগ করলেও করা যেতে পারে, কিন্তু পরিবারকে ত্যাগ করা (কিংবা দূরত্ব তৈরি করা) তো মহাপাতকের কাজ হিসেবে গণ্য করা হয়!
উপন্যাসের স্থান এবং কাল : স্বাধীনতার ঠিক পরের ভারতবর্ষের একটি মফস্বল শহর (সম্ভবত আগ্রা)। মুখ্য চরিত্র অপ্রাপ্তবয়স্ক একটি দম্পতি। মনের দিক দিয়ে পরিণত হয়ে ওঠার আগেই তারা বিবাহবন্ধনে আবদ্ধ হয়েছে, কারণ তাদের পরিবার এই সিদ্ধান্ত নিয়েছে। পৃথিবীটা ভালো করে চিনে ওঠার আগেই জীবনের অন্যতম গুরুতর দায়িত্বের বোঝা চাপিয়ে দেওয়া হয়েছে তাদের উপর। এর ফলাফল হয়েছে মর্মান্তিক।
নিজের আজন্মপরিচিত পরিবেশ ছেড়ে একজন নারী যখন সম্পূর্ণ অপরিচিত একটি পরিবেশে নিজেকে খাপ খাইয়ে নিতে বাধ্য হয় (বিয়ের পরে), তখন তার মনের আদল কেমন থাকে? আর যদি নতুন পরিবেশটি হয় সেই নারীর প্রতি বিদ্বেষপূর্ণ? এমনকি যার ভরসায় মেয়েটি নিজের আত্মপরিচয় পাল্টে ফেলেছে, সেই স্বামীটিও যদি পছন্দ না করে তাকে? কিংবা স্বামীটি যদি হয় অস্থিরমতি, দুর্বলচিত্ত, অমানবিক?
নারী পুরুষের সম্পর্কের রসায়ন, নিম্নবিত্ত-মধ্যবিত্ত সমাজে পরিবারের সঙ্গে ব্যক্তিমানুষের সম্পর্ক, সমাজের দ্বারা অন্ধভাবে চাপিয়ে দেওয়া প্রথার পরিণতি, আধুনিকতার সঙ্গে গতানুগতিকতার দ্বন্দ্ব— এরকম বেশ কিছু গুরুতর বিষয়কে খুব মুনশিয়ানার সঙ্গে ফুটিয়ে তুলেছেন রাজেন্দ্র যাদব। ভারতের বিভিন্ন আঞ্চলিক ভাষায় লেখা এরকম কতো মণিমুক্তোর সঙ্গে আচমকা দেখা হয়ে যায়! উৎকৃষ্টতম ভারতীয় সাহিত্য আসলে লেখা হয়েছে আঞ্চলিক ভাষাতেই।
যদি প্রশ্ন করা বন্ধ করে দিই (অন্যকে না হলেও, অন্তত নিজেকে); প্রচলিত সমস্ত রীতি-রেওয়াজকে যদি চোখ বন্ধ করে মেনে নিই; বেশিরভাগ মানুষ যা বিশ্বাস করে, তাকেই যদি অভ্রান্ত ভেবে নিই; নিজের বিচারবুদ্ধিকে যদি সংস্কারের পায়ে সমর্পণ করি; যদি সোজা পায়ে না হেঁটে পিছন দিকে হাঁটতে থাকি, তাহলে কি আমি জীবিত মানুষ? ভূতের পা পিছন দিকে ঘোরানো থাকে।
इस पूरे उपन्यास में "प्रभा" को छोड़कर कोई भी पात्र मुझे अच्छा नही लगा। इसका हीरो तो मुझे एकदम घटिया लगा। कोई निर्णय ही नही ले सकता। लेकिन मैं समझ सकता कि जिस वक्त की कहानी ये उपन्यास बयान करती है उसमें ऐसी जेहालत जरूर रही होगी। आजकल भी निम्न मध्यवर्ग की लगभग यही स्थिति है।
समर और प्रभा. प्रभा और समर. सारा आकाश कहानी है एक जोड़े की जो अपने लिए थोडा सा आकाश, थोड़ी सी ज़मीन चाहता है. राजेंद्र यादव की यह उत्र्कृष्ट कृति एक पुरजोर तमाचा है हर उस समाज के रखवाले के गाल पर जो सोचता है कि उसकी राय का महत्त्व किन्ही कारणों से औरों के जीवन से ऊपर है.
