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ओस की बूँद

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'Os ki boond' tells the story of Gazipur during partition. Gazipur is your typical north Indian village where lives of hindus and muslims are interconnected so intimately that it is impossible to imagine the village without the other. But, the India-Pakistan partition sets of a train of events which threatens this very core.

112 pages, Hardcover

First published January 1, 1970

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About the author

डॉ. राही मासूम रजा का जन्म १ अगस्त १९२७ को एक सम्पन्न एवं सुशिक्षित शिआ परिवार में हुआ। उनके पिता गाजीपुर की जिला कचहरी में वकालत करते थे। राही की प्रारम्भिक शिक्षा गाजीपुर में हुई और उच्च शिक्षा के लिये वे अलीगढ़ भेज दिये गए जहाँ उन्होंने १९६० में एम०ए० की उपाधि विशेष सम्मान के साथ प्राप्त की। १९६४ में उन्होंने अपने शोधप्रबन्ध “तिलिस्म-ए-होशरुबा” में चित्रित भारतीय जीवन का अध्ययन पर पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात्‌ उन्होंने चार वर्षों तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य भी किया।

अलीगढ़ में रहते हुए ही राही ने अपने भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण का विकास कर लिया था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वे सदस्य भी हो गए थे। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धान्तों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे थे।

१९६८ से राही बम्बई में रहने लगे थे। वे अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। कलम के इस सिपाही का निधन १५ मार्च १९९२ को हुआ।

राही का कृतित्त्व विविधताओं भरा रहा है। राही ने १९४६ में लिखना आरंभ किया तथा उनका प्रथम उपन्यास मुहब्बत के सिवा १९५० में उर्दू में प्रकाशित हुआ। वे कवि भी थे और उनकी कविताएं ‘नया साल मौजे गुल में मौजे सबा', उर्दू में सर्वप्रथम १९५४ में प्रकाशित हुईं। उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह ‘रक्स ए मैं उर्दू’ में प्रकाशित हुआ। परन्तु वे इसके पूर्व ही वे एक महाकाव्य अठारह सौ सत्तावन लिख चुके थे जो बाद में “छोटे आदमी की बड़ी कहानी” नाम से प्रकाशित हुई। उसी के बाद उनका बहुचर्चित उपन्यास “आधा गांव” १९६६ में प्रकाशित हुआ जिससे राही का नाम उच्चकोटि के उपन्यासकारों में लिया जाने लगा। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के एक नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गांव गंगोली के शिक्षा समाज की कहानी कहता है। राही नें स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूंगा। अगर गंगोली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”।

राही मासूम रजा का दूसरा उपन्यास “हिम्मत जौनपुरी” मार्च १९६९ में प्रकाशित हुआ। आधा गांव की तुलना में यह जीवन चरितात्मक उपन्यास बहुत ही छोटा है। हिम्मत जौनपुरी लेखक का बचपन का साथी था और लेखक का विचार है कि दोनों का जन्म एक ही दिन पहली अगस्त सन्‌ सत्तईस को हुआ था।

उसी वर्ष राही का तीसरा उपन्यास “टोपी शुक्ला” प्रकाशित हुआ। इस राजनैतिक समस्या पर आधारित चरित प्रधान उपन्यास में भी उसी गांव के निवासी की जीवन गाथा पाई जाती है। राही इस उपन्यास के द्वारा यह बतलाते हैं कि सन्‌ १९४७ में भारत-पाकिस्तान के विभाजन का ऐसा कुप्रभाव पड़ा कि अब हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर रहना अत्यन्त कठिन हो गया।

सन्‌ १९७० में प्रकाशित राही के चौथे उपन्यास “ओस की बूंद” का आधार भी वही हिन्दू-मुस्लिम समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की कथा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।

सन्‌ १९७३ में राही का पांचवा उपन्यास “दिल एक सादा कागज” प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया गया था और भारत के हिन्दू तथा मुसलमान शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनैतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फिल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलता का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।

