ही जन-सेवा करनी है। रामकृष्ण से भेंट ने उन्हें बुरी तरह हिला दिया था। वे बार-बार अपने को समझाते कि रामकृष्ण पागल हैं, झक्की हैं। फिर भी उनके मन के किसी कोने से पे्ररणा उठती कि उनका अनुगमन किया जाना चाहिए। तत्काल ही मन का कोई दूसरा कोना सजग हो उठता और कहता—यह कैसे संभव है? कैसे आप किसी पागल व्यक्ति का अनुगमन कर सकते हैं? फिर खुद ही उत्तर देने लगते—कौन पागल नहीं है! विचार अपने में ही बड़ी दीर्घ और गंतव्य-प्रेरित यात्रा है, फिर विचार पार की यात्रा तो निश्चित ही पागल कर सकता है। स्पेंसर हों या मिल, ये भी तो एक तरह के पागल ही हैं। नरेंद्र की दिक्कत यह थी कि वे आंशिक रूप से कुछ भी स्वीकार नहीं करते
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