एक संयुक्त परिवार है आगरा में. गरीबी की पृष्ठभूमि पर पिछड़ी विचारधारा बुरक कर एक नरक का निर्माण किया है जिसे ये लोग घर कहते हैं. एक बाबूजी हैं जिन्हें लगता है उनकी सोच और पित्रसत्तात्मक रवैय्या घर को बांधे रखे हैं. हिटलर की छवि दिखती है. एक माताजी हैं जिन्हें माँ कहना माँ शब्द का अपमान होगा. एक भाभी और भैया हैं. भैया जो सब कमाते धमाते हैं. घर चलाते हैं. उनकी पत्नी को छोटी बहू से जलने कुढने के सिवा कोई काम नहीं.
इन सबके बीच में हमारा नायक समर. समर में सदैव. आर एस एस वाली विचारधारा से जुडा हुआ. शादी नहीं करना चाहता था, ब्रह्मचारी रहना चाहता था. पर उसके गले प्रभा बाँध दी गयी. एक साल तक बात भी नहीं की. प्रभा सहनशीलता की मूर्ति बनी रही. अंततः प्रेमकथा प्रारंभ हुई.
इस कहानी में ट्रेजेडी है. समर दुखी है समाज से, परिवार से, पैसे की कमी से, समाज और परिवार के पैसे के प्रति मोह से. प्रभा नायिका है पर वह भी उलझी है. शादी के बाद उसको भी सास को खुश करने के लिए बच्चा पैदा करने का मन है. समर अपने समर में अकेला है. प्रेम है भी और नहीं भी.
एक चुटीला कमेंट है संयुक्त परिवार और खोखले आदर्शों पर. लेखक आदर्शवाद के ऊपर व्यक्तिवाद को हावी मान कर लिखते हैं. और सही ही लगते हैं. यह वो समय था जब हिन्दू मुस्लिम दंगे होते थे. हिंदुत्व का गलत अर्थ निकाला जाता था. परंपरा के नाम पर ढकोसला परोसा जाता था. वह समय फिर लौट कर आ रहा है इस लिए सारा आकाश अब फिर से रिलेवेंट हो रहा है. पढ़िए.
Before reviewing this literary masterpiece,I would like to raise a question ???....Why ?? Why?? Why is Indian literature so criminally underrated ??..Why apart from Rabindranath Tagore and a handful of other writers--why there is not even a trace of Indian literature in other countries ???..Many talented French,Russian writers have presented their culture,their believes in their work which has been translated and appreciated all over the world..So why not our Literature...Today's teens like reading sex scenes out of Durjoy Dutta,Nikita Singh,Sudeep Nagarkar and be like "Awwwwww so sweet.."............This is the reason our literature is sinking down into an abyss and this book is the very fine example of it-just see the reviews--just 3 or 4 whereas for the books written by these above mentioned authors you'll see an ocean of it..........................
Sara Aakash is a masterfully written novel depicting the life of a young couple who get tangled in marriage in a joint family-their struggles to fight in a patriarchal society,while getting to know each other and their hope to realise their dreams-and not just dreams of breaking out but DREAMS THAT ARE BIG.....................And it is really hard to read this novel without laughter,tears and thinking about your believes and dreams...YES IT IS THAT POWERFUL.......................Told from the viewpoint of a young man Samar who is compelled to marry Prabha after his family's demands..........Prabha and Samar are like strangers in a crowd,no talking,no relation--Samar wants to focus on his studies while Prabha is thrown into the treacherous household of her in laws..Will the both lead pair find a way out of their cocoons and communicate?..Will Samar be able to complete his studies under the ruining economy of his family??............There are several subplots including Samar's divorced sister Munni,his Bhabhi's pregnancy and his father's violent atitude......Then there is Girish Sahab,a learned man who is making Samar question his believes in religion and life??????
Rajendra Yadavji uses first person naaration to describe Samar's mind and never have I read such a mindblowing depiction of a man's mind-----how one event can change our believes and then the second completely wipes it.....???..Yadavji throws little light on expressing his own feelings which in turn makes the book a more compelling read....The protagonists think of romance,love and dreams but the real world is forcing them to fight and fight........The characters are not pitch perfect hero or heroines but real people yet strong and willing which is an another + point to this social drama.....
