स्त्रियों के विरुद्ध होने वाले अपराध समाज की विकृत मानसिकता और उसके वैचारिक पतन को दर्शाते हैं। इन अपराधों के मूल में प्राय: वे सामाजिक परिस्थितियाँ होती हैं, जो स्त्री-व्यक्तित्व से भीतर ही भीतर पराजित, किंतु अहम्मन्यता के दबाव में उस पराजय को स्वीकार न करने के कारण स्त्री की देह को कुचलने वाले पुरुष को जन्म देती हैं। आम आदमी का प्रेमाख्यान पढ़ते हुए लगातार अनुभव होता रहता है कि हमारा वर्तमान स्त्री विरोध का उत्सव मनाने वाली गर्हित पुरुष-सत्ता के दर्प-जाल से मुक्त नहीं हुआ है। उपन्यासकर समाज-सांस्कृतिक अंतर्विरोधों और जटिलताओं के भीतर न जाकर बड़े सपाट ढंग से पाठक को घटनाओं के सामने खड़ा करता है, इतना अधिक कि कथानक के तानेबाने की वास्तविक प्रेरक जघन्य घटना फिर-फिर आँखों में तैरने लगती है। चरित्रों की मनोदशा उपन्यास को पठनीय भी बनाए रखती है।