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किन जैसे ही गायों की हालत पर रिपोर्ट आने लगी कि वे गौशालाओं में बग़ैर चारे के मर रही हैं, गायों के खुले घूमने से खेती चौपट हो रही है, किसान नाराज़ हैं, राजनीति ने गायों को छोड़ दिया है।
सांप्रदायिक बातें अब राष्ट्रवादी बताई जाने लगी हैं। ड्राइंग रूम की संभ्रांत चर्चा में सांप्रदायिकता अच्छे भोजन के बाद अच्छी मिठाई हो चुकी है।
जो पढ़े-लिखे लोग हैं वो मारने का नुकसान जानते हैं, इसलिए हिंसा के समर्थन का शालीन रास्ता अपनाते हैं। वो धीमे स्वर में किसी को सीधा करने या सबक सिखाने की राजनीति का समर्थन करते हैं, जिन्हें हम अच्छे और ज़िम्मेदार लोग कहते हैं।
बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में एक्यूट इंसेफेलाइटिस से 140 से अधिक बच्चों का मर जाना, गुजरात में सीवर की सफ़ाई करने के दौरान 7 सफ़ाईकर्मियों का मर जाना।
उनकी क़िस्मत के भरोसे चैनल और एंकर मौज कर रहे हैं। वे पत्रकारिता नहीं करते हुए भी पत्रकारिता का चेहरा बने हुए हैं। उनकी जवाबदेही समाप्त हो चुकी है। बस, शाम को टीवी पर आना है, दो वक्ताओं को बुलाकर आपस में लड़ा देना है और असली ख़बरों को दबा देना है। अब यह विकार इतना व्यापक हो चुका है कि इसमें नैतिकता और अनैतिकता के बिंदु खोजने का कोई मतलब नहीं रहा। ख़राब पत्रकारिता की विश्वसनीयता इतनी कभी नहीं थी।
2019 के लोकसभा चुनाव में जब मीडिया के स्पेस में सिर्फ़ एक पार्टी का बोलबाला था, उसी की ख़बरें थीं और उसी का गुणगान था, तब भी जनता को यह सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं लगा कि यह क्यों हो रहा
इस दौर में सबको भरोसा है कि इतिहास से डरने की ज़रूरत नहीं है। इतिहास बदला जा सकता है, घटनाओं और शख़्सियतों को देश की सामूहिक स्मृति से मिटाया जा सकता है, उतनी ही आसानी से जितना कि स्कूलों के टेक्स्टबुक से।
वे बेक़सूर थे। उनका क़सूर था तो सिर्फ़ इतना कि जब यह सब हो रहा था, तब वो सो रहे थे; और जब यह सब हो चुका है तब भी वे सो ही रहे हैं। नौजवान लड़के-लड़कियों ने यह समझना ही छोड़ दिया कि एक व्यवस्था के तहत उन्हें लाखों की फीस देकर इंजीनियर बनने के लिए मजबूर किया गया और उसके बाद उन्हें दस हज़ार की नौकरी भी नसीब नहीं हुई।
जिस मुल्क में 91 प्रतिशत कॉलेज औसत और औसत से नीचे के हों, क्या हम उनके छात्र-छात्राओं से लोकतांत्रिकता के उच्चतम आदर्शों की उम्मीद कर सकते हैं?