Where I found this book to be a little off that it discusses way to many issues and discusses few in detail-----patriarchy,love,arranged marriage,divorce,position of women post independence,sacrifice,gender bias,culture,traditions,god,nuclear family.........A little insight into these issues would have helped.....Also the ending though satisfying could have paved itself towards a happy or at least a complete stop...When you read the life of a man you'd want to know where it finally leads to but hanging it in the middle of nowhere though makes you contemplate but leaves you asking for more....
However,these are but minute flaws in a great piece which promises so many tearjerking moments while some really moving portrayal of Indian traditions........(also worth mentioning--the novel was written in a time where authors would write one chapter and submit it to a magazine.Each month the readers anticipated of what was to come so the author had to make each chapter interesting and vivid -----the reason why Hindi novels are so great.."...)
यह उपन्यास मैं भीषण लॉकडा��न के दौरान किसी प्रकार से लाया था। बहुत सुना था इसके बारे में, इसलिए ले आया। लेकिन लाने के बाद से (मई 2020) मैंने इसे नहीं पढा। फिर परसों मैंने ऐसे ही कुछ पन्ने पलटे और फिर मै बस तब रुका जब परिस्थितियों ने मजबूर किया। समर और प्रभा! मैं निःशब्द हूँ। अपने अंदर भावों का एक विशाल लोक लिए हुए हूँ और चंद शब्दों से उनका न्याय नहीं हो सकता। इसलिए निःशब्द हूँ। प्रभा के प्रति गहरी संवेदना और सहानुभूति घर कर गयी है। स्त्री का क्या कोई भी ,कभी भी न्याय कर सकता है? एक बचपन जो उसे अपनी आजादी का अनुभब देता है और एक वो जीवन, विवाह के बाद का, जो भूंखे भेड़िये की तरह उसका इंतजार कर रहा होता है। और जिसकी उसे भनक तक नहीं होती। जो उसे मनुष्यता का अधिकारी भी नहीं मानता। मैं ये सब लिखते हुए केवल प्रभा के बारे में सोच रहा हूँ, मुझे किसी नारीवाद से कोई वास्ता नहीं। मैं बस इतना चाहता हूँ, कि अगर किसी पिछले जन्म में मैंने किसी भी प्रभा को समर बन कर अनचाहे भी अगर दुखी किया है, तो मैं मांफी मांगता हूँ। मैं हर जीवन में प्रभा मांगता हूँ, बस खुद थोड़ा सा "मनुष्यतर समर" होना चाहता हूँ। ताकि प्रभा को अपने त्याग के बदले, धन दौलत आराम न सही लेकिन थोड़ा सा मनुष्य जरूर मिल जाए। जो उसको समझ सके। जो उसे प्रेम कर सके।
I read this novel within a month of reading "Gunahoma ka Devata" another highly rated Hindi novel. I felt this novel is painting a very realistic social economical state of the time and how a young couple struggle to stay hopeful for the future where the whole society even their own family does not see them anything more than a source of cheap labor and someone to earn some family for the expenses of the large joint family. Whereas Gunahon ka Devata lacked any depth more than just actions of lovers that too very immature ones.
I highly recommend "Saara Aakash" as a must read for anyone who wants to read good Indian literature.