सन्‌ १९७७ में प्रकाशित उपन्यास “सीन ७५” का विषय भी फिल्मी संसार से लिया गया है। इस सामाजिक उपन्यास में बम्बई महानगर के उस बहुरंगी जीवन को
विविध कोणों से देखने और उभारने का प्रयत्न किया गया है जिसका एक प्रमुख अंग फिल्मी जीवन भी है। विशेषकर इस उपन्यास में फिल्मी जगत से सम्बद्ध व्यक्तियों के जीवन की असफलताओं एवं उनके दुखमय अन्त का सजीव चित्रण किया गया है।

सन्‌ १९७८ में प्रकाशित राही मासूम रजा के सातवें उपन्यास “कटरा बी आर्जू” का आधार फिर से राजनैतिक समस्या हो गया है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक यह बतलाना चाहते हैं कि इमरजेंसी के समय सरकारी अधिकारियों ने जनता को बहुत कष्ट

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11 (14%)
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5 (6%)
1 star
3 (4%)
Displaying 1 - 9 of 9 reviews
Profile Image for Siddhartha Shankar.
8 reviews16 followers
December 10, 2014
Fading art and heritage

This 100 odd page book from 1970s is a treatise to celebrates the entwined lives of Hindu-Muslim relationship during 'partition'.
It would be difficult to understand the sentiments(&/or language/expressions!)for those born after '90s. Thus, its like "finding your lost favorite childhood toy when giant trunk is opened to bring out winter quilts".
Must read before this gem gets lost in time. To be cherished - soak in the warmth of a long lost art of narrating a satirical medley of humor alongside a deep running message. No less than a chronicle of a philosophical historian - pickled in time
Profile Image for Rajeev Roshan.
71 reviews14 followers
February 23, 2013
समीक्षा - सन्देश- असर- प्रेरणा- कटाक्ष

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पुस्तक - ओस की बूँद (उपन्यास)
लेखक - राही मासूम रज़ा


जब हम सुबह सुबह उठते हैं तो अपनी छत की मुंडेर से लगे नीम के पेड़ के पत्तों पर कुछ बूंदे देखते हैं, जब पार्क में घुमने जाते हैं तो घासों और फूलों के ऊपर बूंदे देखते हैं जिन्हें ओस की बूँद कहा जाता है। लेकिन ये ओस की बूंदे सूरज की गर्मी से धीरे धीरे भाप बन कर उड़ जाती है। ये ओस की बूँद हमें सुबह तो दिखाई देती हैं लेकिन शाम होते होते इनका कोई नामोनिशान नहीं होता।

आज हमारा समाज कई प्रकार की कुरीतियों, बुराइयों, भ्रस्टाचारों से भरा हुआ है। ये कुरीतियाँ, ये बुराइयाँ ओस की बूंदों की तरह हैं । जब हम सुबह उठते हैं तो समाचार पत्रों द्वारा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा इस प्रकार की कई ओस की बूंदों को देखते हैं। ये ओस की बूंदे सुबह सवेरे हमारे मानस पटल पर छप जाती हैं लेकिन शाम होते होते हम इन ख़बरों को भूल जाते हैं।

ओस की बूँद हमें दर्शाता है की किस प्रकार एक कहानी की शुरुआत तो होती है, हम उसे पढ़ते भी हैं, हम उस पर विचार भी करते हैं, हम उस पर मनन भी करते हैं, हम उस पर बहस भी करते हैं, लेकिन फिर हम उसे भूल जाते हैं। जिस प्रकार ओस की बूँद सूरज की गर्मी से भाप बन कर उड़ जाती है उसी प्रकार हमारे अंत:मन में छपे विचार भी हमारे प्रतिदिन के क्रियाकलाप के दौरान, गाड़ियों की दौर में, ऊँचाइयों की होड़ में, महगाई के शोर में और समय की कमी के कारण, उड़ जाते हैं।


रज़ा साहब ने अपने इस उपन्यास (ओस की बूँद) में इस प्रकार के उदहारण देने की कोशिश की है। उन्होंने इस कहानी के द्वारा इंसान के अन्दर बैठे एक असली इंसान को जगाने की कोशिश की है।