नौजवान 140-कैरेक्टर के ट्वीट और पावर प्वाइंट या मीम की ज़ुबान में ही समझ सकेंगे, क्योंकि उनकी समझने की क्षमता का इतना ही विकास होने दिया गया है।
अब तक केंद्र में मुख्य सूचना आयुक्त और राज्यों में सूचना आयुक्त हुआ करते थे जो कि सरकार से स्वतंत्र होकर कार्य करते थे, अब संशोधन के बाद सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में होंगे। इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा कि लोग इस लोकतंत्र में जिस तरह की सूचना चाह रहे हैं, जिनकी उन्हें
उपन्यास में एक किरदार है जो हर छपी हुई चीज़ से पुराने शब्दों और नारों को मिटा रहा है। जैसे हमारे देश में नेहरू और गांधी को लेकर कितने ही संदर्भ और स्मृतियाँ मिटा दी गई हैं। उपन्यास में हर जगह एक टेलिस्क्रीन लगा है, जिसके ज़रिये कोई बिग बॉस आम नागरिकों
हैं तो एक बार तो कहते ही हैं कि मीडिया बिक गया है। इसका मतलब है कि आपके भीतर भी मीडिया की वह पवित्र समझ अभी तक बाक़ी है जिसे मैं बड़ा होते देखना चाहता हूँ। बस, आप खुल कर नहीं कह रहे हैं कि हमें बिका हुआ मीडिया नहीं चाहिए।
आम कैसे खाते हैं? पर्स रखते हैं या नहीं? आपके स्वभाव में ये फ़क़ीरी कहाँ से आई है? ये वो सवाल हैं जो 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान फ़िल्मी सितारे और सेलिब्रिटी गीतकार द्वारा पूछे गए। उस देश में जहाँ ग़ैर बराबरी और भेदभाव के बीच स्वाभिमान से जीने-मरने की हज़ारों चुनौतियाँ हैं, उनसे जुड़े अनेक ज़रूरी सवाल हैं। तो भी ‘आम कैसे खाते हैं’ जैसे सवालों वाले इंटरव्यू प्रसारित होते हैं, देखे जाते हैं। कहीं कोई उल्लेखनीय विरोध नहीं होता।
पर ही न्यूज़ चैनलों के एंकरों और कई तरह के पदनाम वाले संपादकों के हैंडल का अध्ययन कीजिए। इनके ट्विटर हैंडल से लेकर प्रोग्राम के टाइटल तक आप देख लें। महीनों एक सवाल नहीं मिलेगा। न्यूज़ रूम में ऐसे कई संपादक हैं जिन्होंने महीनों से कोई ख़बर नहीं की
आम लोगों को तब तक इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता जब तक वे खुद पीड़ित नहीं होते हैं। जैसे ही वे प्रभावित होते हैं, सबसे पहले उनकी नज़र यह ढूँढ़ती है कि यहाँ रिपोर्टर कौन है?
जब तक इंसान को भूख का अहसास है, बोलने की बेचैनी है, तब तक वह जानने की छटपटाहट में रहेगा। आज लोग सुन्न पड़े हैं, कल जागेंगे। तब पूछेंगे कि भारत का लोकतंत्र महान कैसे हो सकता है, जब उसका मीडिया ग़ुलाम की तरह बर्ताव करता है। पत्रकारों के वेश में न्यूज़ एंकर गुंडों की तरह बात करते हैं।
ही नहीं, उन सबकी किताब जिनका वे विरोध करते रहते हैं। सबको अपने विरोधी मत की किताब भी पढ़नी चाहिए, ताकि किसी भी मत के बारे में सही राय बन सके। किसी को बिना जाने उसका विरोध या समर्थन करने से बचना चाहिए।
ऐसा नहीं है, हम भी डरते हैं; मगर इस डर
से मुक्ति का रास्ता था कि इस स्टोरी को लेकर सबके सामने हाज़िर हो जाया जाए। अब जो होना हो, वो हो जाए।
अक्सर इन बेचैनियों को साझा करने के लिए आस-पास कोई नहीं होता है। डर बाहर से आता है और हौसला भीतर से। जब डर लगे तो ख़ुद के भीतर झाँका कीजिए।
आप एक डर से आज़ाद होते हैं, मगर वह दस और डर का जाल बिछा देता है। साहस कुछ और नहीं, डर के एक घेरे से निकल कर दूसरे घेरे से निकलने का संघर्ष है।
आपका बोलना आपको अकेला कर देता है। आपके पास आपके अलावा कुछ नहीं बचता है। मैं अकेला महसूस करता हूँ। इस पेशे में मेरा कोई दोस्त नहीं है। जिससे भी बात करता हूँ, चुप रहने की सलाह देता है। मैं चुप नहीं रह सकता।
जाने वाला इतिहास झूठा और ज़हरीला है। इसके झूठ के शिकार तो भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी हो गए। उनके कुल-खानदान से लेकर उनका धर्म तक, यहाँ तक कि उनका नाम भी इस यूनिवर्सिटी ने बदल दिया, उसे तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं। आज जब नेहरू अपने ही देश में जिन्ना से भी बड़े दुश्मन साबित किए जा रहे हैं, तब ये ‘आईटी सेल’ और उसे बढ़ावा देने वाले लोग भला किसे छोड़ेंगे!