This fine reading with an inappropriate ending. The language and flow are marvelous. The writer ended the novel according to time but could have been better with a happy ending than an ambiguous ending. Still the beauty of language is the foot mark of the writer. Good reading
राजेंद्र जी ने ये किताब 1952 में लिखी थी यानि आज से करीब साठ साल पहले। वैसे उसके करीब 8 साल पहले वे इसी पुस्तक को प्रेत बोलते हैं के नाम से लिख चुके थे। सारा आकाश में प्रेत बोलते हैं कि भूमिका और अंत दोनों को बदल दिया गया। राधाकृष्ण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में पाठकों की जिज्ञासा को देखते हुए प्रेत बोलते हैं के वे अंश भी दिए गए हैं जिन्हें सारा आकाश में बदला गया। अगर दोनों अंतों की तुलना करूँ तो सारा आकाश का अंत मुझे ज्यादा बेहतर लगा। निम्नमध्यम वर्गीय समाज को जिसने करीब से देखा हो या उसके अंग रहे हो वे बड़ी सहजता से इस कथा से अपने को जोड़ पाएँगे।
बकौल राजेंद्र यादव सारा आकाश एक निम्नमध्यवर्गीय युवक के अस्तित्व के संघर्ष की, आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और आर्थिक सामाजिक, सांस्कारिक सीमाओं के बीच चलते द्वन्द्व, हारने थकने और कोई रास्ता निकालने की बेचैनी की कहानी है। पुस्तक की भूमिका में लेखक बताते हैं कि किशोर मन में गूँजती रामधारी सिंह 'दिनकर' की ये पंक्तियाँ उपन्यास के नामाकरण का स्रोत बनीं
सेनानी, करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है
इन्हीं पंक्तियों के संदर्भ में ये उपन्यास अपनी सार्थकता खोजता है और इसलिए राजेंद्र जी कहते हैं कि इस कहानी के ब्याज, इन पंक्तियों को पुनः विद्रोही कवि को लौटा रहा हूँ कि आज हमें इनका अर्थ भी चाहिए।
दो सौ से ऊपर पृष्ठों की ये किताब पारिवारिक समस्याओं के चक्रव्यूह में उलझे समर और प्रभा की संघर्ष गाथा है। इस पुस्तक के बारे में मेरी विस्तृत चर्चा यहाँ पढ़ें... http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.in...
'सारा आकाश' ने भारतीय निम्न मध्यम वर्ग की स्थिति को पूरी सच्चाई और मार्मिकता से दिखने कोशिश की है। 1951 में लिखा गया यह उपन्यास समाजिक दुर्दशा पर प्रकाश डालने के समकालीन तरीकों को अपनाते हुए भी मौलिकता लिए हुए है।
कहानी समर नाम के युवा की है जो अपने मन में आकाश जितनी ही अनिश्चितताएं भरे हुए है। पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं के बीच अपने सपनों को पूरा करने की जद्दोजहद में फंसे समर की कहानी में प्रभा भी पत्नी के रूप में जोरों से मदद करती है। दोनों का प्रेम लंबी दूरी के बाद परवान चढ़ता है पर भारतीय सामाजिक सोच और आर्थिक बोझ के तले बिना उफ्फ किये चित्त हो जाता है। दिवाकर और शिरीष भी कथोपकथन में अपना काम करने में सफल होते हैं।
उपन्यास सामाजिक समस्या और निष्काम प्रेम को जीवंत करे में भरसक सफल हुआ है। पर कथनों की लय कई जगह हमें टूटी हुई मिलती है। द्वितीय पंक्ति पात्रों को थोड़ा और उभारकर कथानक को अधिक मार्मिक बनाया जा सकता था। सामाजिक के स्थान पर पारिवारिक समस्याओं को ज्यादा तवज्जो दी गई है। 'उपन्यास के प्रारंभ और अंत की जरूरत नहीं है', इस कथन के साथ 'प्रेत बोलते हैं' से प्रारंभ और अंत निकालकर 'सारा आकाश' नाम से यह उपन्यास प्रकाशित किया गया। पर उन्हें रखे बिना तो उपन्यास अधूरा ही है।।
ये उपन्यास जीवन के वास्तविकता की नग्न तस्वीर पेश करता है, जिससे अगर सीखने वाले चाहे तो अपने जीवन को बेहतर करने के तरीके सीख सकता है। कहानी का नायक समर एक ऐसे द्वंद में फंसा रहता है, जिससे आम ज़िंदगी में लगभग हर मध्यमवर्गीय और निम्न मध्यम वर्गीय व्यक्ति जूझता है, पर कुछ लोग समाज और परिवार में व्याप्त कुरीतियों को या तो ठीक ढंग से समझ नहीं पाते हैं, या जो समझ पाते हैं, वो इसे एक नियति और नियम मान कर इसका पालन और रक्षा में लग जाते हैं, परंतु जो उन कुरीतियों के घुटन से मुक्ति पाने के लिए, साहस दिखाता हैं, उसे अक्सर बदतमीज़ और पथभ्रष्ट करार दे दिया जाता है, समर को हम उसी वर्ग में रख सकते है। कहानी में कुछ सुखद क्षण भी है, जो मन को गुदगुदाते हैं, परंतु खालिश 'हैप्पी एंडिंग' के आदि लोगों को ये थोड़ा बोझिल लग सकता है, परंतु ये एक बेहद जरूरी उपन्यास है, जो आपके मन को झकझोरती हैं, और आपसे सवाल पूछती है कि समाज की प्रगति के क्या मायने होते हैं।
A terrific novel, story of a couple who dont speak for nearly an year and then when they speak, their passion and dreams take precedence over their reality. The novel depicts the society of its times in a ruthless way and some of that is still relevant. The ending is a bit abstract and the last few pages seem irrelevant to the overall narrative. Still the questions it asks is still relevant even today.