कहानी उस समय के घटनाक्रम को दर्शाती है जब भारत माँ के दो टुकड़े कर "हिंदुस्तान" और "पाकिस्तान" में बाँट दिया जाता है। इस विभाजन में आम इंसान को कोई फायदा नहीं हुआ। फायदा और लाभ हुआ तो बस सियासतदारों को। एक व्यक्ति जो चाहता था की पाकिस्तान बने और उसका बेटा इस बात के विरोध में था। लेकिन जब पकिस्तान बना तो वह व्यक्ति पाकिस्तान नहीं गया जबकि उसका बेटा अपनी विवाहिता पत्नी को तलाक़ देकर (यह बात सोचने के मजबूर कर देगी आपको ) पाकिस्तान चला जाता है। विभाजन का इससे बड़ा दुष्प्रभाव देखने को नहीं मिला है। पति पत्नी को इसलिए छोड़ कर चला गया क्यूंकि उसे पाकिस्तान प्यारा था। और पत्नी यहाँ मुआवजे के लिए मुक़दमे लडती है। कैसा होगा उस तलाक़शुदा पत्नी का जीवन जब उसके और उसके बच्चो के सर से बाप का साया उठ जाए।

एक व्यक्ति अपने दोस्त से इस बात से खफा है की उसने पाकिस्तान बनने से क्यूँ नहीं रोक। जबकि उसका दोस्त पकिस्तान बनने का विरोधी था।

एक व्यक्ति जिसके पुरखो ने ७-८ पीढ़ियों पहले हिन्दू से मुस्लिम धर्म अपना लिया था। उसके पुरखों ने बस यही गलती की मुस्लिम बनने से पहले वह हिन्दू थे और हिन्दू होने के कारण उन्होंने अपने हवेली में एक मंदिर बनवाया था। अब पुरखो द्वारा बनाया गया मंदिर इस व्यक्ति द्वारा सरंक्षित किया जाता है। जिस मंदिर को कई वर्षों तक, कई सालों तक, किसी ने नहीं पूछा लेकिन जब उसी खंडहर और वीरान मंदिर में जब एक दिन शंख बजा दिया गया तो पुरे मोहल्ले में खलबली मच गयी। उसी क्षेत्र कुछ लोग चाहते थे की शंख ना बजे जबकि कुछ चाहते थे की उस मंदिर में पूजा हो। जिस व्यक्ति ने शंख बजाया था उसने शंख को बगल के कुँए में फेंक दिया। इस छोटी सी कार्य के कारण पुरे शहर में बलवा (दंगा) हो गया। पुरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। मंदिर को सेना के जवानों ने घेर लिया था। जिस व्यक्ति के हवेली अन्दर वह मंदिर आता था, उसका ज़मीर जब जागा तो उसने खुद मंदिर में जाकर शंख बजा डाला और सेना की गोलियों का शिकार बना। और फिर पुरे शहर में दंगा हो गया।

क्या था दंगे का कारण ?
दंगे का कारण खोजना बड़ा मुश्किल कार्य है इस कहानी के अन्दर।
क्या आप मानते हैं की एक मंदिर शंख फूकना दंगे का कारण हो सकता है।

आप इस कहानी उस समाज को देखेंगे जिसने अपने चेहरा पर एक मुखौटा सा बाँध लिया है। वर्तमान समाज और ५०-६० के दसक के समाज का एक ही चेहरा नजर आता है। दोनों के चेहरों पर बस नकाब ही दीखता है। और इस नकाब के होने के बावजूद लोग अपने को धर्म, जाती, रंग में बांटते हैं। बड़ा अजीब समाज है हमारा। हर व्यवसायी राजनीती के आग में अपनी रोटी सेंकने को तैयार है।

मैं कहानी को आगे बढ़ने में असक्षम महसूस कर रहा हूँ। मैं रज़ा साहब को सलाम करता हूँ की उन्हें ऐसे विषय पर एक उपन्यास लिख डाला। मैं उनका मुरीद हो गया हो।