श की है, जिनमें राजदीप सरदेसाई, राणा अयूब, सागरिका घोष और बरखा दत्त के साथ मेरा
क्या कर रहा हूँ। दो सवाल पूछ लेने की इतनी बड़ी सज़ा हो सकती है कि आपके पीछे एक भीड़ छोड़ दी जाए। कई जगहों पर लोगों के ग़ुस्से का शिकार हुआ। कभी लड़कों ने डंडा लेकर पीछा किया तो कहीं पर लोगों ने कॉलर
जीने से लेकर काम करने तक के दरवाज़े बंद होने की सलाह के बीच मेरे लिए बोलना ही उस खिड़की की तलाश है, जिससे सुना है कि हवा और रोशनी कम ही सही, मगर आती है।
कहीं यह नवंबर 2016 की नोटबंदी का असर तो नहीं! शायद कैश ख़त्म हो गया होगा।
ये ख़बरें बताती हैं कि सत्ता के ख़िलाफ़ बोलना आसान नहीं है। बोलने से पहले अब जेल जाने से लेकर लिंचिंग तक के लिए तैयार रहना होगा। भीड़ को क़ानून का भय नहीं है।
लोकतंत्र पर हावी हो रहे इस भय-तंत्र के दौर में सत्ता और ताक़त की विचारधारा से असहमति भी आपको अल्पसंख्यक बना सकती है।
एक सवाल यह भी कीजिए कि क्या आप चुप रहकर चैन की नींद सो सकते हैं? बोलना मुश्किल नहीं है। मुश्किल है बोलने से पहले डर के सुरंग से गुज़रना। यह डर हमेशा सत्ता का नहीं होता है। ग़लती कर जाने का भी डर होता है।
आप ख़ुद से एक सवाल कीजिए। क्या आपको बोलने से डर लगता है? क्यों लगता है? क्या आप डरने के लिए कोई व्यवस्था का चुनाव करते हैं? यह डर मार दिए जाने का है या अकेला हो जाने का है? अगर मार दिए जाने का डर नहीं है तो आप दोस्तों के बीच अकेला हो जाने का डर मत पालिए। इतना तो आप जोखिम उठा ही सकते हैं। दोस्तों की निष्ठा जिसके प्रति हो, अगर आपको लगता
बात चर्चा की हुई थी, मीडिया ने उसे हस्तक्षेप की तरह पेश कर दिया। ज़ाहिर है, राजनीति गरमा
प्रधानमंत्री आरोप मढ़ने और कटाक्ष करने के खेल में माहिर हैं। वह हमेशा निर्दोष होते हैं, क्योंकि खुलकर वे कभी सामने नहीं आते। इस मामले में भी उन्होंने बस संकेत दिए। अपने
बहुत से लोग कहते हैं कि यह पहले भी होता था। बहुत से लोग यह नहीं देख पा रहे हैं कि यह पहले से कहीं ज़्यादा बेहतर तरीक़े से हो रहा है।
आप सोच सकते हैं कि जब एक नेटवर्क को नफ़रत फैलाने वाली सामग्री को पकड़ने में हज़ारों लोग तैनात करने पड़ रहे हैं तो इस वक़्त दुनिया में फ़ेक न्यूज़ कितनी बड़ी समस्या है।