The core characters are samar and prabha They are married young and samar faces the issue of education,employment and responsibilities.
Prabha is ridiculed for her education beauty and burden with lot of house hold works.
Both are aspirational and dreamers even after facing all odds. The discussion, conversation are relatable and the debate on the chest thumping of ancient civilization without doing nothing in present is a welcome addition.
यह उपन्यास अंत होते होते भीतर तक हिला देता है। इसमें निश्छल बच्चे जैसा प्रेम है, हलाल होते जानवर जैसी लाचारी और घर के रिश्तों और सामाजिक रिवाजों के ऊपर उठते गहरे सवाल। चाहे यह उपन्यास 70 वर्ष पहले लिखा गया हो पर बहुत अर्थों में आज भी समाज का आयना है। दिल को छू गयी ये कथा। कथाकार को सादर प्रणाम।
Okay so the book has an introduction by Ruth that I did not realise basically reveals the whole plot. After reading it I thought I wouldn't enjoy reading the book because of obvious reasons, but surprisingly that was not the case. The story is very familiar to me, and it feels like I've known it since forever, but that did not make the reading of it boring or tiring or uninteresting. I wanted to return back to reading as soon as I'd have to stop.
I should read the introduction once more though now that I've finished the book. And also find this book in hindi and read that too.
पता नहीं अज्ञेय को ऐसा क्यों लगा कि इस उपन्यास के प्रारंभिक और अंतिम हिस्से आवश्यक नहीं थे और एकबारगी राजेंद्र यादव ने उनकी बात मान भी ली. धर्मांध लोगों के आतंरिक अंधेपन का सती-भक्ति के हुज़ूमी उन्माद बनना तो सबसे बेहतरीन अंत है. शायद अज्ञेय उन लोगों में से थे जिन्हें वाकई में भारतीयों के अंतर्मुखी होने पर गर्व हुआ करता है. और फिर यह कोई अनूठे शिल्प, अक्लमंद उपन्यास तो है नहीं. अपने समय की एक भयावह समस्या को जड़ से नेरेट करता हुआ उपन्यास है. अगर मैं इसका झकझोर देने वाला अंत न पढता तो शायद इस किताब का मुझपर उतना गहरा असर न होता.
कहानी का मुख्य पात्र निहायत जाहिल और आसानी से बह जाने वाला आदमी है जिसके मन के विचार बस औरों की कही बातों की प्रतिध्वनि भर है. सामाजिक-राजनैतिक बहस का आदर्श मस्तिष्कहीन कड़ाह, जिसमें किसी नए विचार के लिए सम्मान "ये तो मैंने सोचा ही नहीं" के रूप में कौंधता है. फिरकापरस्ती कि तालीम लेते "राह भटके युवक" के लिए वह एक आदर्श स्कैफोल्ड होता है, पर डिप्रेशन के मारे आत्महन्ता को दया करके थोड़ा और बुद्धिमान बना देना चाहिए. वैसे हिन्दू फिरकापरस्तों के लिए "राह भटके युवक" वाली कहानी की बहुत ज़रूरत है. हिन्दू आतंकवादियों (अभी जो पालने में पैर दिखा रहे हैं) को बस एक संगठन की छाया बनाकर दिखा दिया जाता है; उनको समझने की आवश्यकता किसी को महसूस नहीं होती (मैंने बहुत सारी किताबें नहीं पढ़ीं है. यदि आपकी नज़र में कोई हो तो ज़रूर बताएं).