रज़ा साहब ने अपने शब्दों में इसी उपन्यास में कहा है की "यह कहानी किसी विशेष व्यक्ति से सम्बंधित नहीं है, यह कहानी किसी विशेष शहर से सम्बंधित नहीं है, यह कहानी है पूरे हिन्दुस्तान की"

मैं रज़ा साहब की इस बात से इत्तेफाक रखता हूँ..... आप सभी जब इस उपन्यास को ख़तम करेंगे तो सोचेंगे की यह कहानी तो हिन्दुस्तान की है। इसे कैसे लेखक ने एक शहर में कुछ किरदारों का प्रयोग करके समेत लिया है।

मैं सिर्फ अगर इस उपन्यास के मुख्य बिंदु सांप्रदायिक दंगों की बात करूँ तो आज का भारतीय का हर नागरिक जानता है की इन दंगो ने कितने घाव दिए हैं। प्रत्येक नागरिक इन दंगो से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से घायल नज़र आता है। भारतीय समाज ने सन ४७ के बाद से कई प्रमुख दंगे देखे हैं। उन्हें याद है की इससे कितनी हानि होती है। फिर भी लोग उन घावो को भुला कर एक नया बलवा शुरू कर देते हैं। आज समाज में बलवा हुआ है तो उससे समाज को तो नुकसान ही पहुंचा है। फायदा हुआ है तो सियासती नेताओं को जिन्होंने इन दंगो में तबाह हुए घर, घायल हुए लोगो और मृतकों की चिताओं और कब्र पर पैर रख कर अपनी राजनीती की कुर्सी संभाली है। लोग क्यूँ भूल जाते हैं की भूतकाल में हुए दंगो से उन्हें कितने नुकसान हुए हैं।
वे भूल जाते हैं क्यूंकि यह "बिमारी" उन्हें एक "ओस की बूँद" की तरह लगता है।

"ओस की बूँद" को कहानी समझ कर पढ़ लेना और भूल जाना, इस कहानी के साथ इन्साफ नहीं करता है। यह कहानी नहीं है, यह एक रिपोर्ट है, भारतीय समाज की। यह कहानी नहीं, एक निबन्ध है, भारतीय समाज पर। यह कहानी नहीं, एक व्यंग है, भारतीय समाज पर। यह कहानी नहीं, इतिहास है, भारतीय समाज की।

माना की यह एक काल्पनिक कहानी है लेकिन यह सच्चाई के ९९% हिस्सों को दिखता है। और सिर्फ एक प्रतिशत कल्पना के द्वारा हम कह सकते हैं की यह एक काल्पनिक कहानी है। अब हम पर निर्भर करता है की हम कौन से हिस्से को सच्चाई और कौन से हिस्से को कल्पना मानते हैं।

"ओस की बूँद" एक नायाब कहानी है जिसे हर भारतीय को पढना चाहिए।

**नोट** - अगर मेरे द्वारा लिखे गए उपरोक्त लेख से किसी की भावना को ठेस पहुची हो या दिल पर चोट लगी हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। लेकिन अगर फिर भी किसी को शिकायत है तो मैं आपकी शिकायत दूर करने में अपने आपको बहुत कमजोर मानता हूँ। यह शिकायत आपको यह पुस्तक पढने ���े बाद ही दूर होगी।

आपके अमूल्य विचारो के इंतज़ार में
राजीव रोशन
Profile Image for विकास 'अंजान'.
Author 8 books42 followers
September 22, 2016
4.5/5
एक मर्मस्पर्शी उपन्यास। गाजीपुर एक छोटा सा शहर है जहाँ आज़ादी से पहले गंगा जमुना तहजीब फल फूल रही थी। लेकिन आज़ादी के दौरान और उसके बाद किस तरह साम्प्रदायिकता उधर पनपी, यही इस उपन्यास का विषय है।
Profile Image for Tarun Pandey.
41 reviews1 follower
February 9, 2025
पुस्तक - ओस की बूंद
लेखक - राही मासूम रज़ा