वक़्त कई चैनलों ने मंकी मैन की बाइट के लिए पाँच-पाँच रिपोर्टरों की टीम बनाई थी जो रात भर दिल्ली में घूमा करते थे। उन्हीं में से कई आज प्राइम टाइम के एंकर हैं। ज़ाहिर है, 2001 में मंकी मैन के ज़रिए जो प्रैक्टिस किया गया था वो अब काम आ रहा है।
ज़िलाधिकारी को निर्देश देने लगे कि वो अफ़वाह फैलाने वालों पर सख़्त कार्रवाई करें। कितनी अच्छी बात है कि फैलाने वालों के लिए सज़ा है मगर अफ़वाह पर यक़ीन करने वालों के लिए कोई सज़ा नहीं।
कोई इतिहासकार चुनौती न दे सके, इसके लिए सत्ता के ताक़तवर लोगों की तरफ़ से इतिहास के फ़ेक वर्जन लांच किए जाने लगते हैं। ऐसे संगठनों को समर्थन दिया जाने लगता है जिनसे मुक़ाबला करना किसी अकेले इतिहासकार के वश की बात नहीं है। यहाँ
चनाओं को न्यूज़ की शक्ल में पेश किया गया ताकि लाखों लोग उसे देख सकें और नेहरू के प्रति घृणा फैले। एक वीडियो में तो बताया गया है कि नेहरू की मौत एड्स से हुई थी। जैकलीन कैनेडी और मृणालिनी साराभाई की तस्वीरें लगाकर नेहरू को अय्याश दिखाया गया। फोटोशॉप का इस्तेमाल हुआ। विकिपीडिया में जवाहरलाल नेहरू और उनके पिता मोतीलाल नेहरू के बारे में जानकारियाँ बदल दी गईं।
यह एक तथ्य है कि हिटलर ने बहुत से यहूदियों को गैस चेंबर में मरवाया था, जिसे हम होलोकॉस्ट के रूप में जानते हैं। अब इस तथ्य को भी इंटरनेट से ग़ायब करने का खेल रचा गया। शुक्र है कि द गार्डियन अख़बार की कैरोल कैडवॉलडर ने इसे नोटिस कर लिया।
लेकिन जब 14 जून, 2017 को www.altnews.in ने इस तस्वीर को झूठ बताते हुए रिपोर्ट छापी तो सब हैरान रह गए। आख़िर गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में फ़ेक तस्वीर कैसे जा सकती है? आई कहाँ से? क्या यह रिपोर्ट गूगल सर्च करके बनाई जा रही थी? altnews ने बताया कि यह तस्वीर स्पेन-मोरक्को सीमा की
उन्होंने रिपोर्ट की तैयारी से जुड़े अधिकारियों से सफ़ाई माँगी तो पता चला कि वह तस्वीर बीएसएफ से आई थी। गृह सचिव ने उसके लिए अफ़सोस जताया और सालाना रिपोर्ट के ऑनलाइन संस्करण से उसे हटाया गया।
3 जुलाई, 2017
17 मई, 2017
एक सांसद का ऐसा करना बेहद ख़तरनाक था। लोगों के बीच एक ऐसी कल्पना को जन्म देना था, उन्हें उकसाना था कि कोई ऐसी बात कहे तो भीड़ उसकी ऐसी ही हालत कर दे। इसे लेकर कई बड़े न्यूज़ चैनलों पर बाक़ायदा बहस हो
फेसबुक उसका अकाउंट सस्पेंड कर देता है, जबकि ये जो गाली देने वालों की जमात है, जो ट्रोल हैं, उनको सस्पेंड नहीं करता