खैर, अब टिन के डब्बे की तरह पराये विचारों को गड़गड़ाते इस मूरख नारसिसिस्ट को सुनते सुनते, उपन्यास के अंत तक आते आते आदमी के कान थकने लगते हैं. शिरीष. नायक के कड़ाह में तलते विचारों का एकमात्र स्रोत (हमारे देश के बुद्धिजीवियों के विचार में समाज का अकेला औथोराईज्ड स्रोत). अगर उसकी जगह प्रवीण तोगड़िया होता तो हमारा नायक त्रिपुंड लगा, खड्ग लिए भी निकल पड़ता. उसके इम्पल्स का नतीज़ा बेचारी प्रभा भुगतती रहती है. पर फिर मुन्नी और प्रभा के चरित्रों की तकलीफें उतनी ही ज़्यादा प्रभावित करतीं हैं क्योंकि उनका गला समाज तो घोट ही रहा है, उपन्यास ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. मेरे विचार में यह जान-बूझकर किया गया है और उपन्यास का वह तत्व है जो इसे एक अच्छी और ज़रूरी किताब की श्रेणी में ला रखता है. प्रेत बना नायक, पुलिस, अनमने श्रद्धालू और खिडकियों से झांकती सहमी औरतें. हमारा समाज सचमुच इनेक्शन का मारा था. लोग अन्याय के खिलाफ दंगे के भय से नहीं बोलते थे. आज के जमाने की स्त्रियाँ तो लिंगभेद के ऐसे स्पष्ट आचरण कि ईंट से ईंट बजा डालें. हालाँकि, वो प्रवृति आज मैं हिन्दू-मुसलमान के मामले में देखता हूँ.
यह बहुत सच बात है कि हमारा समाज अतीतजीवी और पलायनवादी है पर यह भी सनद रहे कि भारत के प्राचीन विज्ञान को ग्रीक और इजिप्शियन समाज के योगदानों जैसा सम्मान कभी नहीं मिला है. बात वहीँ आ जाती है कि आखिर लट्ठ के दम पर किसको कभी सम्मान मिला है!
शायद यही बेस्ट सेलर मटेरियल होता है -- जो कि किसी भी भाषा के साहित्य का बहुत जरूरी हिस्सा है, और हमने इसे खो दिया है. अगर आप इस प्रकार के आम अपील वाले कथानकों को प्रकाशित नहीं करेंगे तो उनकी जगह गुलशन नंदा जैसे लोग ले लेंगे. पॉप सेंसिबिलिटी को चित्रित करते लेखकों को मेरा पूरा समर्थन प्राप्त है.
राजेन्द्र यादव औए मन्नू भंडारी को बराबर महत्वपूर्ण आँका जाता है -- जिससे मैं असहमत हूँ क्योंकि मन्नू भंडारी के कथानकों और चरित्रों में जो गहराई और निशब्द विस्तार होता है, राजेंद्र यादव के इस उपन्यास में तो नहीं है. पर कोई कहता है कि मन्नू भंडारी का लेखन जनमानस सशक्त अभिव्यक्ति नहीं है तो भैया, हमारे लिए तो ढंग से चित्रित फूल-पत्ती ही अच्छी. अंतरिक्ष के अँधेरे में चमकता नीला पिक्सलेटेड बिंदु किसने देखा है (जुमला ज़ाकिर खान का है).
This entire review has been hidden because of spoilers.
This is what literature should be in my opinion: Entertaining, deeply analytical and a challenge to an existing order through bringing new ideas.
Though this book is written as a holistic critique of Indian society, it is never boring or too philosophical. The characters are complex and properly built up. Story of an ambitious but an average young man who is forced into marriage by his very conservative parents is written and set in 1950 but still resembles the story of middle class India in every sense even today. A powerful thought provoking book which will make you question your beliefs, your understandings and your overall opinion of our society. A must read...
I was fully prepared to give this book 1 star, because of the odious protagonist, and lack of plot action. But solid comeuppance happened, and while I still don't think I'd recommend this book to anyone ever, it wasn't as terrible a read.
Edit: I've been thinking about this book for the last 24 hours, and I realize the author completely intended for this character to be detestable. So rating has gone up - the whole Jane Austen satire problem happened, I think.
Insufferable narrator, but perhaps the satire was lost on me. Could have easily ended before the second book, which is (as the introduction notes) something of an extended denouement.