किरदार - शहला, शहरनाज़, दुल्हन बी, हाज़रा, हशमत, मुसम्मात अकबरी बीवी, वहशत, वज़ीर हसन, हयातुल्लाह अंसारी, दीनदयाल, राम अवतार, ठाकुर शिवनारायण, बाबू बाँके बिहारीलाल, जोखन

ओस की बूंद को पढ़ते हुए लगता है कि भारत के आजादी के पश्चात् यह उपन्यास हिन्दू और मुस्लिम के साम्प्रदायिक दंगों से प्रभावित होकर लिखा गया उपन्यास है मगर जैसे जैसे आप इसके पन्ने को पलटते जाइयेगा आप को एहसास होता जाएगा कि यह किसी के बेटे का पाकिस्तान से वापस ना आने का दुख है ; किसी का अपने दोस्त को खो देने का दुख है तो किसी का अपनी प्रेमिका को खो देने का दुख है। राजनीति का एक ऐसा दलदल है जहाँ इंसानियत दम तोड़ देती है। उपन्यास मौक़ापरस्त लोगों की काली करतूतों से रूबरू कराता है। नौजवान लड़कियों को घूरती आँखें और हर क़दम पर उनका आँखों द्वारा किया गया बलात्कार दर्शाता यह उपन्यास सिर्फ़ हिन्दू और मुस्लिम के साम्प्रदायिक दंगों तक सीमित न होकर अमानवीय हरक़तों पर प्रकाश डालता लोगों को बदलने की दुहाई देता उपन्यास है।

यह कहानी शुरु होती है एक स्कूल के नाम बदलने की दास्तां से। मुस्लिम एंग्लो वर्नाक्युलर हाई स्कूल बदलकर मुस्लिम एंग्लो हिंदुस्तानी हायर सैकंडरी स्कूल रखने का प्रस्ताव रखते हैं श्री ह्यतुल्लाह अंसारी और इसका विरोध करते नज़र आते हैं वज़ीर हसन। यह कहानी घूमती है वज़ीर हसन के इर्दगिर्द। उनका अपने स्कूल को त्याग देना, उनके साथ मुस्लिम लीग के साथी ह्यतुल्लाह अंसारी से विचारों का मदभेद होना, उनके बेटे अली बाक़र का पाकिस्तान चले जाने के उपरांत उनकी बीवी का पागल हो जाना और उनके घर के अंदर स्थित मन्दिर पर विवाद होने के उपरांत उनकी बेटी शहला का अपने प्रेमी से जुदाई का प्रसंग और अंनत उसके बलात्कार के साथ इस कहानी का अंत अन्तर्मन को झकझोर देता है।

एक घर के क्या मायने होते हैं और क्यों एक घर नफ़रत और मुहब्बत दोनों से ऊँचा होता। किताब की यह पंक्तियां कि " घर! देखने और सुनने में कैसा फटीचर लगता है यह शब्द! परन्तु यह एक शब्द मनुष्य की हज़ारों-हज़ार शताब्दियों का इतिहास है। तो मनुष्य अपने इतिहास से भागकर कहाँ जाए? यह शब्द दुम की तरह साथ लगा रहेगा।...घर। यह शब्द मुहब्बत, नफ़रत, धर्म और भगवान—सबसे बड़ा है। " इस उपन्यास को एक दिशा देता है। एक घर ही है जो वज़ीर हसन को भारत में रुकने की प्रेरणा देता है, शहला को अपने प्रेमी से विरोध करने की शक्ति देता है और उस घर के हक के लिय लड़ते हुए फ़ना हो जाने देता है।

इस किताब को पढ़ते हुए इंसान की अमानवीय गतिविधियों के बारे में पता चलता है। इस समाज के संरचनाओं से अवगत होने का एक मौका मिलता है और यह बात पूर्ण रूप से दिखाई देती है कि सत्ता चाहे किसी के पक्ष में हो महिलाओं की ही बलि चढ़ती है। चाहे एक माँ अपनी औलाद हमेशा के लिए खो दे जो कि यहाँ देखने को मिला जिसके कारण वज़ीर हसन की बीवी हाज़रा पुत्रवियोग में पागल हो गयी। आबेदा जीते जी विधवा हो गयी और शहला अनाथ हो गयी। जंग कोई भी जीते उस जंग में हारती सबसे पहले एक लड़की है।

राम अवतार जैसे शांतिप्रिय आत्मा को शांति कायम रखने के प्रयासों के बदले कैसे गालियाँ दी जाती हैं और राजनीतिक गतिविधियों से लाभ उठाने वाले धूर्त लोभी लोगों का सच खुल कर सबके सामने प्रस्तुत करता यह उपन्यास इस बात पर भी मोहर लगा देता है कि नफ़रत के बीच बोने वाले लोगों को किसी भी पक्ष से किसी तरह की कोई सहानुभूति नहीं है। उन्हें बस अपना उल्लू सीधा करने से मतलब है। फिर चाहे राम अवतार अपनी जान से हाथ धो बैठे या फिर वज़ीर हसन को झूठ में मंदिर की मूर्ति तोड़ने की साज़िश में बदनाम कर दिया गया हो और गाज़ीपुर शहर आग के गोले में तब्दील हो गया हो।

हम आज सन २०२५ में जी रहें हैं और आज भी हमारा सच नहीं बदला है। आज भी महिलाओ के साथ कुकर्म किए जा रहे हैं। आज भी राजनेताओं द्वारा जन जन में नफ़रत की आग फैलाई जा रही है। आज भी लोग अपने फ़ायदे के लिए, पैसों के लिए किसी का भी गला काटने को तैयार हैं। आज भी लड़कियों को उनसे ख़तरा है जिन्हें वे जानती हैं और जिनपे भरोसा करती हैं। यह उपन्यास समाज का काला सच आपके सामने रखता है और इसका अंत आप को झकझोर देता है।

/ तरुण पाण्डेय
34 reviews
November 23, 2025
राही मासूम रज़ा को पढ़ते हुए यह समझ बना रहती है कि हम एक बड़े लेखक के सामने खड़े हैं। ऐसे लेखक के सामने, जिसकी भाषा, दृष्टि और वैचारिक स्पष्टता ने हिंदी साहित्य में गहरी छाप छोड़ी है। इसलिए जब ‘ओस की बूंद’ जैसी रचना पर कुछ लिखने की कोशिश करता हूँ, तो सबसे पहले यही ख्याल आता है कि मेरी हैसियत ही क्या है कि मैं उनकी कृति पर टिप्पणी करूँ।

लेकिन पाठक होना भी एक अनुभव है। और पाठक का अनुभव सिर्फ ज्ञान से नहीं, बल्कि संवेदना से बनता है। मैं किताबों से तर्क की तरह नहीं, भावना की तरह जुड़ता हूँ। इसलिए अगर कोई रचना मुझे नहीं छू पाती, तो मैं उस न छू पाने के सच को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता।

‘ओस की बूंद’ पढ़ते समय यही महसूस हुआ कि मैं उससे जुड़ नहीं पाया।

मैंने इसे एक गहरी उम्मीद के साथ पढ़ा था, खासकर ‘टोपी शुक्ला’ के बाद, जिसने मन में रज़ा साहब के प्रति एक अलग ही भरोसा बना दिया था। मुझे लगा था कि यह रचना भी वैसी ही बेचैनी, वैसी ही असहज सच्चाई और वैसा ही सवाल छोड़ जाएगी, लेकिन यह रचना धीरे-धीरे मेरे लिए केवल एक सुंदर, पर दूर खड़ी कहानी बनती चली गई।

पूरी रचना के दौरान मैं कुछ खोजता रहा ऐसा कोई बिंदु, जहाँ शब्द भीतर उतरें, जहाँ कहानी मेरे अनुभव से जुड़ जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भावनाएँ थीं, पर मैं उनसे जुड़ नहीं पाया। पीड़ा थी, पर वह मेरी पीड़ा नहीं बन सकी।

यह कहना शायद ज्यादा उचित होगा कि यह रचना मुझसे नहीं जुड़ पाई, न कि यह रचना कमजोर है। क्योंकि साहित्य का संबंध अक्सर लेखक और पाठक के बीच घटित होता है, और कई बार वहाँ दूरी भी रह जाती है।

इसलिए यह लेख किसी फैसले की तरह नहीं, बल्कि एक स्वीकार की तरह है। एक ऐसा स्वीकार, जिसमें सम्मान भी है और ईमानदारी भी।

मैं रज़ा साहब के लेखन से इंकार नहीं कर रहा, लेकिन ‘ओस की बूंद’ के साथ मेरा रिश्ता वह नहीं बन सका, जिसकी मुझे आशा थी।
Profile Image for Tejas Modhvadia.
78 reviews
March 27, 2025
राही मासूम रज़ा की लेखनी की बेबाक़ी और संवेदनशीलता ही उन्हें हिंदू-मुसलमान जैसे नाज़ुक मसलों पर लिखने का अधिकार देती है। वे इस अधिकार का इस्तेमाल अद्भुत निडरता और निष्पक्षता के साथ कर��े हैं। कौमी दंगों का फार्मूला उनके उद्भव स्थान से लिखतें हैं, आज़ादी से ठीक पहले और तुरंत बाद। आश्चर्य की बात यह है की दशकों बाद भी वही फार्मूला चल रहा है। चाँद तक पहुँच जाने वाले इस युग में भी हम “आधे चाँद और पूरे चाँद की लड़ाइयों” में फंसे हुए हैं।

क्या हमारा मानसिक विकास अधूरा हुआ है या फिर यही नियति है? कितना दुखद है की समाज की सारी क्रूरता जानने के बाद भी यही समाज है जिसे अपना कहना है। उनका यह उपन्यास आज के दौर में शायद Ban कर दिया गया होता, पर Ban करने वालों की साहित्य में अरुचि ने इसे बचाए रखा है।

PS:
पढ़ें अगर आपको कौमी राजनीति में रुचि है।
पढ़ें अगर हिंदू-मुसलमान बहस अब भी आपके लिए सिर्फ मुग़लों पर अटकी है।

@saurabhtop अनुशंसा के लिए धन्यवाद ।
Profile Image for the.curious.incident.of.username.
18 reviews5 followers
February 28, 2018
Those who have read Rahi Masoom Raza, know about his writing style. It’s not flamboyant but very grounded. The use of local dialect(in his case, khadi boli of eastern UP) dominates the novel and that’s the beauty of it. You never feel alienated from the story as if you are living each one of the pages.
This is reality wrapped in fiction and presented to the masses. Unlike other writers, who describe partition in black and white, Raza sahab digs deeper into the human aspect of it; how it affected and moulded a person’s thought process, his very being.
The story, although crafted in the 70s, is still prevalent. One is forced to see the similarities between the past and the present and it’s saddening. With all the technological advancements, socially and culturally, we are still stuck in the past.
2 reviews
December 7, 2025
जोख्नन सोच रहा था कि जो वह हिंदू रहा होता तो इह बखत मजे में हम एकी लेते होते । किसमते साली गाड है। हम्मे मुसलमान होए की का जरूरत रही
"लगता ऐसा है कि ईमानदार लोगों को हिंदू-मुसलमान बनाने में बेरोज़गारी का हाथ भी है।"
नई नस्ल तो हमारी नस्ल से भी ज़्यादा घाटे में है। हमारे पास कोई ख़्वाब नहीं है। मगर इनके पास तो झूठे ख़्वाब हैं।
मुसलमान लड़कों के दिलों में दाढ़ियों और हिंदू लड़कों के दिलों में चोटियाँ उगने लगीं। यह लड़के फ़िज़िक्स पढ़ते हैं और कॉपी पर ओउम् या बिस्मिल्लाह लिखे बिना सवाल का जवाब नहीं लिखते।
54 reviews
February 15, 2011
'Os ki boond' is set during the time of partition. It is a poignant tale which captures the agony and heartbreaks of thousands of families and individuals.
Displaying 1 - 9 of 9 reviews

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